दवा नहीं, दर्द दे रही हैं खबरें

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“हैलो, मैं अमेरिका से संजय सिन्हा बोल रहा हूँ।”
“हाँ संजय, बोलो।”
“यहाँ, न्यूयार्क में सुबह-सुबह एक बिल्डिंग से विमान टकरा गया है।”

“अरे! ठीक है, अभी 9 बजे के बुलेटिन में तुम फोन पर सारी जानकारी दे देना।”

“हाँ, बड़ा अजीब हुआ। हडसन नदी के पार से धुआँ उठता दिख रहा है। और टीवी पर खबर भी अब तो आने लगी है। खिड़की से उठते धुएँ की खबर टीवी पर अभी-अभी आयी है। कहीं से आता हुआ एक विमान ट्विन टावर से टकराया है।”

“अमेरिका में विमान इमारत से टकरा गया। बड़ी खबर है। बस अब फोन पर तुम सारी बात बता देना।”

“रुकिए-रुकिए, यह एक और विमान उसी इमारत में घुस गया है। दूर से बहुत तेज उठता धुआँ दिख रहा है या धूल दिख रही है। लेकिन मेरे सामने टीवी चैनल खुला है, मुझे लगता है लाइव दिखा रहे हैं। कमाल है। पहली बार ऐसा हुआ है।”

“क्या कह रहे हो? एक और विमान टकराया? यह कैसे हुआ?”

“तुम फटाफट फोनो दो। तुम फोन रखो। मैं यहाँ असाइनमेंट टीम से कहती हूँ तुम्हें फोन करें। तब तक और पता करो। क्या हुआ? कैसे हुआ? फिर फोन पर पूरी जानकारी देना।”

यह पूरी बातचीत 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में मेरी सुबह और यहाँ की शाम की है। मेरी बातचीत तब जी न्यूज में एक संपादक से हो रही थी।

मुझे अमेरिका पहुँचे हुए 7 महीने हो चुके थे। मैं जी न्यूज के संवाददाता के रूप में वहाँ काम कर रहा था और विमान के बिल्डिंग से टकराने की घटना जी न्यूज को दे रहा था। उसके बाद की सारी घटना अब इतिहास है।

मेरा बेटा स्कूल जा चुका था। हम लोग टीवी पर देख रहे थे कि कैसे एक के बाद दूसरा विमान सीधे-सीधे न्यूयार्क की शान कहे जाने वाले ट्विन टावर में समा गया था। आतंकवाद तब अमेरिका के लिए नया शब्द था।

पिछले सात महीनों में मैं अमेरिका को एक भरोसे और विश्वास के साथ जीने वाले देश के रूप में देख रहा था। ऐसे में समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ? मंगलवार का दिन था। अमेरिका में सुबह की शुरुआत जल्दी हो जाती है।

पौने 9 बजे सुबह तक तो पूरा शहर दौड़ने लगता है। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या होगा। ओसामा बिन लादेन का नाम तब तक सामने नहीं आया था। लेकिन इतना पता चल चुका था कि यह आतंकवादी घटना है। पूरा देश टीवी सेट से चिपक गया था।

एक के बाद एक खबरें आ रही थीं। पेंटागन के ऊपर एक विमान हवा में ही फट गया। राष्ट्रपति बुश कहीं स्कूल में बच्चों को संबोधित कर रहे थे, किसी ने कान में कुछ कहा और स्कूल का फंक्शन खत्म हो गया।

खबर आयी कि अमेरिका के आसमान में जो विमान जहाँ हैं, उन्हें वहीं उतारने का फरमान जारी हो गया है। आज आसमान में कोई विमान कहीं नहीं होगा।

आम तौर पर मैं अपने घर से वहाँ के एकदम साफ और नीले आसमान में हर मिनट एक विमान को तैरता हुआ देखता। लेकिन आज आसमान उदास रहेंगे, क्योंकि अमेरिका पर किसी आतंकवादी ने हमला कर दिया है।

कुछ देर में संदेह की खबर आयी कि ओसामा बिन लादेन ने हमला किया है। बॉस्टन से उड़े दो विमान दरअसल विमान नहीं थे, ओसामा के हथियार थे। पूरा देश शोक में डूब चुका था। बेटे के स्कूल से फोन आ गया कि स्कूल बंद किये जा रहे हैं। आप परेशान मत होइएगा।

बच्चों की काउंसलिंग की जा रही है। उन्हें इस हमले के बारे में बताया जरूर जा रहा है, लेकिन आप लोग घर में इस विषय पर ज्यादा बातचीत मत कीजिएगा। बच्चों में दहशत हो जायेगी। आप टीवी देखते हुए भी इस बात का ध्यान रखिएगा कि उनके बाल मन पर आतंक की यह तस्वीर अंकित न हो।

उधर, बच्चों से कहा जा रहा था, “ट्विन टावर से दो विमान टकरा गये हैं। शायद आतंकवादियों ने ऐसा किया है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है, लेकिन चिंता की कोई बात नहीं। तुम लोग परेशान मत होना। आज जल्दी घर चले जाओ। कल फिर आना। कल हम नये-नये ड्राइंग बनाना सिखायेंगे….।”

मैं गुजरात में 26 जनवरी 2001 का भूकंप और इससे पहले ओडि़शा में आये भयंकर चक्रवाती तूफान को कवर कर चुका था। मैंने लाशों की तस्वीर बहुत नजदीक से अपने कैमरे में शूट की थी। उसे वीभत्स और डरावना बना कर पेश किया था।

मैं लाशों के जितना करीब जा कर उन्हें शूट करता, उतना शानदार रिपोर्टर खुद को मानता। नाक पर मास्क लगा कर पीटीसी करता। कहता कि तीन दिन हो गये हैं भूकंप आये। देखिए यह लाश सड़ चुकी है। अब तक मलबा नहीं उठा।

आखिर यही तो है पत्रकारिता

लेकिन अमेरिका में इतना बड़ा हादसा हो गया। एक भी लाश नहीं दिख रही थी। टीवी वाले कह रहे हैं कि दस हजार लोग मर गये। दस हजार मर गये तो लाशों को कौन ले भागा? यहाँ के टीवी वाले मूर्ख हैं।

बस दो विमानों के टकराने की खबरें दिखाये जा रहे हैं। एक भी लाश नहीं? कोट-पैंट-शर्ट पर लाल निशान वाली तस्वीरें कहाँ हैं? लोगों के जूते? वो मातमी धुन?

मैं एक-एक कर सारे चैनल बदल चुका। कहीं कुछ नहीं। बस इतनी सी खबर कि अमेरिका पर सबसे बड़ा आतंकवादी हमला हुआ है। बुश ने यह कहा है। इसके अलावा न किसी और का कोई बयान, न खून से रंगी कोई तस्वीर।

आपको सिर्फ बताने के लिए बता रहा हूँ कि जिस वक्त ट्विन टावर पर हमला हुआ था, उस वक्त सीएनएन वहाँ अपनी एक फिल्म शूट कर रहा था। क्योंकि उनकी शूटिंग चल रही थी, इसीलिए ट्विन टावर से विमान के टकराने की घटना शूट हो गयी। वह करीब-करीब लाइव विजुअल था, जिसे आपने यहाँ टीवी पर बार-बार देखा। लेकिन आपने दस हजार मौत में से एक भी लाश अपने टीवी स्क्रीन पर नहीं देखी होगी।

वहाँ के लोग खबरों को जुगुप्सापूर्ण नहीं बनाते। वहाँ खबरों में थ्रिल नहीं पैदा किया जाता। वहाँ खबरों में मौत का ड्रामा नहीं रचा जाता। वहाँ खबरों को बेचने के लिए उन्हें झूठ के आँसुओं से नहीं सींचा जाता।

वहाँ किसी बच्चे की कापी पर खून के पड़े छींटों को सनसनीखेज नहीं बना कर उस तरह उन पर कविताएँ नहीं गढ़ी जातीं, जिस तरह पाकिस्तान में एक स्कूल में बच्चों पर हुए हमले के बाद हम सबने दिखायी है।

वहाँ मौत को थ्रिल नहीं माना जाता। उनके लिए जिंदगी थ्रिल है। वे आसमान से कूदते हैं, पहाड़ पर चढ़ते हैं, समंदर में गोते लगाते हैं। ये सब उनकी खबरें हैं। वे जिंदगी को लाइव जीते हैं, हमारी तरह मौत को नहीं।

आप अपने दिमाग पर जोर डालिए। मैं भी डाल रहा हूँ। मुझे न्यूयार्क में उतने बड़े हमले में मौत की एक भी तस्वीर नहीं दिखी थी। मैं तो वहीं था।

जब मुझे नहीं दिखी तो आपको भी नहीं ही दिखी होगी। मैंने उस घटना के बारे में अपने बेटे से उस दिन सिर्फ इतनी बात की थी कि तुम परेशान मत होना। ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं।

बेटा अगले दिन स्कूल गया तो स्कूल में प्रिंसिपल बच्चों को बैठा कर बता रही थीं, “ऐसी घटनाएँ दुखद होती हैं। तुम लोग इस बारे में अभी मत सोचना। दुनिया में कुछ गंदे लोग होते हैं, जो ऐसा कर देते हैं। तुम्हें अच्छा बनना है। तुम्हें बदले की कोई भावना नहीं रखनी। तुम्हें किसी से नफरत नहीं करनी। तुम लोग संसार के भविष्य हो। तुम लोग डरना नहीं। तुम लोग मम्मी पापा से कहना कि तुम्हें अच्छी कहानियाँ सुनायें।”

मैंने देर शाम दिल्ली में जनसत्ता अखबार के लिए एक लेख लिखा, “अमेरिका को डर है कि बच्चे कहीं डर न जायें।” लेख लिख कर संजय कुमार सिंह को मेल से भेजा, जो तब जनसत्ता में ही थे।

परसों हम टीवी पर एक बाइट चला रहे थे कि पाकिस्तान के स्कूल में हुए हमले में बच गया एक बच्चा मीडिया के सामने कह रहा था, “एक-एक को चुन-चुन कर मारूँगा।”

हम उस इंटरव्यू को दिखा नहीं रहे थे, बेच रहे थे। एक चैनल पर खून से लथपथ एक कापी दिखायी जा रही थी और ऐंकर कह रहा था कि इसे गौर से देखिए। यह एक मासूम की आखिरी निशानी है।

मेरा बेटा जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई दिल्ली से बाहर कर रहा है, इन दिनों दिल्ली आया हुआ है। मुझसे पूछ रहा था कि ऐसी खबरें क्यों दिखाते हो? इससे तो नफरत बढ़ेगी। दहशत बढ़ेगी। तुम तो अमेरिका में रह कर देख चुके हो कि खबरें कैसी और कितनी दिखानी चाहिए।

लेकिन तुम तो एक तरह से आतंकवादियों को उकसा रहे हो कि देखो तुम्हारी एक हरकत को हमने कितना फुटेज दिया है। इससे तो उनका हौसला ही बढ़ रहा है। वे इसीलिए तो ऐसी हरकतों को अंजाम देते हैं, ताकि उनकी बात दुनिया भर में पहुँच जाये।

तुम्हें खून, कपड़े, जूते, लाशों की तस्वीरें नहीं दिखानी चाहिए। याद है न अमेरिका में प्रिंसिपल ने क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि दुनिया में कुछ गंदे लोग होते हैं, जो ऐसा कर देते हैं। तुम्हें अच्छा बनना है। तुम्हें बदले की भावना नहीं रखनी है। तुम्हें किसी से नफरत नहीं करनी। तुम्हें डरना भी नहीं है।

पापा कुछ और दिखाओ। हमारे लिए तो इतनी ही खबर काफी है कि पेशावर के स्कूल में आतंकवादियों ने फायरिंग करके इतने बच्चों को मार दिया। बस इतना काफी है। इससे ज्यादा की दरकार नहीं।

हम जानते हैं कि मर जाना क्या होता है। हम जानते हैं कि किसी बच्चे का मर जाना माता-पिता के लिए क्या होता है। हम सब जानते हैं, तुम बार-बार दिखा कर उसे नासूर मत बनाओ। वह जख्म है, उसे मरहम चाहिए। उसे कुरेदोगे तो वह कैंसर बन जायेगा। दवा दो, दर्द नहीं। तुम्हारी खबरें दर्द दे रही हैं।

(देश मंथन, 19 दिसंबर, 2014)

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