मनीषा पांडे, फीचर संपादक, इंडिया टुडे :
सब बच्चे-बच्चे थे। बिलकुल बच्चों जैसे थे। सबके छोटे-छोटे झगड़े थे, छोटी-छोटी लड़ाइयां। किसी की रोज की तरह मां से झक-झक हुयी होगी। “उठो, स्कूल का टाइम हो गया” और उसे गर्म रजाई से बाहर निकलना दुनिया की सबसे बड़ी सजा लग रही होगी।
कोई टूथब्रश मुंह में दबाए वॉश बेसिन के सामने झपकियां ले रहा होगा। किसी ने कहा होगा, “अम्मी, स्कूल नहीं जाना। पेट में दर्द है।” अम्मी ने डांट लगायी होगी, “स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों को पुलिस पकड़कर ले जाती है।”
कोई स्कूल बस आने तक अब्बू की गोदी में चढ़ा ऊँघ रहा होगा। किसी ने टिफिन देखकर मुंह बिचकाया होगा तो किसी की आंखें टिफिन में अपना पसंदीदा डिश देखकर चमकने लगी होंगी। कोई शायद इसलिए स्कूल न जाना चाह रहा हो कि होमवर्क पूरा नहीं हुआ है। डाँट पड़ेगी।
कोई अपने दोस्त से मिलने की बेसब्री में स्कूल गया होगा। कुछ सीक्रेट काम करना था उन्हें। कोई सिर्फ इसलिए कि क्योंकि उसे फुटबॉल खेलना बहुत पसंद है। कोई अपनी अम्मी को चकित करता इसलिए स्कूल के नाम पर खुशी-खुशी तैयार हो गया होगा क्योंकि आजकल काले रिबन बाँधे लंबी चोटी वाली वो लड़की उसे बड़ी अच्छी लगती है।
वो इसलिए रोज स्कूल जाना चाहता है कि उसे देख सके। शायद आज वह स्कूल न आयी हो। या शायद वादा हो दोनों का आँखों ही आँखों का कि मैं आऊंगी जरूर और तुम देखना मुझे।
कितने बच्चों ने कितने बहाने बनाये होंगे कि आज स्कूल न जाना पड़े। और कितनी मांओं ने थोड़े गुस्से, थोड़ी मुहब्बत से, थोड़ा डांटकर और थोड़ा चूमकर भेजा होगा स्कूल। “अच्छे बच्चे रोज स्कूल जाते हैं।” स्कूल गये ‘अच्छे बच्चे’ फिर लौटकर नहीं आये।
(देश मंथन, 18 दिसंबर, 2014)