सोशल मीडिया पर क्रांतिदूतों से डर

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यशवंत राना:

नींद कभी-कभी जरूरी होती है और बहुत अच्छी लगती है। आज दिनभर सोता रहा और बस सोता ही रहा। कभी जगा भी तो जरूरत भर का काम करके फिर सो गया। अब भी शर्म से रोक रखा है कि यार ये भी क्या है ! समय की लाज भी तो कोई चीज होती है! उसके लिए ही कुछ कर लो। थोड़ा लिख-पढ़ लो। इतना सोने के बाद फिर सोना भी क्या सोना है! 

वैसे दिन में जब-जब जगा सोचा शहाबुद्दीन पर लिख दूँ। लेकिन लगा अभी लिख नहीं पाऊंगा, चलो सो जाते हैं। बीच में फेसबुक पर आया तो देखा अजीत जी और रवीश कुमार ने लिख मारा है। फिर तय किया कि रहने दो थोड़ा वक्त लेकर लिखूंगा क्योंकि बिहार के लोगों को शहाबुद्दीन का मतलब ठीक से पता है – जैसे सूरजभान, रामा सिंह, मुन्ना शुक्ला और सुनील पांडे जैसे लोगों के बारे में पता है। इसलिए लिखना तो पड़ेगा। 

तकलीफ इस बात से होती है कि आप किसी की कुंडली खोलते हैं (शहाबुद्दीन मार्का आदमी को ही मिसाल के तौर पर ले लीजिए) तो एक गिरोह उसकी तरफ से जंगली कुत्तों के झुंड की तरह आप पर लपकता है। सोशल मीडिया में कुछ लोगों को माई बाप माननेवाले या फिर आर्गेनाइज्ड तरीके से तैयार किए जाने वाले या कौम-जाति के नाम पर लठैती करनेवाले या यूँ ही आवारा जानवरों की तरह भटकने वाले ऐसे गिरोह को संभालना मुश्किल हो जाता है। आज दिन में जब भी फेसबुक पर गया, देखा अजीत अंजुम की पोस्ट सबसे ऊपर पड़ी है, क्योंकि किसी ने उसपर फौरन कॉमेन्ट कर रखा है। दो खेमों का खेल-सा हो गया है हर वो आदमी जो देश-समाज पर खुल कर लिखना-बोलना चाहता है।

आपका लिखा-कहा जिन लोगों को पसंद नहीं आ रहा है वे लाठी-डंडा लेकर आप पर पिल पड़ते हैं और कुछ दूसरे होते हैं जो रेस्क्यू के लिए आ कर आपके साथ खड़ा हो जाते हैं। अपने पाले में खड़ा कर आपकी ब्रांडिंग करने में लग जाते हैं । अरे भाई! आजादख्याली चलेगी या नहीं ? खुद से कुछ सोचने, लिखने या बोलने की गुंजाइश देंगे या नहीं? ऊपर से विरोध आप यूँ करते हैं जैसे लिखनेवाले ने आधी रात जा कर आपका खेत काट लिया है, आपको सुबह सुबह पता चल गया है कि किसने काटा है और आप घुमा-फिराकर उसकी दो तीन पुश्तों का इतिहास बांच रहे हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने पता नहीं कितना पढ़ा है और देश-समाज पर सोचा है लेकिन वो ये जताने से नहीं चूकते हैं कि अगर उन्होंने बहस शुरू कर दी तो चाणक्य, अरस्तु से लेकर मार्क्स, ग्राम्शी, मिल और दाँते पर उनको उतरना पड़ेगा, फिर आपको आपकी औकात पता लग जाएगी। ऐसे लोगों के मुगालतों से आपकी मुसीबत बढ़ती तो नहीं लेकिन कोफ्त होती है। आज अजीत जी को हुई होगी। रवीश के यहाँ भी मैंने ऐसा ही पाया। लोकतंत्र में कहने-सुनने और सुनाने का लगातार बड़ा होता मंच-सोशल मीडिया- वैसे तो वाकई क्रांतिकारी है लेकिन ऐसे क्रांतिदूतों के चलते ये डर हमेशा बना रहता है कि पता नहीं कौन सा वाला दूत कब अचानक लुढ़कता-पुढ़कता, अड़बड़ाता-बड़बड़ाता आपकी कमीज पर उल्टी करके चला ना जाए।

(देश मंथन 13 सितंबर 2016)

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