इन मौतों की जिम्मेदारी तो लेनी होगी सीएम साहब

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राजीव रंजन झा :

व्यापम – एक ऐसा घोटाला, जिसमें खुद मुख्यमंत्री के परिवार के लोगों के भी नाम उछले हैं। उन पर आरोप सही हैं या गलत, यह तो जाँच के बाद अदालत को बताना है। लेकिन राज्य में जिस घोटाले को लेकर सबसे ज्यादा उथल-पुथल है, उसके गवाह और अभियुक्त एक के बाद एक रहस्यमय ढंग से मरते जा रहे हैं और अब इस मामले की छानबीन करने दिल्ली से पहुँचा आजतक का संवाददाता भी अचानक बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के मर जाये तो इससे क्या समझा जाये? 

क्या यह वाकई बस एक बड़ा दुर्योग था कि मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले में रहस्यमय ढंग से मृत गवाह/अभियुक्त के परिजनों से बात करने के लिए गये युवा पत्रकार अक्षय सिंह की अचानक बिना कारण मृत्यु हो जाये? या फिर कुछ मित्रों को इतना भी गणित नहीं आता कि 2 + 2 = 4 होता है?

शिवराज सिंह चौहान जी, अगर आप इन 45 मौतों के संदिग्ध नहीं भी हैं तो राज्य के मुखिया के तौर पर इन मौतों को रोकने में नाकामी के कारण आपको चले जाना चाहिए। जाना ही होगा।

व्यापम घोटाले में जितने लोग मरे हैं, वे सब इसी तरह मरे हैं कि सीधा संपर्क जोड़ना मुश्किल है। अक्षय जिस व्यापम मामले में अभियुक्त/गवाह जिस लड़की के परिजनों से मिलने गया था, वह ट्रेन से गिर कर मर गयी थी। अब साबित करते रहिए कि उसके साथ कोई हादसा हो गया, या वह खुद कूद गयी थी, या किसी ने धक्का दे दिया था। एक त्रासद संशय होता है कि अक्षय के मामले में भी कुछ नहीं निकलेगा। हम लोग चार दिन छाती पीटेंगे, फिर अपने-अपने काम में लग जायेंगे।

क्या हृदय गति रुकने से होने वाली मौत संदिग्ध नहीं रह जाती? व्यापम घोटाले में तमाम डॉक्टरों के नाम जुड़े हैं और मरने वालों में भी कई डॉक्टर हैं। इसलिए संशय होता है कि कहीं बेहद पेशेवर ढंग से लोगों को ठिकाने लगाने का अभियान तो नहीं चल रहा, जिसमें जाँच करने पर भी कोई सुराग न मिले? एक खबर देखी कि आत्महत्या के एक मामले में दरअसल चीनी लेजर गन जैसी चीज के इस्तेमाल का शक है। 

हृदय गति रुकने की घटना को कृत्रिम रूप से अंजाम दिया जा सकता है या नहीं, इस पर लंबी रिसर्च चलती रही है और यह स्थापित होता जा रहा है कि ऐसा हो सकता है। अचानक और बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के किसी की तबीयत बिगड़ जाये, तो इसके पीछे विष का इस्तेमाल हो सकता है, जो शायद कई घंटों पहले दिया गया हो या शायद एक-दो दिन पहले भी।

इन संदिग्ध मौतों को ले कर कयासों का सिलसिला चल पड़ा है। अक्षय सिंह की मौत को संदिग्ध मानने के पीछे मेरे सामने इस बात के सिवाय कोई और कारण नहीं है कि 36-37 साल का एक अच्छा-भला हट्ठा-कट्ठा स्वस्थ छह-फुटा नौजवान अचानक इस तरह कैसे मर सकता है? लगातार चार दिनों से हर पल उसके साथ घूम रहे कैमरामैन ने कहा है कि उसे इस पूरे वाकये में कुछ ऐसा नहीं लगा जिससे लगे कि कोई साजिश की गयी हो। 

लेकिन अगर यह व्यापम से संबंधित अकेली घटना होती, तो यह तर्क आसानी से समझ में आता। व्यापम से जुड़ी एक के बाद एक 46-47 मौतें, और सभी मौतें इस तरह कि उन्हें दुर्घटना, आत्महत्या या अचानक तबीयत खराब होने के रूप में ही देखा जा सके। क्या यह बेहद शातिराना और गहरी साजिश का नतीजा नहीं लगतीं – साजिश ऐसी हत्याओं की जो पहली नजर में हत्या लगें ही नहीं?

लेकिन अगर यह एक बड़ी साजिश है तो इसका सूत्रधार कौन है? इन 46 मौतों की जिम्मेदारी किस पर है? ये मौतें व्यापम घोटाला सामने आने के बाद से ही लगातार नियमित अंतराल पर होती रही हैं। क्या यह कहना गलत होगा कि शिवराज चौहान या तो हत्यारों के संरक्षक हैं, या हत्याओं को रोकने और दोषियों को पकड़ने में नाकाम मुख्यमंत्री?

किसी ने कहा कि साजिश तो शिवराज चौहान के खिलाफ ही चल रही है। चलो एक बार मान लिया। तो ऐसे निकम्मे व्यक्ति को पद पर बैठने का क्या हक, जो अपने ही खिलाफ चल रही साजिश में 46-47 जानें चली जाने के बाद भी कुछ न कर सके?

व्यापम घोटाला हमारे समाज की उस मानसिकता का भी एक व्यापक प्रस्फुटन है, जिसमें किसी व्यक्ति की हैसियत इस बात से मापी जाती है कि वह कितने लोगों के कितने काम करा सकता है। यहाँ काम कराने का मतलब किसी के अटके हुए सही कामों से नहीं है। अक्सर मैंने लोगों की तारीफ में सुना है कि फलाँ साहब ने अपने गाँव के दर्जनों लोगों का उद्धार कर दिया उन्हें सरकारी नौकरी में लगवा कर, या फिर कि इतने लोगों को ठेके दिलवा दिये। 

जाहिर है कि यह सब प्रतिभा सूचियों को दरकिनार करके और नियम-कानूनों को धता बता कर ही होता है। लेकिन ‘लाभान्वित’ जनता साहब जी के जयकार करती है। बाकी लोग भी साहब जी के आसपास ही जी-हुजूरी करते रहते हैं, इस उम्मीद में कि साहब जी कभी उस पर भी कृपा कर देंगे। कहीं किसी को गुस्सा नहीं आता। सड़ा हुआ समाज ऐसे ही साहबों के लायक है।

जो बात अपने मित्रों-परिचितों-समर्थकों और गाँव-जवार के लोगों को उपकृत करने से शुरू हुई, वह आगे चल कर एक संगठित गोरखधंधा बन गयी। जब एक नामांकन या नौकरी के लिए लाखों रुपये रुपये मिल सकते हों और ऐसे अभ्यर्थियों की संख्या हजारों में हो, तो इस काले कारोबार की कुल कमाई का अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है। कहीं शिक्षक भर्ती, तो कहीं पुलिस भर्ती, कहीं मेडिकल-इंजीनियरिंग में दाखिला तो कहीं कोई और नौकरी – ऐसी कोई जगह नहीं बची, जहाँ इस भ्रष्ट तंत्र का राज नहीं जम चुका हो। इतने बड़े तंत्र के लिए खतरा बनने वालों को कीमत तो चुकानी ही होगी। 

(देश मंथन, 06 जुलाई 2015)

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