फुटबाल, फतवा और ममता!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :

फुटबाल और फतवे का भला क्या रिश्ता? और कहीं हो न हो, लेकिन शासन अगर ममता बनर्जी का हो तो फुटबाल से फतवे का भी रिश्ता निकल आता है!

अजब देश है, अजब राजनीति है यहाँ की और अजब राजनेता हैं यहाँ! वोटपरस्ती की ऐसी ही घटिया सोच ने समाज में ज़हर घोल रखा है।

शरीअत के खिलाफ!

बात पश्चिम बंगाल के माल्दा जिले की है। वहाँ हरिश्चन्द्रपुर के प्रोग्रेसिव फुटबाल क्लब ने अपने स्वर्ण जयन्ती समारोह के मौके पर महिलाओं का एक प्रदर्शन फुटबाल मैच रखा था। मैच लड़कियों के एक स्कूल में खेला जाना था। सारी तैयारी हो चुकी थी। मैच में राष्ट्रीय स्तर की कुछ महिला खिलाड़ी भी खेलने वाली थीं, लेकिन अचानक इलाके के मौलवियों और कुछ लोगों ने विरोध शुरू कर दिया कि इस तरह का मैच नहीं हो सकता, क्योंकि महिला खिलाड़ी छोटे कपड़े पहन कर खेलेंगी और इससे स्थानीय लड़कियों पर बुरा असर पड़ेगा। कुछ लोगों का कहना था कि इस तरह का खेल शरीअत के खिलाफ है।

प्रोग्रेसिव फुटबाल क्लब के काफी सदस्य मुसलिम हैं। क्लब के अध्यक्ष रजा रजी ने मौलवियों और लोगों को समझाने-बुझाने की भरपूर कोशिश की और स्थानीय प्रशासन से भी मदद माँगी, लेकिन मदद करने के बजाय स्थानीय प्रशासन ने कानून-व्यवस्था का हवाला देकर मैच पर ही रोक लगा दी!

ममता छाप सेकुलरिज्म!

यह है ममता बनर्जी छाप सेकुलरिज्म का घटिया नमूना। कोई भी सरकार जब ऐसी ऊँटपटाँग और बेहूदा जिदों के आगे घुटने टेकती है, तो वह साम्प्रदायिकता के नागों को ही दूध पिला रही होती है। सेकुलर होने का यह मतलब नहीं कि नागरिक मुद्दों और मामलों पर धर्म की अनाप-शनाप व्याख्या से फैसले लिये जायें। फुटबाल मैच का किसी धर्म से क्या लेना-देना? और महिला खिलाड़ी तो अपनी सामान्य जर्सियाँ ही पहन कर वहाँ खेलनेवाली थीं। इस पर किसी को क्यों और किस अधिकार से आपत्ति होनी चाहिये थी? और अगर कुछ कूढ़मगजों को आपत्ति थी भी तो प्रशासन उसके आगे झुका क्यों? जिन्हें आपत्ति थी, वे यह मैच देखने न आते, अपने घरों में बैठे रहते, लेकिन वे ऐसा मैच न होने दें, यह कैसे हो सकता है। सरकार संविधान से चलती है, शरीअत से नहीं। हाँ, राजनीति जरूर वोटों से चलती है, वरना ऐसा कतई नहीं होता!

मदरसा बम कांड में भी ममता सरकार ने बेशर्मी से मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की थी। कुछ राजनेताओं और राजनीतिक दलों की ऐसी ही घटिया हरकतों के कारण देश में सेकुलरिज्म को गहरा धक्का पहुँचा है। यह कड़ुवा सच है। देश में साम्प्रदायिक ताकतों और हिन्दुत्ववादी संगठनों का जो असर बढ़ा है, उसके पीछे यह एक बड़ा कारण है कि सरकारों और राजनीतिक दलों ने अपने वोटों के लिए इस तरह के नाजायज सवालों और जिदों के सामने घुटने टेके और उन्हें पाला-पोसा और अपनी ऐसी हरकतों से सेकुलरिज्म के खिलाफ लोगों को भड़काया।

फतवे का खेल हर जगह नहीं चलता!

सेकुलरिज्म का मतलब यह है कि राज्य स्वयँ किसी धर्म से किसी प्रकार का जुड़ाव नहीं रखेगा, किसी धर्म को आगे नहीं बढ़ायेगा और सभी मामलों में सभी धर्मों से समान व्यवहार करेगा। सभी को अपने धर्म को मानने या न मानने, उसका प्रचार-प्रसार करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, धर्म का दायरा केवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित होना चाहिये और बाकी सभी दूसरे मामले देश के सामान्य कानूनों से तय होने चाहिये, जो सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू हों। इस हिसाब से तो समान नागरिक कानून को देश में काफी पहले ही अपना लिया जाना चाहिये था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि देश के राजनीतिक नेतृत्व ने इसके लिये अनुकूल माहौल बनाने की दिशा में कभी कोई पहल ही नहीं की। उलटे शाहबानो मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए कानून जरूर बदल दिया गया।

समान नागरिक कानून और शाहबानो मामले तो खैर बहुत गम्भीर मुद्दे थे, लेकिन माल्दा का फुटबाल मैच तो बहुत छोटी और स्थानीय घटना है। सरकार और स्थानीय प्रशासन ने शायद जरा-सी कड़ाई से काम लिया होता, तो यह नौबत नहीं आती। यह फतवे का खेल इसीलिये खेला गया कि वहाँ के लोगों को यकीन था कि वह सरकार को झुका लेंगे। इन मौलवियों को जहाँ जरा-सा भी एहसास होता है कि वहाँ उनकी बात कोई नहीं सुनेगा, वहाँ वे चूँ भी नहीं करते! मुझे याद है कि अस्सी के दशक की शुरुआत में जिन दिनों मैं नवभारत टाइम्स, मुम्बई में शहर की रिपोर्टिंग किया करता था, जलगाँव इलाके में एक फतवा जारी हुआ कि मुसलिम महिलाओं को सिनेमा नहीं देखना चाहिये, क्योंकि इससे उन पर बुरा असर पड़ सकता है। वहाँ की एक मुसलिम लड़की रजिया पटेल ने इसके खिलाफ बड़ी मजबूती से संघर्ष किया और जीती भी। जिन दिनों जलगाँव में यह विवाद चल रहा था, मैं मुम्बई में कई मौलवियों, मुफ्तियों से मिला और पूछा कि उनकी राय क्या है। करीब-करीब सभी जलगाँव के फतवे से सहमत थे। मेरा सवाल था कि फिर आप मुम्बई में यही फतवा क्यों नहीं देते? जवाब था कि यहाँ हमारी बात कौन सुनेगा? जाहिर है कि तब उन मौलवियों को मालूम था कि अगर वे मुम्बई में ऐसा कोई फतवा देते भी हैं तो न तो मुम्बई के मुसलिम परिवार और उनकी महिलाएँ फिल्में देखना बन्द करेंगे और न वे अपने फतवे को लागू करा पायेंगे।

थोड़ा दबाव तो बनाइये

इसलिये राजनेता, राजनीतिक दल और सरकारों ने अगर सच में थोड़ा भी दबाव बना कर सेकुलरिज्म को आगे बढ़ाया होता, तो आज देश कहीं अच्छी हालत में होता। भारत जैसे देश के लिए सेकुलरिज्म का कोई विकल्प नहीं है और लोगों को यह बात भी समझनी पड़ेगी कि सेकुलर हुए बिना लोकतंत्र भी सम्भव नहीं है। लोकतंत्र और सेकुलरिज्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लोकतंत्र के बिना दुनिया में कहीं सेकुलरिज्म सम्भव नहीं और सेकुलरिज्म के बिना लोकतंत्र सम्भव नहीं। हम सेकुलरिज्म के प्रयोग को ठीक तरीके से कर नहीं पाये, इसका यह अर्थ नहीं कि हम हिन्दू राष्ट्र जैसी किसी अवधारणा में विकल्प तलाशें। धर्म पर आधारित कोई राज्य-व्यवस्था कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकती।

तो क्या हमारे पास लोकतंत्र के अलावा भी कोई और विकल्प है?

विकल्प एक ही है। सेकुलरिज्म को फुटबाल न बनने दिया जाये। ममता बनर्जी और उनके जैसे तमाम राजनेताओं को सख्ती से यह सन्देश देने की जरूरत है कि सेकुलरिज्म के साथ खिलवाड़ बन्द कीजिये। सेकुलरिज्म से खिलवाड़ देश से खिलवाड़ है!

(देश मंथन, 17 मार्च 2015)

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