बीमारी को पहचान लेना ही आधा इलाज है

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक 

उफक एक लड़की का नाम है। वो पढ़ना चाहती थी। तरक्की करना चाहती थी। पर उसकी शादी हो गयी। शादी के बाद पति भी उसे पढ़ाना चाहता था, पर सास ऐसा नहीं चाहती थी। सास ने षडयंत्र करना शुरू किया। बेटे के कान भरने लगी कि तुम्हारी बीवी पागल है। उसे इलाज की जरूरत है। घर में ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करने लगी, जिससे धीरे-धीरे उफक और उसके शौहर के बीच कटुता पैदा होने लगी। और आखिर में उसके शौहर को लगने लगा कि उफक सचमुच पागल है। उसने उफक को छोड़ दिया, दूसरी लड़की से शादी कर ली।

उफक की जिन्दगी में जो हुआ, सो हुआ। 

पर सास अपनी आदतों से बाज नहीं आने वाली थी। उसने बेटे की दूसरी बीवी के साथ भी बुरा बर्ताव शुरू किया और आखिर में उसकी दूसरी बीवी खुद अपने शौहर को छोड़ कर चली गयी। 

अब बेटे की जिन्दगी बर्बाद हो गयी। दुर्भाग्य यह कि बेटा कभी समझ ही नहीं पाया कि वो अपनी पहली बीवी, जिसे वो पागल समझ कर छोड़ गया था, उसमें दोष था ही नहीं। दूसरी बीवी, जिसका साथ भी छूट गया, वो भी दोषी नहीं थी। बेटा पहले अपनी बीवियों को दोषी मानता रहा। फिर अपनी परिस्थिति को कोसने लगा। उसकी समझ में यह सच आने तक बहुत देर हो चुकी थी कि समस्या असल में थी कहाँ।

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मेरे एक मित्र मुझे बता रहे थे कि उनके बेटे के स्कूल से शिकायत आयी है कि उनका बेटा, जो आठवीं कक्षा में है, गणित में कमजोर है। वो बहुत परेशान थे। उन्हें कल पेरेंट-टीचर मीटिंग में जाना था। उन्होंने अपनी परेशानी मुझसे साझा की और पूछा कि समझ में नहीं आ रहा कि गलती कहाँ हुई। 

मैंने उनसे कहा कि बच्चे में कोई गलती नहीं है। मैं आपके बच्चे से मिला हूँ, वो बहुत शरीफ और तहजीब पसंद बच्चा है। समस्या स्कूल में है। समस्या टीचर में है।

“स्कूल में? टीचर में?”

“हाँ। आपका बेटा नर्सरी से उसी स्कूल में पढ़ रहा है। अगर बच्चा किसी विषय में कमजोर है, तो यह स्कूल की जिम्मेदारी है, न कि आपकी। बच्चा आपके पास कम टीचर के पास अधिक समय गुजारता है। और अब अगर टीचर ही कहे कि आपका बच्चा किसी विषय में कमजोर है, तो उसी की जिम्मेदारी हुई। 

स्कूल की टीचर मानती है कि बच्चा अगर किसी विषय में कमजोर है, तो यह बच्चे की कमी है। बच्चे के पिता भी यही मानते हैं कि अगर बच्चा किसी विषय में कमजोर है तो यह बच्चे की कमी है। और बच्चे को लगता ही है कि वो सचमुच कमजोर है। 

पर मैं ऐसा नहीं मानता। मैं मानता हूँ कि यह टीचर की कमी है।

अब आप कहेंगे कि बाकी बच्चे तो पढ़ने में ठीक हैं। पर अगर कोई बच्चा ठीक से नहीं पढ़ पा रहा तो, यह टीचर को देखना चाहिए। 

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और एक बात- 

परसों टीवी पर एक इंटरव्यू में मैं देख रहा था कि एक विद्यार्थी नेता कह रहे थे कि उनकी माँ की कुल आमदनी सिर्फ तीन हजार रुपये प्रति माह है। उसी में उनके पूरे परिवार का गुजारा चलता है। 

जिस इलाके की यह कहानी है, मैं वहाँ कुछ समय रहा हूँ। छात्र नेता जो कह रहे थे, वो बिल्कुल सही बात है। 

पर सोचने की बात ये है कि उस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? आप जिस राजनीतिक दल के समर्थन की बात कर रहे हैं, या जिस राजनीतिक दल के विरोध की बात कर रहे हैं? आप जिसका विरोध कर रहे हैं, उसकी तो वहाँ कभी सत्ता थी ही नहीं। फिर तो आजादी के इतने सालों बाद भी अगर वहाँ की स्थिति इतनी खराब है, समाज में इतनी विषमता है, तो उसके सच को समझने की कोशिश करनी चाहिए। 

मेरी पोस्ट में आप रत्ती भर राजनीति मत तलाशिएगा। मैं किसी राजनीतिक पार्टी का हमदर्द नहीं हूँ। पर मैं हमेशा चाहता हूँ कि सच को सच की तरह समझा जाए। 

मलेरिया होने पर जो लोग ठंड का इलाज करते हैं, वो सिर्फ कंबल ओढ़ते रह जाते हैं, जबकि दरकार कुनैन की गोली की होती है। 

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उफक के पति को पहले ही समझना चाहिए था कि पत्नी सचमुच पागल है, या घर में कोई षडयंत्र चल रहा है। 

मेरे मित्र को यह पता करना चाहिए था कि स्कूल में सचमुच पढ़ायी हो रही है, या सिर्फ होमवर्क और पीटीए करके खाना पूर्ति की जा रही है। 

जो ऐसा कहते हैं कि उन्हें भारत में आजादी चाहिए, उन्हें भी सोचना चाहिए कि किससे आजादी चाहिए। 

बीमारी को पहचान लेना ही आधा इलाज होता है। सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध करना समझदारी नहीं होती। समझदारी होती है, सच को समझने में। 

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आखिरी बात-

एक स्कूल में एक टीचर स्कूल निरीक्षण पर आए अधिकारियों से अपने एक विद्यार्थी की तारीफ कर रही थी। कह रही थी कि ये बच्चा बहुत मेधावी है। बच्चे ने टीचर के मुँह से यह बात सुनी और तुरंत कहा, पर हमारी टीचर अच्छी नहीं हैं। 

टीचर हैरान हो कर होकर बच्चे की ओर देख रही थी। 

अधिकारी ने पूछा कि तुम ऐसा क्यों कह रहे हो बेटा?

बच्चे ने कहा कि अगर टीचर अच्छी होतीं, तो हर बच्चा मेधावी होता। 

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स्कूल बदलिए, साहब। बच्चे नहीं बदले जाते… 

(देश मंथन, 06 मार्च 2016)

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