संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज पोस्ट नहीं लिखूंगा। आज आपसे बातें करूंगा।
कल मैंने अपनी पोस्ट में इस बात की चर्चा की थी कि राजस्थान के कोटा शहर में चलने वाले कोचिंग संस्थान में पढ़ने वाली एक लड़की ने भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय को चिट्ठी लिखी कि बच्चों को मशीन बनाने वाले इन कोचिंग सेंटर को बंद किया जाना चाहिए। उसने लिखा कि यहाँ बच्चों पर पढ़ाई का अनावश्यक दबाव डाला जाता है। उस लड़की ने यह भी लिखा कि उसे इंजीनियर नहीं बनना था, पर उसकी माँ का सपना था कि बेटी इंजीनियर ही बने और इसके लिए उसने अपनी बेटी को जबरन कोटा के कोचिंग सेंटर में दाखिला दिलाया।
लड़की पढ़ने में होशियार थी, पर उसे इंजीनियर नहीं बनना था। माँ नहीं मानी तो नहीं मानी। आखिर में लड़की ने आत्महत्या कर ली और माँ के लिए उसने लिखा कि माँ, तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकती कि मैं तुमसे कितनी नफरत करती हूँ। साथ ही माँ को हिदायद दे कर गयी कि अपनी छोटी बेटी पर किसी तरह का दबाव मत डालना, वो जो करना चाहे उसे करने देना।
कल की पोस्ट पर आप सबने अपनी प्रतिक्रियाएँ जताईं।
जैसा कि मैंने पहली ही पंक्ति में लिखा है कि आज मैं पोस्ट नहीं लिखूंगा। आज मैं आपसे बातें करूंगा।
तो शुरुआत करता हूँ Mukesh Bhardwaj की प्रतिक्रिया से। उन्होंने लिखा है, “कक्षा 10 के बाद बच्चों का मनोवैज्ञानिक परीक्षण होना चाहिए, उसी के अनुसार उसको विषय का अध्ययन करना चाहिए। ऐसा कई विकसित देशो में होता है।”
सच में यही होना चाहिए। यही है सही तरीका बच्चों को बेहतर करियर देने का, उन्हें बेहतर इंसान बनाने का। हर बच्चे के भीतर अलग तरह की प्रतिभा होती है। माँ-बाप को बच्चों की उस प्रतिभा को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए। मेरे ख्याल से यह आदर्श तरीका हो सकता है।
कल की पोस्ट पर Tabish Siddiqui ने लिखा है, “मेरा लड़का एक्टर बनना चाहता है और हम उसे अगर किसी से इंट्रोड्यूस भी करवाते हैं तो यही कहते हैं कि ये भाई साहब भविष्य के एक्टर हैं। अक्सर लोग इस पर एतराज भी कर देते हैं। हमारे समाज में तो लोग इसे धार्मिक नजर से भी हराम समझते हैं और कई लोगों ने एतराज भी किया मगर मेरा मेरे बेटे के साथ गुप्त समझौता है। कोई जब ऐसे कुछ कह कर उसको हतोस्ताहित करेगा, तो वो मेरी तरफ देख के मुस्कुराएगा क्योंकि वो जानता है कि मैंने उसे समझा रखा है कि करना वही जो तुम चाहो। दूसरे तुम्हे क्या बनाना चाहते हैं, इस से तुमको कोई लेना-देना नहीं है। उसके स्कूल के लोग और सारे दोस्त यही जानते हैं कि जूबिन एक्टर बनेगा। अब भले आगे चल के उसकी पसंद बदल जाये, मगर अभी तो उसका यही सपना है और जो उसका सपना है वही हमारा है। हमारा अपना सपना कभी हमारे बेटे का सपना नहीं बनेगा। उसका सपना हमारा बनेगा, हमेशा।”
वाह! कल मैं घर शिफ्टिंग के प्रॉसेस में था, आधा-अधूरा ही शिफ्ट कर पाया हूँ, पर मेरा यकीन कीजिए मैंने इस कमेंट को कई बार पढ़ा। कई बार मतलब कई बार।
इसे पढ़ते हुए मैं यादों में खो गया।
बात है 1988 की। मेरा एक दोस्त मेरे सामने बैठा था। पूछ रहा था, “संजय, तू पत्रकारिता का कोर्स कर रहा है, क्या तू सचमुच पत्रकारिता ही करेगा?”
हाँ, यार, पत्रकार ही बनूंगा। बनूंगा क्या, मैं तो ऑलरेडी नौकरी में हूँ। मुझे जनसत्ता में नौकरी मिल भी चुकी है। मैं सब-एडिटर हूँ। अब तो यह पढ़ाई सिर्फ ऐसे ही कर रहा हूँ। दिन में मेरे पास टाइम है, इसलिए। पर तू भी तो पत्रकारिता की ही पढ़ाई कर रहा है, मतलब तुझे भी तो पत्रकार ही बनना है न!”
“नहीं। मैं तो टीवी के माध्यम को समझना चाह रहा हूँ। मुझे लगता है कि टीवी बहुत जल्दी छा जाएगा। मैं टीवी में एक्टिंग करूंगा।”
“एक्टिंग का काम भी अच्छा है। बहुत जल्दी पहचान बन जाती है। पर सिनेमा में काम करना ज्यादा बड़ी बात होगी।”
“हाँ, पर कहीं से शुरुआत तो होनी चाहिए। मैं सोचता हूँ कि एक्टिंग को ही करियर बनाऊं। मेरा पैशन है एक्टिंग।”
मेरी यादें रुकीं।
साल वही था। उस लड़के की मुलाकात कर्नल कपूर से हुई और कर्नल कपूर ने उसे दूरदर्शन पर आने वाले सीरियल ‘फौजी’ के लिए चुन लिया। मैं उस पूरे प्रॉसेस का गवाह हूँ। मैं गवाह हूँ इस बात का कि उस लड़के ने उस रोल को पाने के लिए कितनी परीक्षाएँ दी थीं, कितनी मेहनत की थी और जब उसे वो रोल मिल गया था, तो उसकी आँखों में जलने वाले हजार वाट के बल्ब की चमक का मैं, संजय सिन्हा गवाह हूँ।
मैं इस बात का भी गवाह हूँ कि ‘फौजी’ की शूटिंग के एक सेट पर ही उसने मुझसे कहा था कि वो एक दिन सिनेमा के संसार में चला जाएगा।
हम दोनों इस बात पर चिंतित थे कि वहाँ उसकी कोई पहचान नहीं, फिर वो अपनी जगह कैसे बनाएगा।
उसने मुस्कुराते हुए कहा था, “मेहनत और लगन हो तो आदमी अपने सपने सभी सपने पूरे कर सकता है। और मेरे साथ तो मेरी माँ का आशीर्वाद भी है। जब मेरे सारे दोस्तों के माँ-बाप अपने बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाने को व्याकुल हैं, तब मेरी माँ यही कहती है कि बेटा, तुम्हारा सपना मेरा सपना है। मेरा सपना तुम्हारे सपनों से जुदा नहीं।”
नाम बताने की दरकार नहीं, क्योंकि अब आप जान चुके हैं कि उस लड़के का नाम शाहरुख खान है।
मैंने जानबूझ कर इस याद को आपसे साझा किया है।
बहुत आश्चर्य मत कीजिएगा इस बात पर कि कुछ सालों के बाद रुपहले पर्दे पर एक और एक्टर चमचमा रहा होगा और उसका नाम होगा, जूबिन। क्योंकि बहुत दिनों के बाद फिर किसी ने मुझसे कहा है कि “हमारा अपना सपना कभी हमारे बेटे का सपना नहीं बनेगा। उसका सपना हमारा बनेगा, हमेशा।”
फिल्म ‘ओम शांति ओम’ में यह डॉयलाग तो बहुत बाद में आया था कि जब हम किसी चीज को शिद्दत से चाहते हैं तो सारी कायनात हमें उससे मिलाने में लग जाती है। मैं तो इस डॉयलाग को उस लड़के के मुँह से 20 साल पहले ही सुन चुका था। बाद में तो मैं इसे सिर्फ सच होते हुए देख पा रहा था।
ओह! मैं भी न यादों में खो जाता हूँ तो बस खो ही जाता हूँ।
कल Renu Madan की टिप्पणी भी गजब की थी। उन्होंने लिखा है, “यही सच है। हम सब अपने बच्चों में अपने सपने जीना चाहते हैं । काश सभी ये समझ पाते, काश हम कह पाते, जाओ जियो अपनी जिन्दगी, तुम्हारी जिन्दगी, तुम्हारा फैसला।”
काश! काश! काश!
फिल्म ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में अंबरीश पुरी का बहुत छोटा सा डॉयलाग मेरी जिन्दगी का गुरुमंत्र है।
“जा सिमरन, जी ले अपनी जिन्दगी।”
सचमुच, सभी को अपनी जिन्दगी जीने का हक मिलना चाहिए।
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पोस्ट बड़ी हो रही है। बाकी बातें कल करूंगा। आपकी प्रतिक्रिया मिलती रहे, आपसे संवाद बना रहे, यही मेरा सपना है। मेरा सपना सबको रिश्तों की माला में पिरो देना भी है। बस आप ऐसे ही मिल कर रहें। और ढेरों प्रतिक्रियाओं पर चर्चा का मन था, पर फिर कभी।
थोड़ा लिखा, ज्यादा समझिएगा। यह बात भी मुझे इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि Sunil Mishra की टिप्पणी ने मुझे डरा दिया है। उन्होंने लिखा है कि “लीना की दोस्त का ये खत न पहला है, न अंतिम। न जाने इसके पहले आ चुके कितने खतों का हमने कभी संज्ञान नही लिया। खुद को बदलने की कोई कोशिश नही की। न चिंता की, न चिंतन किया। न परवाह की और न आगे कोई संभावना दिखती है।
संजय भाई, हमने न बदलने की कसम खाई है। हम लीना के कई दोस्तों को न जाने कब से अलविदा कहते आ रहे हैं, खुद को पता नहीं। मुझे ये भी पता नहीं कितनों को विदा किया! सुनो, सुनो लीना की दोस्त सुनो, तुम कायर नही हो, तुम्हें हम ने कायर बनाया है। हम शर्मिंदा हैं, बहुत शर्मिंदा हैं। हम अपनी चाहतों से अपमानित हैं। हमें माफ करना, लीना की दोस्त, हमें माफ करना।”
(देश मंथन, 14 मई 2016)