तलवार के साथ बुद्धि पर भी भरोसा हो

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

इन दिनों व्हाट्सएप पर एक संदेश खूब चक्कर लगा रहा है-

“उन्होंने कंधार में प्लेन हाईजैक किया, हमने ‘जमीन’ मूवी में उसे छुड़ा लिया।

उन्होंने दाउद इब्राहिम को पनाह दी, हमने दाउद को ‘D-Day’ फिल्म में भारत लाकर गोली मार दी।

उन्होंने 26/11 किया, हमने ‘बेबी’ और ‘फैंटम’ में डेविड कोलमैन हेडली, जकीउर रहमान और हाफिज सईद को मार गिराया।

जल्दी ही हम पठानकोट का बदला लेंगे। बस निर्माता-निर्देशक का जुगाड़ हो जाए…।”

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जाहिर है, इस संदेश को लोग खूब पढ़ रहे हैं और जो लोग मोदी-विरोधी हैं, वो इस पर मजे भी ले रहे हैं। कई लोग तो अखबार की पुरानी कतरनें भी पोस्ट करते नजर आ रहे हैं, जिसमें चुनाव से पहले पाकिस्तान को धूल चटा देने की बात कही गयी थी। 

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मैं मोदी समर्थक, सोनिया समर्थक या केजरी समर्थक नहीं हूँ। 

मैं मोदी विरोधी, सोनिया विरोधी या केजरी विरोधी भी नहीं हूँ। मैं क्रांतिकारी या समाज सुधारक भी नहीं हूं। मैं इस देश का एक आम आदमी हूँ। क्योंकि मैंने डॉक्टरी नहीं पढ़ी, इसलिए मैं डॉक्टर नहीं हूँ। क्योंकि मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं की, इसलिए मैं इंजीनियर भी नहीं हूँ। मैं पुलिस में नहीं गया, मैंने बैंक में भी नौकरी नहीं की। मैंने भारत के तमाम विद्यार्थियों की तरह सरकारी स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई की और सिर्फ एक पत्रकार बन पाया। 

अब पत्रकारिता मेरा पेशा है। मैं लोगों तक खबरें पहुँचा कर हर महीने अपने घर चलाने लायक पैसे कमाता हूँ। इसलिए मेरे लिखे में आप लोग न तो साहित्य तलाशिए, न राजनीति। 

कई लोग मुझे संदेश भेज कर उकसाते हैं कि मैं पठानकोट पर क्यों नहीं लिखता।

मै इसलिए नहीं लिखता हूँ क्योंकि पठानकोट जैसे मामले बहुत संवेदनशील होते हैं। मुझे नहीं लगता कि ऐसे विषयों पर हर किसी को अपनी तलवार भाँजनी चाहिए। देश में एक सरकार है। हमारी और आपकी चुनी हुई सरकार। वो बीजेपी की है या कांग्रेस की, ये एक राजनीतिक मुद्दा हो सकता है। लेकिन जब-जब देश में भितरघात होता है, तब-तब बात बीजेपी या कांग्रेस की नहीं होती। नहीं होनी चाहिए। 

ऐसे मसलों पर फिल्में बनाना, चुटकुले बनाना और उन पर मजे लेना आसान होता है। पर हकीकत में इन परिस्थितियों से निपटना बहुत मुश्किल होता है। 

कई लोग रोज फेसबुक पर आग उगल रहे हैं कि पाकिस्तान के खिलाफ हम युद्ध क्यों नहीं कर देते? हम अपनी मर्दानगी क्यों नहीं दिखाते?

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मथुरा जल रहा था। जरासंध की सेना कृष्ण और बलराम के खून की प्यासी थी। 

बलराम कह रहे थे, “हम उसे देख लेंगे। हम तलवार का जवाब तलवार से देंगे। यही हमारी प्रतिज्ञा है और यही युद्ध धर्म भी है।”

बात सही थी। युद्ध ही वीरता है। 

लेकिन कृष्ण कह रहे थे कि युद्ध कर देना बहुत बड़ी बात नहीं। अपने भाई से वो कह रहे थे कि एक बार सोचिए, मथुरा का क्या होगा? यहाँ खून की नदियाँ बहेंगी। विधवाओं के क्रंदन से आसमान काँपने लगेगा। छोट-छोटे बच्चों की चीख से धरती फट जाएगी।

बलराम कह रहे थे, “तू तो ऐसी बातें नहीं करता था कान्हा। पहले तो तूने बहादुरी की बहुत बड़ी-बड़ी बातें कीं। आज ये कायरों वाली भाषा क्यों?”

“मैं कायरों की भाषा नहीं बोल रहा, भैया। पर हर बात पर युद्ध ही जवाब नहीं होता।”

“फिर युद्ध कब जवाब होता है?”

“जब आग अपनी सीमा तक दहक उठे और खुद जलने के लिए उसके पास कुछ और नहीं बचे। जब क्रोध में नाग अपना फन पटक-पटक अपने ही विषदंत को तोड़ ले, तब।”

“तुम कायर हो, कान्हा।”

“नहीं। मैं एक कुशल योद्धा हूँ। योद्धा सिर्फ अपनी शक्ति पर ही नहीं, बुद्धि पर भी भरोसा करता है। नीतिविहीन रणनीति एक आग है, जिसकी लपटें दुश्मनों की तुलना में खुद को अधिक जलाती हैं।

“तो तुम क्या कहते हो, संजय सिन्हा, हमें पठानकोट पर चर्चा भी नहीं करनी चाहिए?”

जरूर करनी चाहिए। पर युद्ध की चर्चा नहीं करनी चाहिए। आपको चर्चा करनी चाहिए कि चाहे वो 26/11 रहा हो, या पठानकोट। हमसे चूक कहाँ हुई। वो अपनी सीमा से निकले, ये बड़ी बात नहीं। वो हमारी सीमा में घुसे, इस पर चर्चा करनी चाहिए। उन लोगों का पता पहले लगाना चाहिए, जिन्होंने दुश्मनों को मुंबई तक, पठानकोट तक पहुँचने दिया। 

दुश्मनों से लड़ना आसान होता है, अपनों से लड़ना मुश्किल होता है। 

तो फिर तुम ये कह रहे को कि युद्ध की बात भी नहीं करनी चाहिए।

बिल्कुल करें। लेकिन ये मत भूलिएगा कि युद्ध में खून की नदियाँ बहती हैं। विधवाओं के विलाप से ब्रह्मांड काँप उठता है। 

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“मिस्टर संजय सिन्हा, बेहतर है कि आप रिश्तों पर ही लिखें। आप अपनी प्रेम की कहानियाँ सुना-सुना कर ही अपने परिजनों का मन बहलाते रहें। आप जैसे कायरों के बूते की बात नहीं पठानकोट पर लिखना। मालदा की चर्चा भी करना आपके बूते की बात नहीं।”

बिल्कुल सच कह रहे हैं। 

मैंने युद्ध की विभीषिका देखी है। मैं उस अफगानिस्तान में भी गया हूँ, जहाँ से कभी रविंद्रनाथ टैगोर का काबुलीवाला आया था और अपने साथ पिस्ता और बादाम लाया था। 

मैं तो उन दिनों अमेरिका में ही था, जब अमेरिका ने ऐलान करके अफगानिस्तान पर हमला किया था। मैं तब भी पत्रकार था। मैंने वहीं से अपनी कलम से लिखा था कि आने वाली पीढ़ी भूल जाएगी कि कभी काबुल से दुनिया भर में रिश्तों के पिस्ता और बादाम पहुँचा करते थे। आने वाली पीढ़ी यही याद करेगी कि अफगानिस्तान में सिर्फ बारूद की खेती होती है। 

सच आपके सामने है। 

जो लोग सरकार को ललकारते हैं, उन्हें देश से सचमुच मतलब नहीं होता। जिन्हें देश से मतलब होता है, वो तलवार के साथ-साथ बुद्धि पर भी भरोसा करते हैं। जो बुद्धि पर भरोसा करते हैं, वही युद्ध के असली विजेता होते हैं। 

(देश मंथन, 12 जनवरी 2016)

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