तीन तलाक की नाजायज जिद!

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क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तर्क बेहद हास्यास्पद है। एक तर्क यह है कि ‘पुरुषों में बेहतर निर्णय क्षमता होती है, वह भावनाओं पर क़ाबू रख सकते हैं। पुरुष को तलाक़ का अधिकार देना एक प्रकार से परोक्ष रूप में महिला को सुरक्षा प्रदान करना है। पुरुष शक्तिशाली होता है और महिला निर्बल। पुरुष महिला पर निर्भर नहीं है, लेकिन अपनी रक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर है।’ बोर्ड का एक और तर्क देखिए। बोर्ड का कहना है कि महिला को मार डालने से अच्छा है कि उसे तलाक़ दे दो।

यह कामेडी है या ट्रेजेडी? या शायद एक साथ दोनों है! तीन तलाक पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का हलफनामा कूढ़मगजी और नितान्त बचकाने तर्कों का एक शाहकार दस्तावेज है! कामेडी इसलिए कि इन तर्कों को पढ़ कर हँसी से लोटपोट हुआ जा सकता है और ट्रेजेडी इसलिए कि बोर्ड ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह मुसलमानों में किसी भी प्रकार के सामाजिक सुधारों का कितना बड़ा विरोधी है। समझ में नहीं आता कि मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को किस बात का डर है कि वह मुस्लिम समाज में सुधार की किसी भी कोशिश में अड़ंगा लगा देता है?

एक भी ठोस तर्क नहीं

और दिलचस्प बात यह है कि यह हलफनामा इस बात का खुला दस्तावेज है कि तीन तलाक की नाजायज जिद पर अड़े मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास तीन तलाक को जायज ठहराने के लिए वाकई एक भी ठोस तर्क नहीं है। बोर्ड के पास तीन तलाक के पक्ष में अगर वाकई कुछ ठोस तर्क होते तो अपने हलफनामे में उसे ऐसी हास्यास्पद बातों का सहारा न लेना पड़ता! क्या महिलाएँ बुद्धि और विचार से हीन हैं? यह हलफनामा इस बात का भी दस्तावेज है कि मुस्लिम पर्सनल बोर्ड किस हद तक पुरुष श्रेष्ठतावादी, पुरुष वर्चस्ववादी है और केवल पुरुष सत्तात्मक समाज की अवधारणा में ही विश्वास रखनेवाला है और वह महिलाओं को किस हद तक हेय, बुद्धि और विचार से हीन और अशक्त मानता है और उन्हें सदा ऐसा ही बनाये भी रखना चाहता है। उर्दू साप्ताहिक ‘नयी दुनिया’ के सम्पादक और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीकी ने इस मुद्दे पर अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि बोर्ड ने इसलामोफोबिया फैलानेवालों के इस आरोप को सही साबित कर दिया है कि इस्लाम में महिलाएँ शोषित और उत्पीड़ित हैं क्योंकि वहाँ महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता है। 

पाकिस्तान, बांग्लादेश में तीन तलाक नहीं है

हो सकता है कि यह बात कम लोगों को पता हो कि पड़ोसी मुस्लिम देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में तीन तलाक जैसी कोई चीज नहीं है। पाकिस्तान आज से पचपन साल पहले (जी हाँ, आपने बिलकुल सही पढ़ा, आज से 55 साल पहले) यानी 1961 में कानून बना चुका है कि तलाक की पहली घोषणा के बाद पुरुष को ‘आर्बिट्रेशन काउंसिल’ और अपनी पत्नी को तलाक की लिखित नोटिस देनी होगी। इसके बाद पति-पत्नी के बीच मध्यस्थता कर मामले को समझने और सुलझाने की कोशिश की जायेगी और तलाक की पहली घोषणा के 90 दिन बीतने के बाद ही तलाक अमल में आ सकता है। इसका उल्लंघन करनेवाले को एक साल तक की जेल और जुरमाना या दोनों हो सकता है। बांग्लादेश में भी यही कानून लागू है। 

यही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही जगहों पर बहुविवाह की मंजूरी तो है, लेकिन कोई भी मनमाने ढंग से एक से अधिक शादी नहीं कर सकता। वहाँ दूसरे विवाह या बहुविवाह के इच्छुक व्यक्ति को ‘आर्बिट्रेशन काउंसिल’ में आवेदन करना होता है, जिसके बाद काउंसिल उस व्यक्ति की वर्तमान पत्नी या पत्नियों को नोटिस दे कर उनकी राय जानती है और यह सुनिश्चित करने के बाद ही दूसरे विवाह की अनुमति देती है कि वह विवाह वाकई जरूरी है।

मुस्लिम पर्सनल बोर्ड की मजबूरी क्या है?

समझ में नहीं आता कि पाकिस्तान अगर आज से पचपन साल पहले इन सुधारों को लागू कर चुका, तो भारत में मुस्लिम पर्सनल बोर्ड को तीन तलाक से चिपके रहने की मजबूरी क्या है? भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तो 1973 में बना था। कायदे से तो उसे पड़ोसी पाकिस्तान में तबसे बारह साल पहले हुए सुधारों को उसी समय अपना लेना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बोर्ड ने कभी बदलते समय की सच्चाइयों और जरूरतों के हिसाब से सुधारों को न कभी स्वीकार किया और न उनकी जरूरत महसूस की।

20 से ज्यादा देशों में तीन तलाक नहीं

और केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, अल्जीरिया, मिस्र, इंडोनेशिया, ईरान, इराक़, लीबिया, मलयेशिया, सीरिया, ट्यूनीशिया समेत बीस से ज्यादा मुस्लिम देश तीन तलाक को खारिज कर चुके हैं। लेकिन भारत का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है कि मानता नहीं! 

‘सबरंग इंडिया’ में पढ़िए: किन मुस्लिम देशों में क्या है कानून?

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तर्क बेहद हास्यास्पद है। एक तर्क यह है कि ‘पुरुषों में बेहतर निर्णय क्षमता होती है, वह भावनाओं पर काबू रख सकते हैं। पुरुष को तलाक का अधिकार देना एक प्रकार से परोक्ष रूप में महिला को सुरक्षा प्रदान करना है। पुरुष शक्तिशाली होता है और महिला निर्बल। पुरुष महिला पर निर्भर नहीं है, लेकिन अपनी रक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर है।’ बोर्ड का एक और तर्क देखिए। बोर्ड का कहना है कि महिला को मार डालने से अच्छा है कि उसे तलाक दे दो। तीन तलाक से वे महिलाएँ मार डाले जाने से बच जाती हैं, जिनके पति उन्हें तलाक दे कर उनसे छुट्टी पाना चाहते हैं। बोर्ड के मुताबिक तीन तलाक ऐसे विवाह सम्बन्ध को खत्म कर देने का आसान रास्ता है, जिनका जारी रह पाना मुमकिन न हो। बोर्ड का एक और तर्क है कि ‘तीन तलाक दरअसल तलाक देने का एक बेहद ‘प्राइवेट’ तरीका है। वरना तलाक के लिए अदालतों के चक्कर लगाने, अदालत में पति-पत्नी के झगड़ों की बातें सार्वजनिक तौर पर फैलने से तो महिला की ही बदनामी ज्यादा होती है, पुरुष के मुकाबले तो महिला को ही ज्यादा नुकसान होता है!’

उन देशों में क्या बिगड़ा, जहाँ तीन तलाक नहीं?

अद्भुत बचकाने तर्क है! दुनिया के इतने मुस्लिम देशों में बरसों से तीन तलाक की प्रथा खत्म की जा चुकी है, वहाँ इस कारण महिलाओं की हत्या के मामलों में क्या बढ़ोत्तरी हुई? बोर्ड के पास कोई आँकड़े हैं क्या? हो तो उसे इन आँकड़ों को रखना चाहिए। वैसे हमने तो इन देशों में तीन तलाक न होने के कारण महिलाओं की हत्या जैसी बात कभी सुनी नहीं। फिर उन तमाम मुस्लिम देशों में जहाँ तलाक के लिए कोई न कोई कानूनी मेकेनिज्म है, बोर्ड की मानें तो वहाँ महिलाओं को बड़ी बदनामी उठानी पड़ती होगी! लेकिन इन देशों में ऐसी कोई समस्या कभी हुई, ऐसा अब तक तो कभी सुनने-पढ़ने में आया नहीं। और अगर आज भारत की मुस्लिम महिलाएँ ख़ुद माँग और आन्दोलन कर रही हैं कि तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जाये तो वह इससे होनेवाली अपनी तथाकथित बदनामी के जोखिम को समझती ही होंगी। तो उन्हें यह जोखिम उठाने दीजिए न!बदनामी होगी, तो उनकी होगी, बोर्ड क्यों बेमतलब परेशान है? लेकिन बोर्ड तो इसलिए ‘परेशान’ है कि उसका तो मानना है कि महिलाएँ अच्छा-बुरा समझती ही नहीं, वह इस लायक ही नहीं कि फैसले ले सकें!

बोर्ड भी तीन तलाक को ‘गुनाह’ मानता है, लेकिन…

और सबसे मजे की बात यह है कि बोर्ड ने अपने हलफनामे में कहा है कि तीन तलाक है तो ‘गुनाह’, लेकिन फिर भी शरीअत में इसकी अनुमति है। बोर्ड स्वीकार करता है कि एक बार में तीन तलाक कह देना ‘अवाँछनीय और अनुचित’ है लेकिन उसका कहना है कि इस्लामी विधिवेत्ताओं के मुताबिक तीन तलाक कहने से विवाह का विच्छेद हो जाता है। हैरानी है कि दुनिया के जिन देशों ने तीन तलाक को खारिज किया है, वहाँ यह साफ तौर पर कहा गया है कि एक साथ तीन बार तलाक कहे जाने को एक ही बार कहा गया माना जायेगा। तो फिर यह बात मानने को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तैयार क्यों नहीं है? फिर अगर तीन तलाक को बोर्ड ‘गुनाह’ मानता ही है, तो उसे पूरी तरह खारिज कर देने में उसे क्या ऐतराज?

बहुविवाह महिलाओं के लिए ‘वरदान’ है : बोर्ड

बहुविवाह के मामले पर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तर्क अजीब हैं। उसका कहना है कि ‘बहुविवाह एक सामाजिक जरूरत है और महिलाओं के लिए वरदान है क्योंकि अवैध रखैल बने रहने के बजाय उन्हें वैध पत्नी का दर्जा मिल जाता है।’ हलफनामे में कहा गया है कि पुरुषों की मृत्यु दर ज्यादा होती है क्योंकि दुर्घटना आदि में उनके मरने की सम्भावनाएँ ज़्यादा होती हैं। इसलिए समाज में महिलाओं की संख्या बढ़ जाती है और ऐसे में बहुविवाह न करने देने से महिलाएँ बिन ब्याही रह जायेंगी।’ बोर्ड का कहना है कि ‘बहुविवाह से यौन शुचिता बनी रहती है और इतिहास बताता है कि जहाँ बहुविवाह पर रोक रही है, वहाँ अवैध यौन सम्बन्ध सामने आने लगते हैं।’

आजमाये जा चुके सुधारों से भी परहेज!

अजीब तर्क हैं। अजीब सोच है। पता नहीं किन शोधों के जरिये बोर्ड इन बेहद बचकाना निष्कर्षोँ पर पहुँचा है! साफ है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उन सुधारों को भी लागू नहीं करना चाहता, जिन्हें बहुत-से मुस्लिम देश बरसों पहले अपना चुके हैं। इतने बरसों में इन सुधारों का अगर कोई विपरीत प्रभाव इनमें से किसी देश में नहीं दिखा, तो फिर उनके अनुभवों से लाभ उठा कर उन्हें क्यों नहीं अपनाना चाहिए? हैरानी है कि खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के भीतर एक बड़ा वर्ग तीन तलाक को खारिज किये जाने के पक्ष में है। पिछले साल बोर्ड के सम्मेलन के पहले ऐसी चर्चा चली भी थी कि तीन तलाक को इस सम्मेलन में खारिज कर दिया जायेगा। लेकिन फिर जाने किस दबाव में मामला टल गया।

डर क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड का है?

समय बदल गया है। मुसलमानों की पीढ़ियाँ बदल गयी हैं। उनकी आर्थिक-सामाजिक जरूरतें बदल चुकी हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को यह बात समझनी चाहिए और सुधारों की तरफ बढ़ना चाहिए। न बढ़ने का सिर्फ एक कारण हो सकता है। वह यह कि कहीं सुधारों का यह रास्ता यूनिफॉर्म सिविल कोड की तरफ तो नहीं जाता? यूनिफॉर्म सिविल कोड से उसके डरने का एक ही कारण है। वह यह कि ऐसा कोड आ जाने के बाद मुस्लिम समाज पर मुल्ला-मौलवियों की पकड़ ढीली हो जायेगी। चूँकि बोर्ड पर इन्हीं लोगों का दबदबा है, इसलिए न उसे सुधार पसन्द हैं और न यूनिफॉर्म सिविल कोड। वह यथास्थिति चाहता है, भले ही इससे मुस्लिम समाज के आगे बढ़ने के रास्ते बन्द होते हों।

(देश मंथन, 16 सितंबर 2016)

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