जिस फेमिनिज्म का राग ये फेमिनिस्ट अलापती हैं, वह मात्र समानता के सिद्धांत पर आधारित है। हाल ही में कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जब प्रगतिशील फेमिनिस्ट का साझा सिस्टरहुड भुरभुराकर ढह गया है।
इन दिनों सिस्टरहुड माने बहनापे का बहुत शोर है और शोर मचता है कि हर स्त्री को दूसरी स्त्री को बहन मानना चाहिए, स्त्री के दर्द के साथ खड़ा होना चाहिए। बहनापे अर्थात सिस्टरहुड को लेकर यही कहा जाता है कि सभी स्त्रियों के दर्द एक समान हैं और हर स्त्री को दूसरी स्त्री के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ साथ आना चाहिए। फेमिनिज्म एक साझे सिस्टरहुड का सपना दिखाता है। हालाँकि भारतीय या कहें सनातनी दृष्टिकोण में इसका न ही कोई स्थान है और न ही कोई अर्थ, क्योंकि हमारे यहाँ स्त्री और पुरुष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं, समानता नहीं संपूरकता का नाम है हिंदुओं में स्त्री और पुरुष संबंध।
और चूँकि जिस फेमिनिज्म का राग ये फेमिनिस्ट अलापती हैं, वह मात्र समानता के सिद्धांत पर आधारित है। हाल ही में कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जब प्रगतिशील फेमिनिस्ट का साझा सिस्टरहुड भुरभुराकर ढह गया है। कई ऐसे मामले आये, जिनमें ऐसा लगा कि सभी स्त्रियों को साथ आना चाहिए था। पर उनमें वही प्रगतिशील क्रांतिकारी औरतें सामने नहीं आयीं, जो हिंदू देवी देवताओं का मजाक उड़ाती हुई, प्रभु श्री राम को स्त्री विरोधी घोषित करती हुई सीता जी को पीड़ित बताने के लिए अपना सारा जोर लगा देती हैं। वही सारी औरतें एकदम शांत हैं, सन्नाटे में हैं। अभी तक उनके साझे सिस्टरहुड के दायरे में न ही किसान आंदोलन में उस बलात्कार पीडिता की चीख आ पायी है, जिसे आंदोलन के नाम पर बुलाया और वह पहले बलात्कार और बाद में कोरोना के चलते जिंदगी की जंग हार गयी।
किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली तमाम लेखिकाओं ने उस लड़की के लिए सहानुभूति का एक भी शब्द नहीं कहा। योगेंद्र यादव को भी इस बात के बारे में पता था, फिर भी वे पुलिस के पास उन आरोपियों को लेकर नहीं गये। और बाद में पता चला कि उसमें दो लडकियाँ भी शामिल थीं।
प्रगतिशीलों की प्रिय पार्टी आम आदमी पार्टी के नेता ही उस लड़की की मृत्यु के लिए उत्तरदायी थे, फिर भी इन प्रगतिशील हिंदी लेखिकाओं ने चुप रहना स्वीकार किया।
बहनापा इस मामले में कहाँ गया? या फिर बहनापे में केवल सीरिया की औरतों के साथ खड़े होना ही शामिल है?
फिर आते हैं एक बहुत महत्वपूर्ण मामले पर! यौन उत्पीड़न का आरोप झेल रहे खोजी पत्रकार तरुण तेजपाल को गोवा के सत्र न्यायालय ने अजीबोगरीब आधार पर रिहा कर दिया। वह आधार था लड़की के पूर्व यौनाचारण का! अब सबसे मजेदार था, इस अजीबोगरीब मामले में हिंदी की प्रगतिशील लेखिकाओं का चुप रहना। यह माना कि तरुण तेजपाल के खिलाफ वे अपनी सेक्युलर छवि के चलते नहीं लिखना चाहती थीं, फिर भी उन्हें उस पीड़िता के लिए तो लिखना चाहिए था, जिस पर जज साहिबा ने ऐसे आरोप लगाये थे। क्या वाकई लड़की के यौनाचरण को देखते हुए बलात्कार के आरोपों का निर्धारण होना चाहिए था? मगर नहीं, इतने बड़े स्त्री विरोधी निर्णय के विषय में भी कट्टर पिछड़ी प्रगतिशील औरतों के बीच चुप्पी छायी रही।
अब आते हैं एक सबसे ज्वलंत चुप्पी पर! इनके दिल में भाजपा या कहें अपने मालिकों के विरोधी विचारों के प्रति घृणा है। और इस घृणा को छिपाने का प्रयास भी ये लोग नहीं करती हैं। इस बार इनके मालिकों ने, जिनके इशारे पर ये कथित स्वतंत्र लेखन करती हैं, बंगाल चुनावों में ममता बनर्जी को समर्थन दिया, ऐसा प्रतीत होता है! क्योंकि ये सभी उसी ममता बनर्जी को शायद बहनापे के कारण मानने लगी थीं, जिसने उनकी प्रिय पार्टी को एक राज्य से मिटा दिया है।
खैर! जैसे ही पश्चिम बंगाल में चुनावों के परिणाम आये, वैसे ही हिंसा की खबरें आनी शुरू हो गयीं और भाजपा के कार्यकर्ताओं पर चुन चुन कर हमले होने लगे। मगर इस हिंसा को उन्होंने भाजपाइयों की ही हरकत बता दिया। अब जब धूल बैठ रही है और उच्चतम न्यायालय में बंगाल से बलात्कार की पीड़ित स्त्रियाँ अपनी शिकायत लेकर आ रही हैं, तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर इन कट्टर वाम-अवसरवादी प्रगतिशील औरतों का बहनापा उस 60 वर्ष की स्त्री के लिए क्यों नहीं तड़प रहा है, जिनके साथ उनके छह वर्ष के पोते के सामने ही बलात्कार हुआ? आखिर ऐसा क्यों है कि उनका बहनापा उस 17 साल की लड़की के लिए हाथ नहीं बढ़ा पा रहा, जिसके साथ बलात्कार ही नहीं हुआ, बल्कि उनकी प्रिय दीदी ममता दीदी की पार्टी के कार्यकर्ता उसे मरने के लिए जंगल में छोड़ गये?
आखिर यूनिवर्सल बहनापे की बात करने वाली इन औरतों की दृष्टि अपने मालिकों के विपरीत विचारों वाली स्त्रियों तक क्यों नहीं जा पाती है? क्या ये लोग अपने हिसाब का फेमिनिज्म बना रहे हैं, और जिस विचार को ये लोग नहीं मानती हैं, उसके विपरीत विचारों की स्त्रियों को ये लोग स्त्री ही नहीं मानती हैं? यह एक प्रश्न उभर कर आता है।
जिस फेमिनिज्म का ये राग अलापती हैं, उसमें एक शाखा होती है, जिसे चॉइस फेमिनिज्म कहते हैं। अर्थात् इनके फेमिनिज्म के इस ब्रांड का अर्थ होता है, जो महिलाओं को अपने पसंद के कपड़े पहनने, अपने मन के राजनीतिक विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता दे।
फिर एक और शाखा है इंटरसेक्शनल फेमिनिज्म। यह एक प्रकार की गुलामी लाने वाला फेमिनिज्म है। इसमें औरतों से एक समूह के रूप में बर्ताव किया जाता है। यह औरतों को अपने मन के कपड़े पहनने, अपने मन के राजनीतिक विचार रखने से प्रतिबंधित करता है। इस प्रकार का फेमिनिज्म खुल कर कम्युनिस्ट, समाजवादी और मार्क्सवादी विचारधाराओं के साथ जाकर मिल जाता है। (The feminist lie – Bob Lewis)
परंतु अब यह कट्टर इस्लामी विचारधारा के साथ भी जाकर मिल गया है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि फेमिनिज्म के नाम पर दुकान चलाने वाली पिछड़ी वामपंथी प्रगतिशील फेमिनिस्ट सबसे स्वार्थी एवं पिछड़ी हैं, जो केवल अपनी अवसरवादी विचारधारा के अनुसार फेमिनिज्म की बात करती हैं।
(देश मंथन, 15 जून 2021)