निभा सिन्हा :
हमारे गाँव-शहरों में भी तो पलायन हुआ, और होता रहा है और अब भी हो रहा है। गाँव के गाँव खाली हो गये, पूरा शहर वीरान हो गया, लोग उसके बारे में कभी बात नहीं करते। क्योंकि ये गाँव-शहर उजड़े अच्छे स्कूल-कॉलेज नहीं होने के कारण, नाम के स्कूलों और कॉलेज में अच्छे शिक्षक न होने के कारण और कुछ शिक्षक थे भी अच्छे तो बच्चों के भविष्य के बारे में कभी नहीं सोचे, उसके कारण।
बड़ी मशक्कत से अपने दम पर कुछ ने पढ़ भी लिये तो नौकरी ही नहीं मिली, मिली तो राजनीतिक हैसियत वालों ने तबाह कर दिया, इसके कारण। बुनियादी सुविधाओं के लिए भी तिल-तिल मरना पड़ा, उसके कारण। सब चुपचाप घर छोड़ कर जाते रहे बड़े शहर, एक बड़े शहर से दूसरे शहर। हमारे उस छोटे शहर में बच गये नेता और उनके लोग, और उनकी दिलाई नौकरी करने वाले लोग। उनके ही लोग पढ़ते हैं, वे ही नौकरी करते हैं, वे ही पंचायत से लोकसभा में छाये हैं, क्योंकि वे दबंग हैं। और बचे हैं कुछ लोग, अपना गाँव-शहर किसी हाल में न छोड़ कर जाने की जिद वाले सिर्फ कुछ लोग, जो लड़ते हैं हर दिन अपनी परिस्थितियों से।
तबाही तो कब से चल रही है, लेकिन मुद्दा धर्म-सम्प्रदाय से जुड़ा होता तो गरमाता। कैराना का दर्द समझना जरूरी है क्योंकि समय चुनाव का है । सब जानते हैं कि आज अचानक कुछ नहीं हुआ, सिर्फ चुनाव आ गया है, इसलिए सब के सब सक्रिय हो गये हैं। नेता तो भले चुनाव का इंतजार करते है, ये हमारी मीडिया क्या करती है? उन्हें भी मुद्दे नहीं दिखते इन गाँवों और छोटे शहरों के? लेकिन अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए वह भी बर्बादियों का जैसे जश्न ही मनाती है।
जो एक बार चला जा रहा है, वो फिर वापस कहाँ आया? विदेश गया, चाहे अपने ही देश में बड़े शहर गया, इंजीनियर बन कर वही सोसाइटी, घर और फ्लाईओवर बना रहा है, डॉक्टर बन कर वही मरीजों का उपचार कर रहा है। खेती-बाड़ी की मुश्किलों से उकता कर दिल्ली, मुंबई में सब्जी बेच रहा है और मजदूरी कर रहा है।
गाँव के गाँव, शहर के शहर वीरान हुए जा रहे हैं। इंतजार करने का वक्त भी किधर बचा है लेकिन जल्दी भी किसे है? नेताओं को? मीडिया को? कि उन लोगों को जो समझते हैं कि सरकारों, नेताओं और मीडिया के बिना हम अपने स्तर पर भी कुछ कर सकते हैं आस लगाये अपने गाँवों और शहरों के लिए?
(देश मंथन 02 जुलाई 2016)