शाह फैसल का यूँ डरना बहुत लाजिमी है

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भुवन भास्कर, पत्रकार

फेसबुक पर अपनी टिप्पणियों से पिछले दिनों में चर्चा में आये 2009 के आईएएस टॉपर शाह फैसल ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा है।

यह लेख क्योंकि भारत सरकार के एक अति प्रतिष्ठित अधिकारी ने लिखा है और वह भी कश्मीरी, तो मेरे जैसे लोगों के लिए यह लेख बेहद अहम हो जाता है जो कश्मीर में पिछले तीन दशकों से और खास तौर पर पिछले 12 दिनों से मचे घमासान के पीछे कश्मीरियों की मनोदशा को ईमानदारी से समझना चाहते हैं।

इस लेख का विषय बहुत प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें कश्मीर में जारी विरोध, प्रदर्शन और हिंसा के मद्देनजर भारत सरकार से अपील की गयी है कि वह दिल्ली से चलने वाले कथित राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर लगाम लगाये। फैसल ने खास तौर पर चार चैनलों – जी न्यूज, टाइम्स नाउ, आज तक और न्यूज एक्स का नाम भी लिया है। उनका तर्क यह है कि भारत सरकार और कश्मीरी जनता के बीच तमाम संचार साधनों के ध्वस्त हो जाने के कारण इन चैनलों पर कश्मीरियों के विरोध और पत्थरबाजी पर होने वाली टिप्पणियों या व्यंग्य को दरअसल भारत सरकार का आधिकारिक रुख मान लिया जाता है। अपने लेख में फैसल ने भारत सरकार और भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों हो रही ज्यादतियों पर कश्मीरियों के दर्द को बखूबी जाहिर किया है।

हालाँकि फैसल अपने लेख में एक भारतीय का पक्ष रखने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं, जिसकी उनसे अपेक्षा की जानी चाहिए क्योंकि वे कोई आम कश्मीरी नहीं हैं। वे भारत सरकार के सबसे मजबूत प्रशासनिक ढाँचे की एक अहम कड़ी हैं। लेकिन उन्होंने अपने लेख में कहीं भी कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए पाकिस्तान की ओर से खुलेआम दिये जा रहे समर्थन का जिक्र नहीं किया। उन्होंने एक बार भी आतंकवादियों के हाथों कश्मीरी जनता पर हो रहे अत्याचार की ओर इशारा तक नहीं किया। उन्होंने “आजादी की इस लड़ाई में” भाड़े के विदेशी आतंकवादियों की भूमिका और कश्मीर में आतंक के नेटवर्क को कई देशों से हो रही भारी फंडिंग पर भी चुप्पी साधे रखा।

बुरहान वानी के मुठभेड़ में मारे जाने की तुलना किसी भी तरह से ‘दुष्ट भारतीय सैनिकों’ द्वारा किसी कश्मीरी लड़की के बलात्कार से नहीं की जा सकती और न ही इसे कोई फर्जी मुठभेड़ बताया जा सकता है, जिसमें कॉलेज जा रहे किसी युवक की निर्मम हत्या कर दी गयी हो। इसलिए मेरी यह भी अपेक्षा थी कि फैसल अपने लेख में यह बताते कि एक घोषित आतंकवादी की मौत पर पूरा कश्मीर क्यों उबल रहा है। ऐसी कौन सी ताकत है जो कश्मीरियों को एक आतंकवादी की हत्या पर पत्थरबाजी करने, पुलिस स्टेशनों और सीआरपीएफ के शिविरों पर सैकड़ों की भीड़ के तौर पर हमला करने, एक पुलिसकर्मी को पुलिस वाहन के साथ डुबा कर मार डालने जैसे कृत्यों के लिए प्रेरित कर रही है। और, देश के शीर्षस्थ प्रशासनिक अधिकारियों में से एक होने के नाते मैं उनसे यह भी अपेक्षा कर रहा हूँ कि वे भारत सरकार को कुछ ऐसे तरीकों का सुझाव देंगे, जिनके माध्यम से हमला करने आती हिंसक भीड़ को गांधीवादी तरीकों से रोका जा सके। 

और अंत में एक बार फिर फैसल के लेख के मुख्य मुद्दे, यानी दिल्ली से चलने वाले इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर लगाम लगाने की बात पर लौटते हैं। यह जानना सचमुच आश्चर्यजनक है कि कश्मीर की जनता इतनी भोली है कि वह मानती है कि भारत सरकार अपनी बात कहने के लिए सुधीर चौधरी, अर्णब गोस्वामी या आज तक और न्यूज एक्स के किसी ऐंकर का सहारा ले रही है। और, अगर दिल्ली से चलने वाले न्यूज चैनलों के ऐंकरों की बातें ही कश्मीरियों के मन में भारत और भारत सरकार के प्रति प्यार और नफरत पैदा करती हैं, तो फिर कश्मीर की जनता बरखा दत्त और राजदीप सरदेसाई सरीखे नामचीन पत्रकारों की रिपोर्टिंग के भरोसे क्यों नहीं चलती। भारतीय मीडिया में ऐसे दसियों ताकतवर पत्रकार भरे पड़े हैं, जो कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर बिलकुल वही राय रखते हैं, जैसा कि गिलानियों, मलिकों और यहाँ तक कि हाफिज सईदों और सलाहुद्दीनों तक को पसंद आये। अगर भारत सरकार ने इन पत्रकारों पर लगाम लगाने की आज तक कोशिश नहीं की, तो फिर फैसल साहब के इस सुझाव को किस दलील के आधार पर वजन दिया जाना चाहिए कि “न्यूज स्टूडियो में बैठ कर राष्ट्रवाद का जहर फैला रहे” पत्रकारों की नकेल कसी जाये। 

ख़ैर, इन सब बातों के बावजूद मैं शाह फैसल की मजबूरियों को समझ सकता हूँ। उन्होंने खुद लेख में इसके बारे में बहुत साफ कहा है कि 50,000 रुपये महीने की नौकरी और 50 लाख रुपये के ब्याज मुक्त कर्ज़ के लिए वे अपनी जान नहीं दे सकते। दरअसल यही वह डर है, जो फैसल साहब के लेख की वजह बना है। किसी न्यूज चैनल ने कश्मीर और देश के अपने दर्शकों को केवल यह बताने के लिए कि कश्मीर के युवाओं की प्रेरणा बुरहान वानी नहीं, बल्कि शाह फैसल जैसे युवक होने चाहिए, दोनों की तस्वीरें एक साथ दिखा दी। यह चैनल की एक ईमानदार कोशिश हो सकती है, जिसमें वह कश्मीरी युवाओं को यह बताने की कोशिश कर रहा हो कि आतंकवाद के दहशत और तबाही से उबरने का सही तरीका हथियार उठाना नहीं, बल्कि मुख्यधारा में शामिल होकर राज्य के विकास में भागीदार बनना है। लेकिन अगर फैसल के नजरिये से देखें, तो सच में चैनल की इस ईमानदार कोशिश ने उनके जान-माल को खतरे में डाल दिया है क्योंकि आज के कश्मीरी युवा का आदर्श बुरहान बना हुआ है।

इसलिए मुझे लगता है कि फैसल के इस लेख को केवल शाब्दिक अर्थ से नहीं पढ़ा जाना चाहिए। दिल्ली से चलने वाली कथित राष्ट्रीय मीडिया के लिए इसमें सीख केवल यही है कि जब वे कश्मीर के लिए और कश्मीर से खबरें दें, तो वहाँ के लोगों की सुरक्षा और संवेदनशीलता को भी जरूर ख्याल में रखें।

(देश मंथन, 20 जुलाई 2016)

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