अलविदा

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

मन था मुंबई ब्लास्ट पर लिखूँ। मन था कि याकूब को मिली फाँसी पर लिखूँ। कल देर रात दफ्तर में बैठा रहा, रात भर याकूब मेमन को बचाने की कोशिशों की खबरों का अपडेट करता रहा। सोचता रहा कि क्या लिखूँ।

मेरी पत्नी की नानी को जिस दिन मुंबई से दिल्ली आना था, अपनी बेटी की बेटी की बेटी की बेटी को देखने, उसी दिन मुंबई में ब्लास्ट हुआ था। यह दुर्लभ संयोग था कि नानी की नानी उस दिन दिल्ली में होतीं, और मैं एक तस्वीर उतारता पाँच पीढ़िओं के इस मेल का। लेकिन उस दिन मुंबई में अचानक ब्लास्ट हो गया। पूरी मुंबई थर्रा उठी। सड़कें सुनसान हो गयीं और नानी की नानी अपना सूटकेस लिये घर में बैठी रह गयीं।

फिर नानी की नानी कभी दिल्ली नहीं आ पायी। एक सुबह उसे दिल का दौरा पड़ा और मेरी पत्नी को परियों की कहानी सुनाने वाली नानी सदा के लिए संसार से चली गयी।

मैं अपनी पत्नी की नानी से कई बार मिला हूँ। बहुत मस्त और बिंदास महिला थीं वो। मैं उनके पास जितनी देर बैठता, वो अमिताभ बच्चन की फिल्मों की बातें करतीं। देर रात तक टीवी पर अगर अमिताभ बच्चन की फिल्म आती तो नानी मुहब्बत भरी निगाहों से उसकी जादूगर और लाल बादशाह जैसी फिल्में भी देख लेतीं। कहतीं मुआँ कुछ साल पहले पैदा हुआ होता तो तुम्हारा नाना होता।

ये थी नानी की अमिताभ बच्चन के लिए दीवानगी।

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जिन दिनों मुंबई में ब्लास्ट हुए थे, वो अंधेरी इलाके के गीता किरण अपार्टमेंट में रहती थीं और वो दिल्ली आने के लिए बेचैन थीं। उन्हीं दिनों उनकी बेटी की बेटी की बेटी को बेटी हुई थी। नानी का बहुत मन था कि पाँचवीं पीढ़ी की उस जिन्दगी को वो छाती से चिपका कर एक बार उसकी धड़कन सुन सकें। काश ऐसा हो पाता!

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जिन लोगों ने मुंबई में ब्लास्ट किया था, उन्हें बेशक नहीं मालूम था कि उस एक धमाके की वजह से अंधेरी में रहने वाली कोई बुढ़िया फिर कभी अपनी जिन्दगी से नहीं मिल पायी। जिन लोगों ने धमाका किया था, उन्हें नहीं पता होगा कि पिछले साल दिल्ली में एक माँ, 22 साल पहले इंटरव्यू के लिए मुंबई गये अपने बेटे के घर लौटने का इंतजार करती हुई इस संसार से चली गयी। तब मैं जनसत्ता में था और मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे, पर मेरे घर के लैंड लाइन पर किसी ने सौ बार गुहार लगायी थी कि उसका बेटा ब्लास्ट के बाद से घर नहीं लौटा है, आप अखबार में काम करते हैं, कुछ पता कर दीजिए। मैंने पता करने की कोशिश की थी। मेरी हजार कोशिशों के बाद भी मुझे इतना ही पता चला था कि बम इतना पावरफुल था कि उसकी धमक की चपेट में आने वाले हर जिस्म के हजार से अधिक टुकड़े हो गये थे। अब कौन उन टुकड़ों को जोड़ कर पहचान पाता कि मैं फोन करने वाली माँ को बताता कि तुम्हारा लाल अब मुंबई से कभी लौट कर नहीं आयेगा। न उसकी लाश मिलेगी, न वो मिलेगा।

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ईसाइयत का एक परम धर्म सिद्धांत है – निर्णय मत कर। इस सिद्धांत के तहत माना जाता है कि कोई मनुष्य चाहे कितना भी योग्य विद्वान हो, वह निर्भ्रांत तो हो ही नहीं सकता। अगर मनुष्य के निर्णय में कहीं अणु बराबर भी चूक हो गयी, तो वह उसके हाथ से अन्याय हुआ। और अगर यह अन्याय ऐसे व्यक्ति से और ऐसे संस्थान से हुआ कि जिसे समाज और राजसत्ता ने न्यायाधिकार की स्वछंदता दी है, तो यह अक्ष्मय अपराध हुआ समझना चाहिए।

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शायद इसी नियम से कल देर रात तक याकूब मेमन की फाँसी टाल देने की गुहार लगायी जाती रही। लोगों ने बहुत से तर्क दिये कि याकूब के साथ बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद बहुत अन्याय हुआ था। मुंबई में धमाके उसी अन्याय का एक बदला था। 

बदला? 

मेरी पत्नी की नानी के साथ जो हुआ था, उसके लिए तो उन्होंने कभी नहीं कहा कि उन लोगों से बदला लो, जिनकी वजह से वो पाँचवीं पीढ़ी की धड़कन से नहीं मिल ही नहीं पाईं। दिल्ली की जिस माँ ने मुझसे गुजारिश की थी कि मुंबई से उनका बेटा लौटा ही नहीं, उसने भी कभी ये नहीं कहा कि जिस याकूब ने उस दिन मुबंई में बम प्लांट किया था, उसे पकड़ कर मेरे सामने लाओ। 

किसी ने कुछ नहीं कहा था, क्योंकि मुंबई में मारे गये सभी ढाई सौ लोग आम आदमी थे। उनका कोई मजहब नहीं था। वो किसी सियासी दल के हिस्सा नहीं थे। वो सभी लोग दिन भर जूते घिसने के बाद शाम को दो रोटी खा कर सो जाने वाले लोग थे। जिन मानवाधिकारवादियों ने याकूब के लिए रहम की भीख माँगी थी, उनमें से एक की भी संतान अगर उस दोपहर मुंबई के धमाकों में लीन हुई होती तो मुझे नहीं लगता है कि कोई सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाता कि याकूब को माफी दे दो। 

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फाँसी की सजा इसलिए नहीं दी जाती है कि सजा पाने वाले के साथ न्याय या अन्याय होगा। ऐसी सजा का अर्थ ही होता है कि मानवता के हत्यारों, देख लो, तुम्हारा भी यही हश्र होगा। शिशुपाल की निन्यानबे गलतियाँ तो कृष्ण ने भी माफ कर दी थीं। पर निन्यानवे के बाद माफी का क्या अर्थ होता। 

मेरी पत्नी की नानी और मुझे फोन करने वाली माँ, दो के विषय में तो मैंने आपको बताया ही। मेरे पास पूरी दो सौ निन्यानवे कहानियाँ और हैं, जिन्हें सुन कर किसी की भी रूह काँप उठेगी। इसलिए 22 साल बाद ही सही, लेकिन अदालत के फैसले का सम्मान करना चाहिए। 

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उम्मीद करता हूँ कि मेरी पत्नी की नानी ने भी आज मुंबई ब्लास्ट के अपराधी के अपराध पर मिट्टी डाल दी होगी। उस माँ ने भी मिट्टी डाल दी होगी, जो बहुत जर्जर हाल में अपने कभी नहीं लौटने वाले बेटे का इंतजार करती हुई पिछले साल संसार को अलविदा कह गयी थी। 

(देश मंथन, 30 जून 2015)

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