याकूब मेमन और एक सवाल!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:

याकूब मेमन को तो फाँसी हो चुकी। बहस जारी है और शायद अभी यह बहस जारी रहे। बहुत-सारी बातें हो चुकी हैं। मजहबी रंग की बातें हो चुकी हैं, राष्ट्रवादी जुमलों की तोपें चल चुकी हैं, कानूनी दाँव-पेंच हो चुके हैं। फिर भी बहस अभी जारी है कि याकूब को फाँसी होनी चाहिए थी या नहीं? लोगों के अपने-अपने निष्कर्ष हैं, जिससे वे डिगना नहीं चाहते। 

इस बहस से याकूब मेमन पर अब कोई फर्क नहीं पड़ना। उसे तो फाँसी हो चुकी है। लेकिन यह बहस फाँसी से खत्म नहीं हुई, बल्कि शुरू हुयी है और इस बहस को कुछ निरपेक्ष हो कर, आवेशों के खौलते कड़ाहों से परे हट कर देखें तो कुछ गहरे सवाल दिखते हैं, जिनके जवाब तलाशने और देने की कोशिश की जानी चाहिए। 

याकूब मेमन के अपराध की जघन्यता को लेकर कहीं कोई इनकार नहीं और उसे अदालत में सुनवाई और अपने बचाव का भी पूरा अवसर मिला, इसमें भी कोई शक नहीं। इसके बाद कानून के मुताबिक उसे जो सजा मिलनी चाहिए थी, मिली। लेकिन इस मामले में एक सवाल का जवाब मिलना चाहिए था। वह यह कि याकूब मेमन के भारत आ जाने (या भारत में उसकी तथाकथित गिरफ्तारी) के बाद दो खेप में उसकी पत्नी और उसके परिवार के कई और लोग दुबई में भारतीय दूतावास से सम्पर्क कर भारत क्यों लौटे? क्या याकूब को किसी तरह का कोई भरोसा दिलाया गया था या उम्मीद बँधायी गयी? कहा जा रहा है कि खुफिया एजेन्सियों ने उसके साथ कोई ‘डील’ नहीं की थी और न ऐसी कोई बात अदालतों के सामने मजबूती से रखी गयी। लेकिन अगर याकूब को कोई उम्मीद नहीं दिलायी गयी थी तो वह टाइगर मेमन, दाऊद और पाकिस्तान के खिलाफ ठोस सबूतों के पुलिन्दे जुटा-जुटा कर अपने साथ क्यों लाया था? याकूब अपने साथ ऐसे आडियो कैसेट क्यों लेकर आया था, जिसमें उसने गुपचुप तरीके से ब्लास्ट केस से जुड़ी कई महत्त्वपूर्ण बातचीत रिकार्ड की थी? वह मामले की जाँच में हर सम्भव मदद क्यों कर रहा था? पूर्व रॉ अधिकारी बी. रमन का लेख साफ-साफ कहता है कि याकूब को फाँसी की सजा से उन्हें बड़ी हैरानी हुई और रमन पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं है क्योंकि इस लेख से उन्हें क्या मिलना था? लेख अगर उनके जीवित रहते छपता तो उलटे शायद वह मुसीबत में पड़ जाते! सवाल यही है कि क्या राजनीतिक कारणों से याकूब के साथ यह ‘वादाखिलाफी’ की गयी या यह उसे ‘जाल में फँसाने’ की खुफिया एजेन्सियों की चाल थी? या जैसा कि तब के सीबीआई निदेशक के. विजय रामाराव का कहना था कि मेमन परिवार ने इसलिए आत्मसमर्पण किया क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं था? इस सवाल का जवाब चाहे जो हो, वह इस लेख का विषय नहीं है? 

अब बलवन्त सिंह राजोआना का मामला लीजिए। पंजाब के मुख्य मन्त्री बेअंत सिंह की हत्या के आरोप में उसे फाँसी हुई। अदालत में सुनवाई के दौरान उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से कोई इनकार नहीं किया, कोई बचाव नहीं किया, कोई वकील नहीं किया और साफ कहा कि उसने बेअंत सिंह को मारा है और इसका उसे कोई अफसोस नहीं है। राजोआना ने फाँसी की सजा के खिलाफ अपील करने से भी इनकार कर दिया, अपने परिजनों को भी कहा कि वे कोई दया याचिका न दायर करें और जब मार्च 2012 में फाँसी का दिन नजदीक आने लगा तो पूरे पंजाब में राजोआना के समर्थन में रैलियाँ होने लगीं, आन्दोलन होने लगे और फाँसी से दो दिन पहले शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने अपनी तरफ से दया याचिका दायर की, जो तीन साल से ज्यादा समय से अब भी विचाराधीन पड़ी हुई है और अपनी फाँसी रुकने पर राजोआना ने कहा कि ‘मैं ख़ुश हूँ कि सिख राष्ट्र ने दिल्ली सरकार की चूलें हिला कर रख दीं।’ यही नहीं, राजोआना को अकाल तख्त ने ‘जिन्दा शहीद’ की उपाधि दे रखी है! 

लेकिन राजोआना के मामले में तथाकथित राष्ट्रवादी स्वर अब तक कहीं नहीं उठे! उसे ‘जिन्दा शहीद’ घोषित किया जाना भी ‘राष्ट्रविरोधी’ नहीं माना गया और इसके बावजूद अकाली दल केन्द्र की ‘राष्ट्रवादी’ सरकार का हिस्सा है! जबकि याकूब मेमन की फाँसी का विरोध करने वाले हर व्यक्ति को ‘देशद्रोही’ करार दे दिया गया! इस लेख का विषय यही है! 

समस्या यही है कि हमारी सोच के पैमाने अलग-अलग क्यों हैं? याकूब की फाँसी सही है या गलत, उस पर मैं बहस ही नहीं कर रहा हूँ, उसके कानूनी पहलुओं की पड़ताल कानून के जानकार करते रहेंगे। मेरा सवाल यह है कि आज याकूब की फाँसी को लेकर जो तथाकथित राष्ट्रवादी हुँकार चल रही है, वह मार्च 2012 में क्यों नहीं उठी, जब अकाल तख्त ने उसे ‘जिन्दा शहीद’ घोषित किया। याकूब के जनाजे में इतने लोग गये, कुछ मुसलमान याकूब को हीरो बनाने की निन्दनीय हरकत कर रहे हैं, यह बेहद गलत बात है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर कुछ लोग भयानक उत्तेजना फैलाने में लगे हैं। लेकिन मार्च 2012 में कोई शोर क्यों नहीं उठा, जब पंजाब में राजोआना के समर्थन में रैलियाँ हो रही थीं और जब राजोआना कह रहा था कि ‘सिख राष्ट्र’ ने दिल्ली सरकार की चूलें हिला दीं! 

किसी देश में जब राजनीतिक विमर्श भी और सरकारें भी अपनी सुविधा, पसन्द-नापसन्द और आग्रहों-पूर्वग्रहों के आधार पर एक जैसे मामलों में अलग-अलग पैमाने चुनती हैं, तभी समस्या पैदा होती है। याकूब और राजोआना के मामले को एक साथ रख कर देखें तो दोनों पर हमारा रवैया क्या रहा, यह बात साफ हो जाती है। लेकिन ओवैसी की तरह इसका कोई साम्प्रदायिक अर्थ निकालना परम मूर्खता भी होगी और मुद्दे को भटका कर साम्प्रदायिकता की राजनीति में इसे उलझा देना भी होगा। हो सकता है कि कुछ मामलों में साम्प्रदायिक निहितार्थ भी हों, लेकिन उससे ज्यादा ये मामले राजनीतिक सुविधा के ही होते हैं। 

मिसाल के तौर पर 1984 में सिखों के नरसंहार का मामला ले लीजिए। सारे सबूत सामने थे, सारे नाम सामने थे, जाँच में कुछ सामने नहीं आया और दंगे के बड़े-बड़े कांग्रेसी आरोपी मन्त्री बने घूमते रहे। 1992 के मुम्बई दंगों में किसी को सजा नहीं मिली, उन पुलिस वालों को भी, जिनके खिलाफ श्रीकृष्णा आयोग को पुख्ता सबूत मिले थे। क्यों? क्योंकि वहाँ आयी अलग-अलग सरकारों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखायी। यही नहीं, चाहे कश्मीरी पंडितों का नरसंहार हो, या देश भर में अलग-अलग जगहों पर दलित-विरोधी हिंसा या जातीय नरसंहारों के मामले हों या हाशिमपुरा कांड या फिर वरुण गाँधी के उत्तेजक भाषणों का मामूली-सा मामला हो, इन सब मामलों में अपराधियों को सजा दिलाने में क्या किसी सरकार ने कभी रुचि दिखायी? इन सब मामलों में तथाकथित सेकुलर से लेकर उग्र दक्षिणपंथी माने जाने वाले सारे के सारे राजनीतिक दलों का चरित्र बिलकुल एक जैसा क्यों रहा? क्या साफ नहीं है कि अलग-अलग राजनीतिक कारणों से इन सब मामलों में जाँच और कार्रवाई का हश्र बिलकुल एक जैसा क्यों हुआ? यही असली सवाल है और बस यही एक मुद्दा हमारी चिन्ता का विषय होना चाहिए। नफरतें फैलाने और राजनीतिक दलों के द्वारा बेवकूफ बनने के बजाय इस सवाल पर गम्भीरता से सोचिए। आँखें खुल जायेंगी। 

कहा जा रहा है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता। सही बात है। लेकिन साध्वी प्रज्ञा जैसों के मामले में पहले सरकारी वकील रोहिणी सालियान पर दबाव डाल कर और फिर उन्हें हटा कर सरकार ने क्या वाकई यही संकेत दिया है कि आतंक का कोई धर्म नहीं होता?  

(देश मंथन, 02 अगस्त 2015)

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