अजीत जोगी और अखबार की ताकत

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संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :

अखबार की ताकत पर याद आया। जनसत्ता में नौकरी शुरू की थी तो पाया कि दिल्ली में भी बिजली जाती थी और तो और दफ्तर की बिजली भी जाती थी पर अखबार छापने के लिए जेनरेटर नहीं था। मुझे याद नहीं है कि बिजली जाने पर एक्सप्रेस बिल्डिंग की लिफ्ट चलती थी कि नहीं और चलती थी तो कैसे? नहीं चलती थी तो कभी उसका कोई विरोध हुआ।

दरअसल बिजली कुछ देर के लिए ही जाती थी। लेकिन हमलोग तो बेसमेंट से सीधे बाहर भागते थे। बिजली जब आ जाये हम अपने समय से लौटते थे। मूल बात यह है कि बिजली की कमी और ट्रांसमिशन में खराबी आदि की तमाम समस्याओं के बावजूद अखबार को समय पर बिजली मिलती रहती थी। लोग बताते हैं कि इमरजेंसी में ही एक दिन बिजली न होने से अखबार नहीं छपा था। एक दफा अखबार छापने के समय बिजली नहीं थी और संयोग से रामनाथ गोयनका दफ्तर में ही थे तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से जीएम को हड़का लिया था। इसके बाद फिर कभी अखबार छापने के समय बिजली नहीं गयी। हालाँकि यह एक्सप्रेस के पुराने कर्मचारियों से सुनी हुई बातें हैं। फिर भी यह तथ्य है कि एक्सप्रेस, जनसत्ता और फाइनेंशियल एक्सप्रेस उस जमाने में भी बगैर जेनरेटर के चलता था।
मुझे इस कहानी की याद साथी Anil Sinha की यह पोस्ट पढ़कर आई
छत्तीसगढ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के कांग्रेस छोड़ने की खबर आयी है। मुझे उन्हीं दिनों रायपुर में काम करने का मौका मिला जब वह मुख्यमंत्री थे। मुंबई जनसत्ता छोड़ कर एक प्रस्तावित पत्रिका में काम करने गया था, लेकिन वह पत्रिका निकली नहीं। मैं बेरोजगार था और नौकरी की सख्त जरूरत थी। अपने प्रिय मित्र प्रदीप कुमार मैत्र हिंदुस्तान टाइम्स में रायपुर चले गये थे और कोशिश में थे कि मैं भी वहीं नौकरी करूं। इसी बीच इंडियन एक्सप्रेस ने अंबरीश कुमार को रायपुर भेज दिया था और उन्होंने वहाँ से ‘जनसत्ता’ के स्थानीय संस्करण निकालने की व्यवस्था की। अंबरीश को एक्सप्रेस की ओर से कोआर्डिनेटर बना दिया गया था। उन्होंने ब्यूरो चीफ के रूप में मेरी नियुक्ति करा दी। इस तरह मेरा रायपुर प्रवास शुरू हुआ।
नये राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी की काबलियत में किसी को शक नहीं था। वह उस क्षेत्र में बरसों कलक्टर रह चुके है और स्थानीय हैं। जोगी जी के ज्ञान और राजीनतिक समझ से कोई भी चमत्कृत हो जाएगा। एक वंचित समाज से आने वाले व्यक्ति के प्रति सम्मान स्वाभाविक भी है। प्रदीप मै़त्र उनके बेटे अमित के दोस्त भी थे। वह भी बेहद पढ़ा-लिखा है। लेकिन दोनों की राजनीति में आज की राजनीति के सारे दुर्गुण हैं। मैं नये राज्य में जिस नयी दृष्टि के शासन की उम्मीद करता था उसका कहीं कोई चिन्ह उनकी राजनीति में नहीं था। वह प्रदेश के संसाधन कारपोरेट के हाथों बेचने में लगे थे। केंद्र में भाजपा की सरकार की आर्थिक नीतियों से उनका कोई विरोध नहीं था। जनसत्ता की पत्रकारिता के अनुरूप हम लोग शुरू हो गये। मेरा एक कालम शुरू हुआ था और मैं ने इसमें ‘सपनों के सौदागर’ के नाम से एक आलेख लिख डाला। आलेख का असर हुआ। रायपुर में उन दिनों शायद ही कोई जोगी जी के खिलाफ लिखता था। अखबार के संपादकों के फोन आये।
लेकिन यह ज्यादा समय चल नहीं पाया। अखबार के स्थानीय मालिक के लिए मुख्यमंत्री से पंगा लेना संभव नहीं था। पहले एक्सपे्रस में अंबरीश का तबादला लखनऊ कराया। फिर मुझे हटाया। प्रबंधन ने मेंरे सामने प्रशासनिक दायित्व संभालने का प्रस्ताव रखा और हाथ जोड़ लेने के अलावा अपने सामने कोई ओर रास्ता नहीं बचा। मैं फिर बेरोजगार हो गया। कहीं और गुंजाईश नही बन पा रही थी तो प्रदीप की मदद से रायपुर में ही एक दोपहर के दैनिक का संपादक बन गया। जुझारू पत्रकारों की एक टीम बनायी। अखबार के लिए जोगी विरोधी एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने पैसा जुटाया था। फिर जोगी जी के खिलाफ मोर्चा खुल गया जो उनके साथ हुई कार दुर्घटना तक खुला रहा। उनके दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद मैं ने उनका विरोध बंद कर दिया। अखबार ने भी दम तोड़ दिया। अखबार को चलाये रखने का संघर्ष कितना यातनादायक है यह मैं ही जानता हूँ। इसके बाद से किसी भी अखबार मालिक को देखता हूँ तो मुझे उससे सहानुभूति होती है। विज्ञापन से लेकर छपाई आदि के पैसे का जुगाड़ करना सर्कस के जोकर के करतब से कम नहीं है।
कुछ घटनाओं का जिक्र किए बगैर इस कहानी के एक जरूरी पहलू- सत्ता की ताकत- पर रोशनी नहीं जा पाएगी। दोपहर के दैनिक में संस्करण को प्रेस में भेजने का समय बारह बजे का था और ठीक 11 बजे बिजली गुल हो जाती थी। बिजली विभाग से शिकायत का कोई नतीजा नहीं निकलता था। संस्करण निकलने में देर हो जाती थी। हार कर हमने एक जेनरेटर वाले की सेवा तय कर दी। इधर बिजली गयी, उधर उसने जेनरेटर शुरू किया। अखबार के एजेंटों ने भी अखबार उठाने से मना कर दिया तो रिक्शा पर माइक लगा कर बिक्री शुरू करा दी। यह मैंने भागलपुर के छोटे अखबारों को करते देखा था। लेकिन उछल-कूद काम नहीं आयी।
(देश मंथन, 03 जून 2016)

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