क्यों याद आ रहे हैं आम्बेडकर?

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क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :

इतिहास के संग्रहालय से झाड़-पोंछ कर जब अचानक किसी महानायक की नुमाइश लगायी जाने लगे, तो समझिए कि राजनीति किसी दिलचस्प मोड़ पर है! इधर आम्बेडकर अचानक उस संघ की आँखों के तारे बन गये हैं, जिसका वह पूरे जीवन भर मुखर विरोध करते रहे, उधर जवाब में ‘जय भीम’ के साथ ‘लाल सलाम’ का हमबोला होने लगा है, और तीसरी तरफ हैदराबाद से असदुद्दीन ओवैसी उस ‘जय भीम’, ‘जय मीम’ की संगत फिर से बिठाने की जुगत में लग गये हैं, जिसकी नाकाम कोशिश किसी जमाने में निजाम हैदराबाद और प्रखर दलित नेता बी। श्याम सुन्दर भी ‘दलित-मुस्लिम यूनिटी मूवमेंट’ के जरिए कर चुके थे।

अचानक एजेंडे पर दलित राजनीति

बात साफ हो गयी होगी! दलित अचानक भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण हो गये हैं, इसलिए आम्बेडकर भी प्रासंगिक हो गये हैं। वरना किसे और क्यों याद आते आम्बेडकर? ठीक वैसे ही जैसे लोकसभा चुनाव के कुछ पहले नेहरू की विरासत को ‘कंडम’ साबित करने के लिए संघ को अचानक सरदार पटेल याद आ गये, और बिहार चुनाव में कुशवाहा वोटों के लिए सम्राट अशोक को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गयी थी। पश्चिम बंगाल के लिए ‘सुभाष कार्ड’ भी खेलने की कोशिश की गयी, लेकिन ज्यादा बात बनती न देख कर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

दलित और ‘हिन्दुत्व’ का नुस्खा!

तो दलित अचानक राजनीति के एजेंडे पर क्यों आ गये? इसलिए नहीं कि वह ‘वोट बैंक’ हैं। वोट तो अपनी जगह है। असल मुद्दा एक लाइन का है। दलित जब तक अपने को ‘विराट हिन्दू पहचान’ से जोड़ कर नहीं देखेंगे, तब तक दलितों पर संघ के ‘हिन्दुत्व’ का नुस्खा असर नहीं करेगा और वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ के कोर एजेंडे की सबसे बड़ी बाधा बने रहेंगे। इसीलिए संघ अब आम्बेडकर की माला गले में लटका कर घूमना चाहता है। संघ को लगता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में यादवों को छोड़ कर देश में पिछड़े वर्ग पर उसकी मजबूत पकड़ बन चुकी है। दलित नेतृत्व में मायावती को छोड़ कर फ़िलहाल कोई और चुनौती है नहीं। रामविलास पासवान और उदितराज जैसे नेता पहले ही बीजेपी के पाले में आ चुके हैं। इसलिए मायावती के बाद की दलित राजनीति पर संघ की पैनी नजर है।

दलित-मुस्लिम गँठजोड़ की आस

दूसरी तरफ़, सेकुलर तम्बू की बड़ी आस दलितों पर है, क्योंकि हिन्दू समाज में दलित आज भी उसी तरह उत्पीड़ित और ‘अछूत’ हैं, जिसके खिलाफ आम्बेडकर लड़ रहे थे। इसलिए सेकुलर ताकतों को लगता है कि संघ ब्राँड हिन्दुत्व का मुकाबला करने में दलित बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। उधर, असदुद्दीन ओवैसी भी इसमें अपने राजनीतिक विस्तार की सम्भावनाएँ देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि संघ की गरज-बरस से आतंकित मुसलमानों को अपने लिए अब शायद एक अलग नेतृत्व की जरूरत महसूस हो और ऐसे में मुसलमानों और दलितों को साथ आने के लिए एक साझा जमीन और वजह मिल सकती है, और अगर ऐसा हो पाया तो देश की राजनीति में एक बिलकुल नया कोण दिख सकता है।

आम्बेडकर पर संघी कलई

इसीलिए आम्बेडकर पर कस कर संघी कलई चढ़ाई जा रही है। एक तरफ प्रचारित किया जा रहा है कि छुआछूत तो मुगलों की देन है। शूद्र तो क्षत्रिय थे, लेकिन मुगलों के दबाव में जिन शूद्रों ने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया, उन्हें ‘अछूत’ करार दे दिया गया। इसी के साथ यह कहा जा रहा है कि आम्बेडकर मुसलमानों को बिलकुल पसन्द नहीं करते थे। इसलिए जब उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ा तो वह बौद्ध बने, क्योंकि बौद्ध धर्म तो हिन्दुत्व से ही जन्मा है।

दलित, मुसलमान और आम्बेडकर

यह अलग बात है कि आम्बेडकर ने बिलकुल साफ-साफ लिखा है कि “मुसलमानों के बहुत बड़े हिस्से और हिन्दू समाज के पददलित तबके के हालात एक जैसे हैं और उनके साझा हित हैं।” अपने जीवन काल में आम्बेडकर हमेशा हिन्दुत्ववादी ताकतों और ‘हिन्दू राज’ की अवधारणा को कड़ी टक्कर देते रहे। यह भी शायद कम लोगों को याद होगा कि काँग्रेस के नेताओं का एक वर्ग भी आम्बेडकर का बड़ा विरोधी था। इसीलिए आजादी के पहले अविभाजित भारत की संविधान सभा के चुनाव के समय आम्बेडकर अपने गृह प्रदेश बम्बई (तब उसे इसी नाम से जाना जाता था) को छोड़ कर बंगाल से लड़े और मुस्लिम लीग के समर्थन से जीते। देश-विभाजन के बाद बंगाल भी बँट गया, तो आम्बेडकर को फिर से चुनाव लड़ना पड़ा और तब डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बम्बई काँग्रेस के नेताओं को खास तौर पर चिट्ठी लिखी, तब कहीं जा कर आम्बेडकर संविधान सभा में दुबारा लौट सके। 

राजनीति महाठगिनी हम जानी! 

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(देश मंथन, 17 अप्रैल 2016)

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