भाजपा में कैसे जगह पाते हैं दयाशंकर जैसे लोग

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संदीप त्रिपाठी :

उत्तर प्रदेश भाजपा के नवनियुक्त उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह बसपा सुप्रीमो मायावती पर अभद्र टिप्पणी करके न सिर्फ अपनी कुर्सी गवाँ बैठे बल्कि उन्हें पार्टी से भी छह साल के लिए निष्कासित कर दिया गया। लखनऊ के हजरतगंज थाने में उन पर एससी-एसटी एक्ट समेत कई धाराओं में प्राथमिकी भी दर्ज कर ली गयी है।

दयाशंकर की अभद्र टिप्पणी का मामला जब उछला तो राज्यसभा में भाजपा के नेता अरुण जेटली ने माफी माँगी और स्वयं को मायावती के सम्मान के साथ खड़ा बताते हुए कार्रवाई का आश्वासन दिया। इधर, उत्तर प्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने दयाशंकर के बयान के लिए माफी माँगी और दयाशंकर को पार्टी के सभी दायित्वों से मुक्त करते हुए उन्हें पार्टी से छह साल के लिए निष्कासित करने की घोषणा की।

यहाँ भाजपा नेतृत्व की एक बात के लिए सराहना करनी होगी कि उसने दयाशंकर के खिलाफ कार्रवाई में विलंब नहीं किया। केंद्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर नेतृत्व ने तत्काल क्षमा माँग कर पार्टी के तौर पर अपना रुख साफ किया है और दयाशंकर को निष्कासित कर यह भी बता दिया है कि पार्टी के भीतर ऐसे नेताओं को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। भले ही इसकी वजह उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव ही क्यों न हों। जाहिर है, इस मसले को बसपा बहुत आगे बढ़ाना चाहेगी लेकिन दयाशंकर के खिलाफ कड़ी कार्रवाई से अब बसपा के लिए इस मामले में भाजपा को निशाने पर लेने में दिक्कत आयेगी।

कौन हैं दयाशंकर

दयाशंकर सिंह बलिया के रहने वाले हैं और शुरुआत से बहुत महत्वाकांक्षी हैं। इससे पूर्व वह 2012 से पहले प्रदेश कार्यकारिणी में सचिव रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश भाजयुमो के प्रभारी रह चुके हैं। यह तो रही संगठन में पैठ की बात। आम जन के बीच उनका रिकॉर्ड यही रहा है कि 1998 में वे लखनऊ छात्रसंघ के अभाविप के प्रत्याशी के रूप में महामंत्री चुने गये। 1999 में अध्यक्ष पद पर लड़े, दूसरे स्थान पर रहे लेकिन सर्वाधिक मत प्राप्त प्रत्याशी सपा के गोपाल जी का नामांकन रद हो गया जिस पर दयाशंकर ने शपथ ले ली। गोपाल जी अदालत गये जहाँ गोपाल जी को न्याय मिला लेकिन तब तक छात्रसंघ अध्यक्ष का कार्यकाल बीच चुका था। इसके बाद दयाशंकर सिंह 2007 के विधानसभा चुनाव में बलिया सदर सीट से लड़े और जमानत जब्त हो गयी। इस बार 2016 में उत्तर प्रदेश विधानपरिषद का टिकट मिला और वे चुनाव हार गये।

भाजपा की चुनौती

दयाशंकर के उपरोक्त परिचय से स्पष्ट है कि जनता में उनका भले आधार न हो, लेकिन पार्टी नेतृत्व में उनकी लॉबीईंग अच्छी है। यह बात क्या जाहिर करती है? यही न कि भाजपा में भी चक्रमण करने वाले नेताओं की अच्छी पूछ है। क्या ऐसे नेताओं के भरोसे भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी की सोच सकती है? भाजपा को देखना होगा कि पार्टी के कौन से नेता इन चक्रमणकारी नेताओं को बढ़ावा देते हैं? और पार्टी को यह भी सोचना होगा कि वह जनता में काम के जरिये आगे आये नेताओं को तवज्जो दे कर देश में आगे बढ़ सकती है या उनकी उपेक्षा कर। क्या पार्टी यह तय नहीं कर सकती कि संगठन में काम कर तपे-तपाये लोगों को ही पदाधिकारी बनाया जायेगा या फिर जनता के बीच काम कर अच्छा आधार बनाने वाले लोगों को जगह मिलेगी। आखिर स्वयं अमित शाह को भी गुजरात और फिर उत्तर प्रदेश में संगठन में काम करके नतीजा देने के बाद ही राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद मिला है। अगर ऐसा हो तो पार्टी को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता। लेकिन अगर दयाशंकरी संस्कृति जारी रही और पार्टी नेतृत्व ने समय रहते ऐसे तत्वों से निजात नहीं पायी तो भाजपा समर्थकों को मायूस होना पड़ेगा।

पुनश्च : अब हम एक दूसरे बयान पर आते हैं। यह बयान है असम में कांग्रेस के नेता और असम के पूर्व कृषि मंत्री नीलमणि सेनडेका और विधायक रूप ज्योति कुर्मी ने दिसंबर, 2015 में स्मृति ईरानी पर बेहद अभद्र टिप्पणी की थी। काफी हंगामा मचा लेकिन कांग्रेस ने कोई कार्रवाई नहीं की। इससे पूर्व मार्च, 2015 में राष्ट्रीय जनता दल के तत्कालीन विधायक अख्तरुल इस्लाम शाहीन ने स्मृति ईरानी पर अभद्र टिप्पणी की थी। इस पर काफी हंगामा मचा, विधानसभा में कुर्सियाँ भी चलीं लेकिन न उनकी पार्टी ने और न ही तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने, कोई कार्रवाई की। बल्कि उन्हें फिर टिकट मिला और समस्तीपुर से वे फिर विधायक हैं। इन नेताओं पर कार्रवाई न कर कांग्रेस और राजद ने भी अपनी पार्टी का रुख स्पष्ट किया है।

(देश मंथन 22 जुलाई 2016)

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