बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं की चुनौती

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श्रीकांत प्रत्यूष, संपादक, प्रत्यूष नवबिहार :

प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनने के बावजूद बीजेपी के अन्दर परिवर्तन का दौर थमा नहीं है। वैसे पार्टी स्तर पर इस तरह के परिवर्तन की शुरुआत तो नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते राष्ट्रीय राजनीति में दखल के साथ ही शुरू हो गयी थी, जो अब उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद साफ दिखने लगी है।

इसमे कोई शक नहीं कि एक चाय वाले के हाथ में बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी की कमान का आना ही एक बहुत बड़ा परिवर्तन था। पहली बार किसी राष्ट्रीय पार्टी और सरकार की कमान एक ऐसे देशी व्यक्ति के हाथ में है, जिसे देश की समस्या से लेकर देश की खासियत का ज्ञान ही नहीं बल्कि देशी समाधान का नजरिया भी है।

पहली बार देश के मंत्री, कांग्रेसी मंत्रियों की तरह देश से ज्यादा परदेश की समझ रखने वाले, परदेश में पढ़े लिखे लोग नहीं बल्कि देश के गाँव देहात के स्कूल कॉलेज से पढ़े लिखे। यहाँ तक कि मैट्रिक पास देशी लोग बने हैं। ये परदेशी डिग्री वाले मंत्रियों की तरह देशी समस्याओं के लिए पश्चिमी देशों के महँगे समाधान नहीं ढूँढ़ेंगे बल्कि देशी समस्या का देशी और सस्ता समाधान ढूँढ़ेंगे।

पहले बात करते हैं पार्टी और संगठन स्तर पर बीजेपी के अन्दर हो रहे बदलाव की। राहुल और सोनिया के कांग्रेस की तरह नेहरू की उपलब्धियों और इंदिरा गांधी-राजीव गांधी की शहादत की कीमत माँगने की बजाय अब मोदी बीजेपी को नये सिरे से गढ़ना चाहते हैं। लालकृष्ण आडवाणी और अटलबिहारी ने जिस बीजेपी को खड़ा किया था वह बीजेपी आज के युग में वगैर आमूल-चूल परिवर्तन के आज के जमाने की राजनीति से कदमताल नहीं कर पा रही थी। आडवाणी और जोशी को संसदीय बोर्ड से बाहर रखने के फैसले को मोदी के पार्टी पर पूरी तरह से कब्जा जमाने के रूप में भी देखा जा सकता है और पार्टी को नये सिरे से नये जमाने के हिसाब से ढालने की कवायद के रूप में भी।

पार्टी की कमान हाथ में लेने के साथ ही उन्होंने ये संकेत दे दिया था कि बुजुर्गों के सम्मान में उनका सर तो झुकेगा लेकिन उनके दबाव में उनका फैसला नहीं बदलेगा। उन्होंने आडवाणी के पैर छूकर और वाजपेयी को अपनी प्रेणना बताकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भरोसे में लेकर राष्ट्रीय राजनीति की शुरुआत की। यही वजह है कि बुजुर्ग नेताओं की साख का उन्हें फायदा तो मिला लेकिन उन्हें राजनीति से दरकिनार करने का कोई खामियाजा नहीं उठाना पड़ा। मोदी ने संसदीय बोर्ड से आडवाणी, वाजपेयी और मुरली मनोहर जोशी को बाहर करके उनके मार्गदर्शन में पार्टी चलाने का निर्देश देकर साफ कर दिया है परिवर्तन केवल सरकार के स्तर पर ही नहीं बल्कि पार्टी के स्तर पर भी होगा। मोदी का सिक्का केवल सरकार में ही नहीं बल्कि पार्टी पर भी दबदबा कायम रहेगा।

वैसे भी जब तक पुराने लोगों को बाहर का रास्ता दिखाये वगैर नये-नये लोगों को जगह देना मुश्किल था। ये आडवाणी और मुरली मनोहर के ऊपर है कि पार्टी के इस फैसले को वो अपने अपमान के रूप में लेते हैं या फिर मार्गदर्शन की भूमिका को मोदी पर नकेल कसने के अवसर के रूप में? आडवाणी और जोशी मार्गदर्शन की भूमिका स्वीकार कर मोदी पर अपना प्रभाव बनाये रख सकते हैं, प्यार से और कभी कभी दबाव से भी। मोदी उनके मार्गदर्शन को मानेंगे तो उनका मान बढ़ेगा और नहीं मानेंगे तो मोदी का असली चेहरा सामने आयेगा। 

या फिर ये बुजुर्ग नेता इसे अपना तिरस्कार बताकर, मोदी को कोसकर मार्गदर्शन करने का अपना अधिकार भी खो सकते हैं। जाहिर है अगले लोकसभा चुनाव तक आडवाणी और जोशी चुनाव लड़ने लायक रहे भी तो उन्हें मौका नहीं मिलेगा। लेकिन अगर मोदी के इस फैसले को आडवाणी और जोशी सहजता के साथ स्वीकार करते हैं, तो राष्ट्रपति और राज्यपाल बनने की संभावना तो बनी रहेगी। अगर जोशी, आडवाणी कुछ नहीं भी बनते हैं, तो भी एक निष्पक्ष मार्गदर्शक की भूमिका निभाकर पार्टी और सरकार दोनों पर पर एक हदतक अपना प्रभाव बनाये रख सकते हैं। राजनीति में वैसे भी दया, क्षमा और निर्बलता के लिए कोई जगह नहीं होती। राजनीति रिश्ते नाते और पुरानी उपलब्धियों के सहारे नहीं बल्कि हमेशा रणनीति के सहारे आगे नहीं बढ़ती है।

इसे आगे बढ़ाने के लिए भविष्य को ध्यान में रखकर वर्तमान की रणनीति तैयार करनी पड़ती है। आडवाणी, जोशी अपनी पुराणी उपलब्धियों और योगदान का हवाला देकर जन-समर्थन नहीं ले सकते क्योंकि जनता हमेशा अच्छा के लिए बदलाव चाहती है। राजनीति में अगर कोई नेता जनता के हित में बदलाव लाने की कोशिश करने की बजाय बुजुर्ग नेताओं को या फिर अपने करीबियों को पुरानी उपलब्धियों और योगदान के लिए उपकृत करता दिखने लगे तो जनता उसे खारिज कर देती है।

जनता को इससे कोई मतलब नहीं कि मोदी ने पार्टी के अन्दर किस नेता के साथ क्या व्यवहार किया। जनता तो मोदी का आकलन इस आधार पर करेगी कि पार्टी स्तर पर और देश के लिए अच्छे दिन लाने के लिए मोदी ने क्या किया? इसलिए अडवाणी और जोशी के पास दो ही विकल्प हैं एक तो मार्गदर्शन की भूमिका को स्वीकार कर राजनीति के हाशिये पर ढकेले जाने की चुनौती को अपने अनुभव से अवसर में बदल सकते हैं या फिर राजनीति से सन्यास लेकर बाकी के बचे दिन का इस्तेमाल वो अपने परलोक सुधारने के लिए कर सकते हैं।

(देश मंथन, 27 अगस्त 2014)

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