भाजपा मुसलमानों से दूर, या मुसलमान भाजपा से दूर?

0
154

राजीव रंजन झा :

भाजपा पर यह आरोप रहा है कि वह मुसलमानों से दूरी बनाये रखती है। उसका अब तक का चाल-चरित्र-चेहरा बताता है कि इस आरोप को निराधार नहीं कहा जा सकता।

लेकिन इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है। दूसरा पहलू यह है कि आम तौर पर मुसलमान भी भाजपा से दूरी बनाये रखते हैं। कभी-कभार कुछ मुसलमान चेहरे भाजपा से जुड़ते भी हैं तो तुरंत उन पर तोहमतों का सिलसिला शुरू हो जाता है। अभी हाल में अभिनेता सलमान खान के पिता और जाने-माने फिल्मी पटकथा लेखक सलीम खान ने जब भाजपा की उर्दू वेबसाइट का लोकार्पण किया तो एक तरफ मुसलमान बिरादरी, तो साथ-साथ सेक्युलर बिरादरी से उनके लिए व्यंग्य-बाणों की बरसात शुरू हो गयी। फेसबुक पर एक टिप्पणी आयी – “मित्रों बधाई हो, देश को एक और राष्ट्रभक्त मुसलमान मिल गया। सलीम खान स‌ाहब, ‘हिंदुओं’ को आप पर गर्व है।” एक अन्य टिप्पणी में सलीम खान के इस कदम को जोधपुर की अदालत में सलमान खान के मुकदमे से जोड़ दिया गया। कहा गया कि राजस्थान में भाजपा सरकार होने के कारण सलीम खान ने ऐसा किया।

ऐसा नहीं है कि केवल फेसबुक पर सामान्य जनों के बीच ऐसी प्रतिक्रियाएँ आयी हों। हालाँकि ऊपर फेसबुक की एक टिप्पणी बड़े समाचार चैनल में कार्यरत पत्रकार की है। प्रभात खबर की वेबसाइट पर अलीगढ से आयी एक खबर में कहा गया कि फोरम फॉर मुस्लिम स्टडीज ऐंड एनालिसिस ने सलमान खान और सलीम खान पर व्यावसायिक फायदे के लिए निम्न कोटि के अवसरवाद का आरोप लगाया है।

महीने भर पहले मार्च में जब एम. जे. अकबर भाजपा से जुड़े, तो उन पर भी तमाम तरह की टिप्पणियाँ की गयीं। कुछ लोगों ने तो इस नजरिये से सवाल उठाये कि पत्रकार का राजनीति में जाना कितना सही है। कुछ लोगों ने अकबर के पुराने लेखों और किताबों का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने भाजपा का पुरजोर विरोध किया था। कभी अकबर ने मोदी की तुलना हिटलर से भी की थी। लेकिन भाजपा में शामिल होने के बाद उन पर उठे अधिकतर सवालों की अंतर्ध्वनि यही थी कि अरे, एक मुसलमान हो कर भी भाजपा में…

अकबर को एक लंबे लेख में सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने भाजपा में शामिल होने का फैसला क्यों किया। उन्होंने भाजपा में शामिल होते समय बयान दिया कि “बीते 10 सालों में कोई और राजनेता ऐसा नहीं है, जिसे मोदी जितनी छानबीन से गुजरना पड़ा हो। उनकी छानबीन पुलिस, केंद्र सरकार, सीबीआई, अदालत की ओर से नियुक्त एसआईटी सबने की। लेकिन जो लोग इस बारे में अभी-अभी जगे हों, उन्हें न्यायमूर्ति (वीआर) कृष्ण रिपोर्ट (गुजरात दंगों पर) पढ़नी चाहिए।”

शायद अकबर मीडिया का नाम लेना भूल गये, जिसमें वे खुद भी शामिल थे। वे मोदी और भाजपा के कटुतम आलोचकों में गिने जाते रहे हैं। उनके विचार क्यों बदले और कैसे बदले इस पर सवाल पूछना लाजिमी है। लेकिन अगर उनकी अंतर्ध्वनि यह है कि मुसलमान होते हुए भी अकबर भाजपा में कैसे चले गये, तो क्या यह एक वाहियात सवाल नहीं बन जाता है?

अकबर के शामिल होने के चंद दिनों बाद ही जब साबिर अली के भाजपा में आने पर मुख्तार अब्बास नकवी बिफर गये तो तकरीबन उन्हीं आलोचकों ने चुटकी ली – ये देखो, भाजपा में कोई मुसलमान आ ही नहीं सकता। कुछ लोगों ने इसे सवर्ण बनाम पिछड़े मुसलमानों की लड़ाई से जोड़ दिया। सवाल उठाया गया कि क्या एक मुस्लिम मनुवादी सामंत (यानी मुख्तार अब्बास नकवी) ने एक पिछड़े मुसलमान (यानी साबिर अली) की बलि ले ली!

भागलपुर से तीसरी बार लोकसभा सांसद बनने की चाहत के साथ चुनाव लड़ रहे शाहनवाज हुसैन को लोग आज भी भाजपा का पोस्टर-ब्वॉय कहते हैं। कुछ ऐसी ही टिप्पणियाँ आजादी से पहले की कांग्रेस के नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद के लिए भी होती थीं। उन्हें भी कांग्रेस के पोस्टर-ब्वॉय की उपाधि से नवाजा जाता था। कुछ लोग प्रतिवाद करेंगे कि कहाँ मौलाना आजाद, कहाँ शाहनवाज हुसैन। मगर दोनों के कद की तुलना का प्रश्न नहीं है। प्रश्न है कि कोई व्यक्ति बस एक खास पार्टी में होने के कारण मुखौटा या पोस्टर-ब्वॉय क्यों कह दिया जाता है?

इन लोकसभा चुनावों के बीच ही बिहार में विधानसभा की पाँच सीटों के उपचुनाव भी हो रहे हैं। शायद कम लोगों को मालूम होगा कि यहाँ किशनगंज के बायसी और पूर्णिया के कोचाधामन से मुसलमान प्रत्याशी उतारे हैं। बायसी से शमीम अख्तर और कोचाधामन से अब्दुर रहमान को टिकट दिया गया है।

लेकिन इन दो मुस्लिम चेहरों को टिकट देने का असर देखिए। किशनगंज लोकसभा क्षेत्र से जदयू के प्रत्याशी अख्तरुल ईमान ने अल्पसंख्यक वोटों का बिखराव रोकने के नाम पर खुद को चुनावी दौड़ से अलग कर लिया। उन्होंने यह कदम नाम वापसी की तारीख बीत जाने के बाद उठाया, यानी जदयू उस क्षेत्र से किसी और को भी नहीं उतार सकता।

अख्तरुल ईमान ने अपने फैसले के सही ठहराने के लिए किशनगंज वासियों के नाम एक संदेश लिखा। इसमें उन्होंने कहा, “बायसी और कोचाधामन से भाजपा का टिकट मुसलमान प्रत्याशी को दे कर हमारी विभिन्न बिरादरियों को बाँटने का एक बड़ा षड़यंत्र है। इससे शंका है कि शेरशाहवादी एवं कुल्हैया बिरादरी के वोट का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ न हो जाये।”

यानी भाजपा-विरोधियों की एक बड़ी चिंता यह है कि मुसलमान मतदाताओं को किसी भी कीमत पर भाजपा की ओर जाने से रोकना है। इसके लिए वे चुनावी मैदान से हट कर अपने किसी अन्य राजनीतिक विरोधी का रास्ता भी साफ कर सकते हैं।

लोग यह तो अक्सर गिनते हैं कि भाजपा ने कितने मुसलमानों को टिकट दिया। लेकिन क्या लोग कभी यह भी पूछते हैं कि भाजपा के सक्रिय सदस्यों में मुसलमान कितने हैं? आप किसी भी आम भाजपा समर्थक से पूछ लें, सबके मन में एक बात बैठी मिलेगी कि आप कितना भी समझा लें मगर मुसलमान भाजपा को वोट नहीं देगा।

इसलिए यह दोतरफा प्रक्रिया है। लेकिन इस जकड़न को अगर तोड़ना है, तो पहल भाजपा को ही करनी होगी। एक सीमा तक भाजपा ने ऐसा करना शुरू भी किया है। लेकिन लोग उस पहल को संदेह के साथ देख रहे हैं। भाजपा और मुसलमानों के संबंधों के इतिहास को देखते हुए यह संदेह स्वाभाविक भी है। भाजपा अगर लगातार प्रयास करे और अपने प्रयासों को लेकर गंभीर दिखे, तभी यह संदेह मिटेगा। इसमें काफी समय भी लगेगा।

(देश मंथन, 18 अप्रैल 2014)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें