अखिलेश शर्मा, वरिष्ठ संपादक (राजनीतिक), एनडीटीवी :
चुनावी मौसम में नेताओं के असली रंग दिखते हैं। ये मेंढक की तरह एक पार्टी से दूसरी पार्टी में कूदते हैं।
विचारधाराएँ पीछे छूट जाती हैं। कुर्सी का मोह सर्वोपरि हो जाता है। वैसे तो ये प्रवृत्तियाँ हमेशा ही रहती हैं मगर चुनाव के मौसम में खुल कर सामने आती हैं। कल तक जिन्हें भला-बुरा कहते रहे, वे अचानक सबसे अच्छे हो जाते हैं।
ताजा वाकया है गौतम बुद्ध नगर से कांग्रेस के उम्मीदवार रमेश चंद्र तोमर का। ये बीजेपी के सांसद रहे हैं। लेकिन 2009 में गाजियाबाद सीट से बीजेपी की तरफ से राजनाथ सिंह के उतरने से नाराज हो गये और पार्टी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हो गये। इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने इन्हें गौतम बुद्ध नगर से टिकट दिया। जोर-शोर से प्रचार में जुटे थे। अचानक रातों-रात पाला बदल लिया। मतदान से सिर्फ हफ्ते भर पहले कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गये।
भले ही बीजेपी के लिए रमेश चंद्र तोमर एक ट्राफी हों जिन्हें विजेता के अंदाज में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी की इंदिरापुरम की रैली में दिखाया हो, मगर राजनीति के लिए ये एक शर्मनाक वाकया है। आया राम गया राम की राजनीति में नेताओं को चुनाव जीतने या लड़ने से पहले तो पाला बदलते देखा गया, मगर ऐन चुनाव के दौरान पाला बदलने के ऐसे किस्से कम ही हैं। वो भी तब जब किसी नेता ने पार्टी की ओर से पर्चा भरा हो। ऐसा ही मध्य प्रदेश के भिंड में हुआ। कांग्रेस ने भागीरथ प्रसाद को वहाँ से अपना उम्मीदवार घोषित किया था मगर वो कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गये और बीजेपी ने उन्हें अपना उम्मीदवार बना लिया।
भागीरथ प्रसाद का मामला थोड़ा अलग भी मान सकते हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस उसी दिन छोड़ी जिस दिन उन्हें कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया। उनके बीजेपी में शामिल होने के बाद कांग्रेस ने वहाँ दूसरा उम्मीदवार मैदान में उतार दिया। लेकिन रमेश चंद्र तोमर का मामला तो बिल्कुल अलग है। बीजेपी में शामिल होने के बावजूद वो अब भी कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। दस अप्रैल को गौतम बुद्ध नगर के मतदाता जब वोट देने जायेंगे तो ईवीएम पर उन्हें रमेश चंद्र तोमर का नाम दिखेगा और उनके नाम के आगे हाथ के पंजे का निशान रहेगा। कांग्रेस के पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि वो किसी दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को अपना समर्थन घोषित करे।
दिलचस्प बात ये है कि अगर तोमर चुनाव जीत जाते हैं तो वो कांग्रेस के सांसद होंगे। ऐसे में उनकी सदस्यता भी तुरँत ही जा सकती है क्योंकि उन पर दलबदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई हो सकती है। ऐसे में गौतम बुद्ध नगर में फिर चुनाव करवाना पड़ सकता है। जाहिर है ये काल्पनिक दृश्य है। मगर इससे चुनावी प्रक्रिया का एक बड़ा झोल सामने आया है कि नामांकन भरने के बाद अगर कोई उम्मीदवार दल बदल ले तो क्या होगा?
बुधवार रात को जब खबरें आयीं कि रमेश चंद्र तोमर कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो रहे हैं तब उन्होंने इन खबरों का पुरजोर ढंग से खंडन किया। खबरें दिखाने वाले चैनलों के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत करने की धमकी दी। आधी रात में प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि वो कांग्रेस में ही रहेंगे। ये भी कहा कि जो लोग ऐसा कह रहे हैं कि उनके खिलाफ वो मानहानि का मुकदमा दर्ज करेंगे। तोमर के बेटे ने मीडिया में फोन कर खबरों का खंडन किया। गुरुवार सुबह जब कांग्रेस नेताओं ने उन्हें फोन कर पूछा कि वो कहाँ हैं तो उन्होंने बताया कि वो शिकायत करने के लिए चुनाव आयोग के दफ्तर में गये हैं। ये बात कुछ हद तक सही थी क्योंकि वो अशोक रोड पर ही थे। फर्क सिर्फ इतना था कि तोमर अशोक रोड पर चुनाव आयोग के दफ्तर के बजाये इसके बगल में ही बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की कोठी पर थे जहाँ राजनाथ सिंह ने उन्हें पाँच रुपये की पर्ची देकर बीजेपी में फिर शामिल कर लिया।
बीजेपी हो या कांग्रेस जिस भी राजनीतिक दल को दूसरे की फजीहत करने का मौका मिलता, वो जरूर ऐसा ही करते हैं। कुछ समय पहले ही कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला को साथ लेकर अपने मंच से उनसे नरेंद्र मोदी के वैवाहिक जीवन के बारे में सवाल उठवाये थे। लेकिन बड़ा सवाल ऐसे नेताओं के बारे में है जिनकी आस्थाएँ बदलने में चंद मिनट ही लगते हैं। मोदी को पानी पी पी कर कोसने वाले साबिर अली मोदी का गुणगान करते हुए बीजेपी में आये और चौबीस घंटों के भीतर ही दूसरे दरवाजे से बाहर निकल गये। या तो एक-दूसरे को नीचा दिखाने के राजनीतिक दलों के खेल में इन नेताओं को अपने लाभ के लिए मोहरों की तरह इस्तेमाल होने से परहेज नहीं है या फिर वो ये मान कर चलते हैं कि वो चाहें जो करें, लोग उन्हें कुछ नहीं कहेंगे। पर क्या वाकई ऐसा है?
(देश मंथन, 04 अप्रैल 2014)