विकास मिश्रा, आजतक :
मनमोहन सिंह अब कभी किसी सियासी मंच पर नजर नहीं आयेंगे। नेपथ्य से निकलकर अचानक सियासत के मंच पर आये थे और देश के सबसे बड़े पद तक पहुँचे।
16 मई के नतीजों के बाद, नयी सरकार बनते ही मनमोहन हमेशा के लिए सियासत की गलियों को अलविदा कह देंगे। इसके बाद देश आखिर मनमोहन को किस रूप में याद रखेगा? इतिहास मनमोहन का आकलन किस रूप में करेगा? एक मजबूर प्रधानमंत्री, कमजोर प्रधानमंत्री, फैसले न ले पाने वाला प्रधानमंत्री, रिमोट कंट्रोल से चलने वाला प्रधानमंत्री, देश की सबसे भ्रष्ट सरकार का प्रधानमंत्री, हजारों सवालों पर खामोशी की चादर ओढ़ लेने वाला प्रधानमंत्री…। क्या यही सच मनमोहन के दामन से चिपका रहेगा और इतिहास में दर्ज हो जायेगा? क्या इन बातों की आंधी में मनमोहन की सारी कािबलियत, सारी ईमानदारी, सारी प्रतिबद्धताएँ गुम हो जायेंगी?
याद कीजिए जब नरसिंह राव सरकार के कप्तान थे और मनमोहन उनकी टीम के तेंदुलकर। खुल कर खेलने का मौका दिया, हर आरोप पर छतरी ताने खड़े रहे। मनमोहन वित्त मंत्री थे, हर फैसले की आलोचना हुई, लेकिन नतीजे चौंकाने वाले थे। देश का गिरवी रखा सोना वापस आया, विदेशी कंपनियाँ भारत में कारोबार फैलाने आयीं, कारपोरेट जगत का सही मायने में जन्म उसी वक्त हुआ। उस वक्त के उदारीकरण का मनमोहनी फार्मूला पूरी दुनिया ने अपनाया। राव ने कांग्रेस को रसातल में ढकेला, लेकिन देश बचाने के लिए जो काम नरसिंह राव – मनमोहन ने किया, इतिहास में वह भी दर्ज होना चाहिए। वैसे तो यह भी सच है कि कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति ने नरसिंह राव को अपने इतिहास से साफ कर दिया। मनमोहन को भी कांग्रेस के इतिहास में जगह नहीं मिलेगी। लेकिन राजनीतिक इतिहास क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहेगा कि आखिर मनमोहन सिंह जैसा शानदार परफॉर्मर जब खुद कप्तान बना तो विफल क्यों हो गया? किन हजारों सवालों की आबरू रखने के लिए मनमोहन सिंह ने खामोशी की चादर ओढ़ ली?
मनमोहन सिंह ने जब वित्त मंत्री के तौर पर पहला बजट पेश किया था, तो विपक्ष ने स्वाभाविक तौर से आलोचना की। नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने भी बजट की धज्जियाँ उड़ायीं। मनमोहन आहत हो गये, फौरन नरसिंह राव के पास पहुँचे और इस्तीफे की पेशकश कर डाली। राव ने वाजपेयी को फोन किया। वाजपेयी ने मनमोहन को फोन पर समझाया था कि सियासत में तो यह आम बात है। सत्ता पक्ष के कामकाज को आलोचना के कठघरे में खड़ा करना विपक्ष का राजधर्म है। यह सब तो चलता रहता है, आप बने रहिए, आपकी जरूरत है। एक छोटी सी बात पर अपना इस्तीफा फेंकने वाले मनमोहन आखिर पाँच साल (दूसरा कार्यकाल-2009-2014) तक लगातार बेइज्जत होने के बाद भी कुर्सी से चिपके क्यों रह गये? क्या इतिहास इस सवाल का उत्तर नहीं खोजेगा?
(देश मंथन, 08 मई 2014)