डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
जो काम केंद्र सरकार को करना चाहिए, उसे हमारा सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है। उसने केंद्र सरकार को सवा महीने की मोहलत दी है और उससे कहा है कि इस अवधि में या तो दिल्ली की प्रादेशिक सरकार गठित कीजिए या विधानसभा भंग कीजिए।
दिल्ली की जनता को नयी विधानसभा चुनने दीजिए ताकि नयी सरकार बन सके। इस समय दिल्ली के तीनों प्रमुख दलों-भाजपा, आप पार्टी और कांग्रेस- को यह विश्वास नहीं है कि यदि नये चुनाव हुए तो उन्हें स्पष्ट बहुमत मिल जायेगा। कांग्रेस तो अभी मरणासन्न अवस्था में है, ‘आप’ की दुर्गति लोकसभा चुनाव में जमकर हो ली और भाजपा का जो रंग लोकसभा चुनाव में चमचमा रहा था, उसकी चमक भी घटती जा रही है। इसीलिए सभी विधायक तहे-दिल से चाहते हैं कि जैसा चल रहा है, चलता रहे। सबको तनखा और भत्ते मिलते रहें। सबका रुतबा कायम है ही। और जहाँ तक सरकार का सवाल है, उप-राज्यपाल नजीब जंग उसे किसी भी मुख्यमंत्री से बेहतर चला ही रहे हैं।
‘आप’ पार्टी बधाई की पात्र है कि उसने विधानसभा भंग करने के लिए याचिका लगायी। उसने इतना साहस तो किया। उसके पास खोने के लिए क्या है? यदि उसकी 28 से घटकर 10 सीटें भी रह जायें तो भी वह फायदे में ही रहेगी। संसदीय चुनाव में डाॅ. आनंदकुमार, राजमोहन गांधी और योगेंद्र यादव जैसे उत्कृष्ट कोटि के उम्मीदवार भी ‘आप’ के टिकिट पर जीत नहीं सके और पंजाब को छोड़ दे तो पूरे देश में शून्यता को प्राप्त हुई इस पार्टी से यही उम्मीद की जाती है कि वह खतरा मोल ले ले। ‘आप’ की इस याचिका ने शेष दोनों दलों के पसीने छुड़ा दिए हैं। क्या मालूम अगले दो-तीन माह में राजनीति ऐसा पल्टा खा जाये कि ‘आप’ को 40 से भी ज्यादा सीटें मिल जायें। जो भी हो, चुनाव तो होना ही चाहिए। तीनों दलों का आपस में जैसा कटु संबंध रहा है, यदि उनमें से कोई दो मिलकर सरकार बना भी लें तो वह कितने दिन चलेगी?
पिछले लगभग छह माह से दिल्ली का शासन और प्रशासन अधर में लटका हुआ है। नेतागण की अकर्मण्यता क्या सिद्ध कर रही है? क्या यह नहीं कि उनके बिना भी राज-काज मजे से चल सकता है? यह भाव किसी भी लोकतंत्र के लिए प्राणलेवा है। जो बात दिल्ली पर लागू हो रही है, वह पूरे देश पर भी लागू क्यों नहीं हो सकती? सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला तो अच्छा दिया है लेकिन उसने इस मुद्दे पर जोर देने की बजाय विधायकों के वेतन और भत्तों पर खर्च होनेवाले जनता के पैसे पर जोर दिया है। यदि वे वेतन और भत्ते न लें तो क्या उनकी अकर्मण्यता सही मान ली जायेगी? लोकतंत्र के इस खतरे पर उंगली रखने के लिए चाहे एक कमजोर तर्क का इस्तेमाल किया गया हो लेकिन इस फैसले से गाड़ी या तो इस पार होगी या उस पार!
(देश मंथन, 07 अगस्त 2014)