क्या नेहरू ने चीन की मदद की सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने में?

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राजीव रंजन झा : 

वित्त मंत्री अरुण जेटली के एक बयान से यह विवाद खड़ा हो गया है कि क्या चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मदद की थी? 

गुरुवार 14 मार्च 2019 को अरुण जेटली ने कई ट्वीट करके चीन और कश्मीर के संबंध में नेहरू की नीतियों पर प्रहार किये। उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, “कश्मीर और चीन, दोनों को लेकर सबसे मूल गलतियाँ एक ही व्यक्ति ने की थीं।” उन्होंने नेहरू की ओर से 2 अगस्त 1955 को मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे एक पत्र के इस हिस्से को उद्धृत किया, “अनौपचारिक रूप से, अमेरिका ने ऐसे सुझाव दिये हैं कि चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना लेना चाहिए, लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं लेना चाहिए, और भारत को सुरक्षा परिषद में जगह मिलनी चाहिए। ..हम बेशक इस सुझाव को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इसका मतलब होगा चीन से संबंध बिगाड़ लेना और यह चीन जैसे महान देश के लिए बहुत अनुचित होगा कि उसे सुरक्षा परिषद में जगह नहीं मिले।”

इसके आगे जेटली ने राहुल गांधी पर तंज कसा, “क्या कांग्रेस अध्यक्ष बतायेंगे कि मूल पाप करने वाला कौन था?”

जेटली की इन टिप्पणियों के जवाब में ऑल इंडिया प्रोफेशनल्स कांग्रेस (एआईपीसी) की बेंगलोर नॉर्थ इकाई के ट्विटर हैंडल से लिखा गया, “1945 में संयुक्त राष्ट्र के गठन के साथ ही चीन सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में शामिल हो गया था। आपकी जानकारी के लिए, भारत को स्वाधीनता 1947 में मिली थी। 1971 में नेहरू की मृत्यु के बाद सभी गुटनिरपेक्ष देशों पीआरसी (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) को स्थायी सदस्य बनाने के पक्ष में मतदान किया था।”

यह सारी बहस इसलिए शुरू हुई, क्योंकि जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ओर से वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने के भारत के प्रयास को चीन ने अपने वीटो अधिकार का उपयोग करके विफल कर दिया। इसके बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य और सोशल मीडिया पर यह बात तेजी से उभरने लगी कि आखिर चीन को नेहरू की गलत नीति के कारण ही सुरक्षा परिषद में जगह मिली थी। 

क्या 1945 से चीन सदस्य है सुरक्षा परिषद का?

तथ्यों की नजर से देखें तो यह सही है कि 1945 में संयुक्त राष्ट्र बनने के साथ ही चीन सुरक्षा परिषद का सदस्य बन गया था, लेकिन तब के चीन और आज के चीन में अंतर है। तब चीन में साम्यवादी क्रांति नहीं हुई थी। 1949 में साम्यवादी क्रांति होने के बाद चीन के दो हिस्से बन गये – एक रिपब्लिक ऑफ चाइना, जिसे अब सामान्य रूप से ताइवान कहा जाता है। दूसरा हिस्सा साम्यवादी चीन का था, जिसका औपचारिक नाम पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) है। जब साम्यवादी चीन बना तो उसे संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सदस्यता भी नहीं मिली, खास तौर पर अमेरिकी विरोध के कारण। आज जब हम चीन कहते हैं, तो इसका मतलब साम्यवादी चीन या पीआरसी ही होता है। इसलिए 1945 में पीआरसी नहीं, बल्कि अविभाजित चीन सुरक्षा परिषद का सदस्य था। विभाजन के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ताइवान ही सुरक्षा परिषद में बना रहा। दूसरी ओर चीन संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पर अपना दावा करता रहा। उसे आखिरकार यह सदस्यता हासिल हुई 1971 में। सुरक्षा परिषद के संबंध में एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में लिखा गया है, “स्थायी सदस्यों में, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने 1971 में रिपब्लिक ऑफ चाइना की जगह ले ली।”

यानी यह स्पष्ट है कि 1950 और 1960 के दशक में जब नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे, उस समय चीन को सुरक्षा परिषद की सदस्यता मिलने का मसला वैश्विक राजनय के मंच पर प्रमुखता के साथ चल रहा था। 1950 के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीतयुद्ध भी जारी था और तब काफी समय तक सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद की बैठकों का बहिष्कार भी कर रखा था। 

क्या भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की पेशकश हुई थी?

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का प्रस्ताव मिला था, जिसे नेहरू ने ठुकरा दिया? दूसरा यह कि क्या नेहरू ने चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिये जाने की वकालत की थी? इस बारे में स्वयं नेहरू के दो दस्तावेज उपलब्ध हैं। लोकसभा में डॉ. जे. एन. पारिख ने यह सवाल उठाया था कि क्या भारत ने सुरक्षा परिषद की सदस्यता का अनौपचारिक प्रस्ताव ठुकराया है। इसके जवाब में 27 सितंबर 1955 को नेहरू ने लोकसभा में कहा था, “इस तरह का कोई औपचारिक या अनौपचारिक प्रस्ताव नहीं मिला है। इसके बारे में प्रेस में कुछ अस्पष्ट संदर्भ आये हैं, जिनका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है।” अपने इसी जवाब में नेहरू ने आगे और स्पष्ट किया, “भारत को सदस्यता (सुरक्षा परिषद की) प्रस्तावित किये जाने और भारत द्वारा उसे नकारे जाने का कोई प्रश्न नहीं है।”

(संदर्भ – https://www.thehindu.com/news/national/jawaharlal-nehru-on-permanent-unsc-membership-no-question-of-a-seat-being-offered-and-india-declining-it/article26536197.ece)

लोकसभा में कही गयी बात प्रामाणिक मानी जाती है। लेकिन लोकसभा में दिये गये इस वक्तव्य से पिछले महीने ही ने स्वयं नेहरू ने ही 2 अगस्त 1955 को मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्र में कुछ और कहा था। उनका यह पत्र लेटर्स फॉर ए नेशन : फ्रॉम जवाहरलाल नेहरू टू हिज चीफ मिनिस्टर्स 1947-1963 (Letters for a Nation: From Jawaharlal Nehru to His Chief Ministers 1947-1963) नाम से प्रकाशित संकलन में छपा है। 

इसमें नेहरू ने लिखा है, “Informally, suggestions have been made by the United States that China should be taken into the United Nations but not in the Security Council, and that India should take her place in the Security Council. We cannot of course accept this as it means falling out with China and it would be very unfair for a great country like China not to be in the Security Council. We have, therefore, made it clear to those who suggested this that we cannot agree to this suggestion. We have even gone a little further and said that India is not anxious to enter the Security Council at this stage, even though as a great country she ought to be there. The first step to be taken is for China to take her rightful place and then the question of India might be considered separately.”

इसका हिंदी अनुवाद यह होगा, “अनौपचारिक रूप से, अमेरिका ने ऐसे सुझाव दिये हैं कि चीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना लेना चाहिए, लेकिन सुरक्षा परिषद में नहीं लेना चाहिए, और भारत को सुरक्षा परिषद में जगह मिलनी चाहिए। हम बेशक इस सुझाव को स्वीकार नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इसका मतलब होगा चीन से संबंध बिगाड़ लेना और यह चीन जैसे महान देश के लिए बहुत अनुचित होगा कि उसे सुरक्षा परिषद में जगह नहीं मिले। इसलिए हमने ऐसा सुझाव देने वालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव पर सहमत नहीं हो सकते हैं। हमने इससे आगे जाकर यह भी कहा है कि भारत इस समय सुरक्षा परिषद में प्रवेश करने के लिए व्यग्र नहीं है, भले ही एक महान देश के रूप में इसे वहाँ होना चाहिए। पहला कदम यह उठाया जाना चाहिए कि चीन को उसका न्यायसंगत स्थान मिले और उसके बाद भारत के सवाल पर अलग से विचार किया जा सकता है।”

ऊपर उद्धृत अंश की अंतिम पंक्ति अगर चीन के राष्ट्राध्यक्ष की ओर से कहे गये होते तो यह उनकी दृष्टि से तार्किक होता। लेकिन भारत के प्रधानमंत्री ने ऐसा कहा था, यह आश्चर्यचकित करने वाली ही बात है। यहाँ स्वयं नेहरू के शब्दों में यह बात स्पष्ट है कि उन्होंने भारत के सुरक्षा परिषद में शामिल होने का मौका ठुकरा कर यह कहा था कि पहले यह मौका चीन को दे दिया जाये।

क्या नेहरू ने लोकसभा में झूठ बोला?

अब सवाल उठता है कि नेहरू के ही दो वक्तव्यों में भारी विरोधाभास है। मुख्यमंत्रियों के नाम लिखे पत्र में वे साफ कहते हैं कि अनौपचारिक रूप से अमेरिका ने ऐसे सुझाव दिये हैं कि चीन को नहीं बल्कि भारत को सुरक्षा परिषद में जगह मिलनी चाहिए। 2 अगस्त 1955 को यह पत्र लिखने के 56 दिनों बाद लोकसभा में दिये गये बयान में वे कहते हैं कि इस तरह का कोई औपचारिक या अनौपचारिक प्रस्ताव नहीं मिला है। मुख्यमंत्रियों के नाम पत्र में वे कहते हैं कि हमने ऐसा सुझाव देने वालों को स्पष्ट कर दिया है कि हम इस सुझाव पर सहमत नहीं हो सकते हैं। लेकिन लोकसभा में अपने जवाब में वे कहते हैं कि भारत को सदस्यता (सुरक्षा परिषद की) प्रस्तावित किये जाने और भारत द्वारा उसे नकारे जाने का कोई प्रश्न नहीं है। निश्चित रूप से दोनों में से किसी एक जगह तो नेहरू ने गलत दावा किया, झूठ बोला। 

इस विषय पर कुछ आलेखों में यह भी कहा गया है कि 1955 में भारत को सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने का प्रस्ताव सोवियत संघ की ओर से मिला था। सर्वपल्ली गोपाल ने बायोग्राफी ऑफ नेहरू (1979 में प्रकाशित) में लिखा है, “उन्होंने (नेहरू) भारत को सुरक्षा परिषद का छठा स्थायी सदस्य बनाने का प्रस्ताव रखने की सोवियत संघ की पेशकश को ठुकरा दिया और इस बात पर जोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र में चीन को प्रवेश दिलाने को प्राथमिकता दी जाये।”

ऐसा भी बताया जाता है कि अमेरिका की ओर से अगस्त 1950 में ही इस तरह का प्रस्ताव भारत को मिला था। अगस्त 1950 में नेहरू की बहन और अमेरिका में भारत की राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित ने नेहरू को लिखे पत्र में बताया था कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय में सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से ताइवानी चीन को हटा कर भारत को वहाँ बिठाने पर विचार चल रहा है। विजय लक्ष्मी पंडित ने नेहरू को सूचित किया था कि उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्रालय को इस बारे में धीमी गति से चलने के लिए कह दिया है, क्योंकि “भारत में इसका गर्मजोशी के साथ स्वागत नहीं किया जायेगा।”

सत्याग्रह वेबसाइट में छपे एक आलेख के अनुसार विजयलक्ष्मी पंडित का यह पत्र और 30 अगस्त 1950 को जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया उसका उत्तर कुछ ही समय पहले नयी दिल्ली के ‘नेहरू स्मृति संग्रहालय एवं पुस्तकालय’ (एमएमएमएल) में मिले हैं। (संदर्भ : https://satyagrah.scroll.in/article/124317/unsc-india-permanent-seat-nehru-refusal-story) 

इसके अनुसार नेहरू ने जवाब में विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा, “हम इसका अनुमोदन नहीं करेंगे. हमारी दृष्टि से यह एक बुरी बात होगी. चीन का साफ़-साफ़ अपमान होगा और चीन तथा हमारे बीच एक तरह का बिगाड़ भी होगा. मैं समझता हूं कि (अमेरिकी) विदेश मंत्रालय इसे पसंद तो नहीं करेगा, किंतु इस रास्ते पर हम नहीं चलना चाहते. हम संयुक्त राष्ट्र में और सुरक्षा परिषद में चीन की सदस्यता पर बल देते रहेंगे।” 

मगर अंतरराष्ट्रीय शांति की कामना करने वाले नेहरू के लिए प्राथमिक चिंता यह थी कि पीआरसी यानी साम्यवादी चीन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसका स्थान मिले। नेहरू अंतरराष्ट्रीय शांति चाहते थे, लेकिन इसके लिए वे भारत के हितों को कुर्बान करते हुए जिस चीन का समर्थन कर रहे थे, वह चीन भारत की ही पीठ में छुरा घोंपने की तैयारी कर रहा था। 

साल 1955 में ही सोवियत संघ के प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने भी नेहरू के सामने भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का छठा स्थायी सदस्य बनाने की चर्चा छेड़ी थी, जिसे नेहरू ने वहीं नकार दिया। इसका जिक्र “सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू” में मिलता है। बुल्गानिन के प्रस्ताव पर भी नेहरू की प्रतिक्रिया थी, “बुल्गानिन शायद जानते हैं कि अमेरिका में कुछ लोग सुरक्षा परिषद में चीन की सीट भारत को दिये जाने का सुझाव दे रहे हैं। इससे हमारे और चीन के बीच खटपट होगी। हम इसके बिल्कुल विरुद्ध हैं।”

यानी 1950 के दशक में एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ सोवियत संघ दोनों ने समय-समय पर भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के बारे में प्रस्ताव दिये। लेकिन “पहले चीन, पहले चीन” का राग अलाप कर नेहरू ने दोनों के प्रस्ताव ठुकरा दिये। कुछ लोग तर्क देंगे कि अमेरिका और सोवियत संघ अपने इन प्रस्तावों पर गंभीर नहीं थे। मगर जब भारत ही इन प्रस्तावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिख रहा था, तो अमेरिका या सोवियत संघ क्या करते फिर? चूँकि अमेरिका और सोवियत संघ दोनों की ओर से भारत को ऐसे सुझाव/प्रस्ताव मिले थे, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि इन दोनों में से कोई एक देश भारत की दावेदारी के विरुद्ध वीटो कर देता। 

विजय लक्ष्मी पंडित के साथ पत्राचार और बुल्गानिन के सुझाव पर नेहरू की प्रतिक्रिया से यह स्पष्ट होता है कि नेहरू ने अगस्त 1955 में मुख्यमंत्रियों के नाम पत्र में जो बात कही थी, वही सच के करीब थी। तो फिर क्या सितंबर 1955 में उन्होंने लोकसभा में जानते-बूझते झूठ बोला? एक प्रधानमंत्री का संसद में इस तरह एक महत्वपूर्ण विषय पर झूठ बोलना क्या संसद का अपमान नहीं था? इतिहास ही इस सवाल का जवाब देगा।

(देश मंथन, 15 मार्च 2019)

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