संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस बात के लिए काफी दबाव में है कि उसके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना या विरोध ज्यादा हो रहा है।
भाजपा मन्त्रियों और संगठन के नेताओं के इन दिनों काफी इंटरव्यू देखने को मिले, जिनमें उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका मंख है। खुद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि मीडिया एजेंडा सेट कर रहा है। इसी तरह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नाराजगी भी मीडिया से नजर आती है। उनसे एक एंकर ने पूछा कि कभी ऐसा लगा कि कुछ गलत हो गया, तो वे बोले कि तभी ऐसा लगता है जब आप लोगों को नहीं समझा पाते। जाहिर तौर पर दिल्ली की नई सरकार मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। जबकि यह आशा सिरे से गलत है।
सारे सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उनकी लोकप्रियता के समकक्ष भी कोई नहीं है और जनता की उम्मीदें अभी भी उनसे टूटी नहीं है। समस्या यह है कि भाजपा नेता उन लोगों से अपने पक्ष में सकारात्मक संवाद की उम्मीद कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से भाजपा और उसकी राजनीति के विरोधी हैं। वे मोदी विरोधी भी हैं, भाजपा और संघ के विरोधी भी हैं। वे आलोचक नहीं हैं, वे स्थितियों को तटस्थ व्याख्याकार नहीं हैं। उनका एक पक्ष है उससे वे कभी टस से मस नहीं हुए। ऐसे आग्रही विचारकों की निन्दा या विरोध को भाजपा को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। आज के टीवी दर्शक और अखबारों के पाठक बहुत समझदार हैं। वे इन आलोचनाओं के मंतव्य भी समझते हैं। टीवी पर भी रोज जो ड्रामा रचा जाता है बहस के नाम पर वह भी दर्शकों के लिए एक लीला ही है। पार्टियों के प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो शेष राजनीतिक विश्लेषक या बुद्धिजीवी जो टीवी पर बैठकर हिन्दुस्तान का मन बताते हैं उनके चेहरे देखकर कोई भी टीवी दर्शक यह जान जाता है कि वे क्या कहेंगें। इसी तरह नाम पढ़कर पाठक उनके लेख का निष्कर्ष समझ जाता है। वे वही लोग हैं जो चुनाव के पूर्व यह मानने को तैयार नहीं थे कि मोदी की कोई लहर है और भाजपा कभी सत्ता में भी आ सकती है। वे देश की दुदर्शा के दौर में भी यूपीए-तीन का इंतजार कर रहे थे। भाजपा उनके तमाम विश्वेषणों और लेखमालाओं व किन्तु-परन्तु के बाद भी चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेती है। उसके बाद ये सारे लोग यह बताने में लग गये कि भाजपा को देश में सिर्फ 31% वोट मिले हैं और मोदी को मिला समर्थन अधूरा है क्योंकि 69% वोट उनके विरूद्ध गिरे हैं।
भाजपा की दुविधा यह है कि वह इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग से सहानुभूति पाना चाहती है। आखिर यह क्यों जरूरी है। जबकि सच तो यह है यह वर्ग आज भी नरेन्द्र मोदी को दिल से प्रधान मन्त्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उन्हें इस जनादेश का लिहाज और उसके प्रति आस्था नहीं है। जनमत को वे नहीं मानते क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं। उनके मन का न हो तो सामने खड़े सत्य को भी झूठ करने की विधियाँ जानते हैं। ऐसे लोगों की सदाशयता आखिर भाजपा को क्यों चाहिए? आप देखें तो वे भाजपा के हर कदम के आलोचक हैं। कश्मीर का सवाल देखें। जिन्हें गिलानी और अतिवादियों के साथ मंच पर बैठने में संकोच नहीं वे आज वहां फहराये जा रहे पाकिस्तानी झंडों पीडित हैं। अगर कश्मीर में कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेस के साथ पीडीपी सरकार बनाती तो सेकुलर गिरोह को समस्या नहीं थी। किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो उन्हें डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की याद आने लगी। वे लिखने लगे कि 370 का क्या होगा? भाजपा अपने वादे से हट रही है। भाजपा अपने वादे से हटकर आपके स्टैंड पर आती है तो आप उसके विरोध में क्यों हैं? ऐसे जाने कितने विवाद रोज बनाए और खड़े किये जाते हैं। सरकार के अच्छे कामों पर एक शब्द नहीं। किसी साध्वी के बयान पर हंगामा। राजनीति का यह दौर भी अजब है। जहाँ प्रधान मन्त्री की सफलता भी एक बड़े वर्ग को दुखी कर रही है। उनके द्वारा विदेशों में जाकर किए जा सफल अनुबंधों और संपर्कों पर भी स्यापा व्याप्त है। यह सूचनाएं बताती हैं कि मोदी को आज भी दिल्ली वालों ने स्वीकार नहीं किया है। यह सोचना गजब है कि जब आडवानी जी का भाजपा संगठन पर खासा प्रभाव था तो इस सेकुलर खेमे के लिए अटल जी हीरो थे। जब मोदी आए तो उन्हें आडवानी जी की उपेक्षा खलने लगी। आज भाजपा के सफल पीढ़ीगत परिवर्तन को भी निशाना बनाया जा रहा है। मोदी के नेतृत्व में मिली असाधारण सफलताओं का भी छिद्रान्वेषण किया जा रहा है। यह कितना विचित्र है कि मोदी का वस्त्र चयन भी चर्चा का मुद्दा है। उनकी देहभाषा भी आलोचना के केंद्र में है। एक कद्दावर नेता को किस तरह डिक्टेटर साबित करने की कोशिशें हो रही हैं इसे देखना रोचक है।
ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को आलोचकों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वे आलोचक नहीं है बल्कि भाजपा और संघ परिवार के वैचारिक विरोधी हैं। इसीलिए मोदी जैसे कद्दावर नेता के विरूद्ध कभी वे अरविन्द केजरीवाल को मसीहा साबित करने लगते हैं तो कभी राहुल गाँधी को मसीहा बना देते हैं। उन्हें मोदी छोड़ कोई भी चलेगा। जनता में मोदी कुछ भी हासिल कर लें, अपने इन निंदकों की सदाशयता मोदी को कभी नहीं मिल सकती। इसलिए मीडिया में उपस्थित इन वैचारिक विरोधियों का सामना विचारों के माध्यम से भी करना चाहिए। इनकी सद्भावना हासिल करने का कोई भी प्रयास भाजपा को हास्य का ही पात्र बनायेगा। क्योंकि एक लोकतन्त्र में रहते हुए विरोध का अपना महत्व है। आलोचना का भी महत्व है। इसलिए इन प्रायोजित और तय आलोचनाओं से अलग मोदी और उनके शुभचिंतकों को यह पहचानने की जरूरत है कि इनमें कौन आलोचक हैं और कौन विरोधी।
आलोचकों की आलोचना को सुना जाना चाहिए और उनके सुझावों का स्वागत होना चाहिए, जबकि विरोधियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी करने लगेंगें। यह काम अपने समर्थकों से ही करवाइए, विरोधियों को उनके दुख के साथ अकेला छोड़ दीजिए। अपनी चिन्ताओं के केन्द्र में सिर्फ सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार को रखिए, आखिरी आदमी की पीड़ा को रखिए। क्योंकि अगर देश के लोग आपके साथ हैं, तो राजनीतिक विरोधियों को मौका नहीं मिलेगा। इसलिए विचलित होकर प्रतिक्रियाओं में समय नष्ट करने के बजाए निरंतर संवाद और ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ का भाव ही मोदी सरकार का एकमात्र मन्त्र होना चाहिए।
(देश मंथन 03 जून 2015)