डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
पिछले दस-बारह दिनों में पाकिस्तान में काफी हंगामा होता रहा, लेकिन उसके साथ-साथ मेरी बातचीत कई केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, पार्टी-नेताओं, राजदूतों और फौजी जनरलों से होती रही। पत्रकारों से तो लगातार संवाद बना ही रहता है।
दो-तीन संस्थानों में मेरे भाषण भी हुए, जहाँ अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कई जाने-माने विशेषज्ञ उपस्थित थे।
यहाँ नरेंद्र मोदी के बारे में सबसे ज्यादा सवाल मुझसे पूछे गये। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के लोगों का मोदी पर अभी तक विश्वास जमा नहीं है। वे असमंजस में हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि मोदी की पाकिस्तान नीति कैसी होगी। मियां नवाज शरीफ का भारत जाना और संतुष्ट होकर वापस लौटना तो ठीक है लेकिन आगे क्या होगा? क्या नवाज शरीफ और मोदी कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ सकेंगे? कुछ बड़े नेताओं की राय थी कि मोदी को अगले दो-तीन माह में ही पाकिस्तान की एक सद्भावना-यात्रा करनी चाहिए। मियां नवाज की भारत-यात्रा से जो नयी किरण फूटी है, उसे मंद नहीं पड़ने देना चाहिए। दोनों देशों के विदेश सचिव और वाणिज्य-सचिव तुरंत मिलें तो बात कुछ आगे बढ़े। मेरा सुझाव था कि दोनों देशों के सेनापति और गुप्तचरपति भी क्यों नहीं मिलें? उनके बीच ‘हॉटलाइन’ कायम क्यों न हो? दोनों देशों के बड़े व्यापारियों और उद्योगपतियों में भी सीधा संवाद क्यों न हो? वीजा और यात्रा-सुविधाएं आसान क्यों न की जाये?
मैंने सबसे पूछा कि अमेरिका की वापसी की वेला में भारत और पाकिस्तान वहाँ आपसी सहयोग क्यों नहीं करें? दोनों देश वहाँ की आतंरिक राजनीति में हस्तक्षेप न करें लेकिन उसकी सुरक्षा और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए संयुक्त प्रयास क्यों न करें? कुछ विशेषज्ञों की राय थी कि भारत को अफगानिस्तान से बिलकुल निकल जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ तो तालिबान का राज्य आने वाला है। कंधार और जलालाबाद के भारतीय दूतावास बंद हो जाने चाहिए, क्योंकि वहीं से पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में भारत ‘हस्तक्षेप’ करता है।
इन विशेषज्ञों ने इस ऐतिहासिक तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि जब भी काबुल में मजबूत पठान सरकार आती है तो वह डूरेंड लाइन को खत्म करने की बात करती है और पाकिस्तान के पेशावर पर अपना हक बताती है। यदि तालिबान आ गये तो वे भी यही क्यों नहीं करेंगे? और फिर आजकल पाकिस्तान की फौज और सरकार तो तालिबान के पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई है। वजीरिस्तान से आज तक साढ़े चार लाख लोग अपने मकान खाली करके बाहर निकल गये हैं। अब फौज तालिबान और दहशतगर्दों से आमने-सामने लड़ेगी। तो क्या अब भी उनमें इतनी हिम्मत बचेगी कि वे काबुल पर कब्जा कर सकेंगे?
(देश मंथन, 25 जून 2014)