डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
पिछले 40 साल में सत्ता का हस्तांतरण काबुल में कभी लोकतांत्रिक ढंग से नहीं हुआ। कभी खूनी तख्ता-पलट, कभी विदेशी हस्तक्षेप, कभी आंतरिक विद्रोह, कभी अराजकता- यही अफगान राजनीति का नजारा रहा है लेकिन इस बार ऐसा लग रहा था कि वहाँ भारत की तरह शांतिपूर्ण चुनाव होंगे और सत्ता का व्यवस्थित परिवर्तन होगा।
हामिद करजई के 13 साल बाद एक राष्ट्रपति को अफगान जनता विधिवत चुनेगी लेकिन ‘काणी के ब्याह में सौ-सौ जोखिम’ की कहावत यहां लागू हो रही है।
अप्रैल के पहले दौर में आठ उम्मीदवारों में से दो बचे थे, जिन्हें सबसे ज्यादा वोट मिले थे। ये थे, पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला और पूर्व वित्त मंत्री अशरफ गनी। अब्दुल्ला को 45 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि गनी को 31 प्रतिशत! अब जबकि इन दोनों उम्मीदवारों में आखरी दौर की टक्कर हुई तो गणित उलट गया। गनी आगे और अब्दुल्ला पीछे हो गये। गनी को 56 प्रतिशत और अब्दुल्ला को 43 प्रतिशत वोट मिले। अभी यह मोटा-मोटा नतीजा मालूम पड़ा है। अंतिम नतीजा 22 जुलाई को घोषित होगा।
अभी जो सूचनाएँ सामने आयी हैं, उन्हीं से काबुल में कोहराम मचा हुआ है। चुनाव के दौरान ही अब्दुल्ला ने शिकायत की थी कि दूर-दराज़ के कबाइली इलाकों में मतपेटियों में फर्जी मतपत्र ठूंसे जा रहे हैं। उन्होंने अफगान चुनाव आयोग के एक उच्च अधिकारी को उक्त आदेश देते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया। उसकी बातचीत को टेप कर लिया और उसे टीवी चैनलों पर चलवा दिया। बहुत थू थू हुई। उस अधिकारी ने अपना दोष स्वीकार किया और अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अब्दुल्ला ने 2009 में भी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था और करजई पर धांधली का आरोप लगाते हुए खुद को चुनाव-प्रक्रिया से अलग कर लिया था। इस बार भी उनका आरोप है कि इस धांधली के लिए भी करजई जिम्मेदार है। मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी माना है कि थोड़ी-बहुत धांधली तो हुई है। अब्दुल्ला का प्रश्न है कि पहले दौर में 70 लाख वोट पड़े थे, अब इस दूसरे दौर में 80 लाख वोट कहाँ से आ गये? 10 लाख घटने थे। ये 10 लाख बढ़ कैसे गये?
गनी की तरफ से इसके कई कारण बताये जाते हैं। उनका कहना है कि पठानों ने थोकबंद वोट किया है। इसके अलावा उनके सहयात्री दोस्तम के कारण ‘हजारा’ लोगों ने भी थोकबंद वोट दिया है। गनी की पीठ पर अमेरिका का हाथ बताया जाता है। अब्दुल्ला के पिता तो पठान थे लेकिन मां ताजिक थीं। पठान उन्हें फारसीभाषी ताजिकों का ही नेता मानते हैं। पठान लोग नहीं चाहते कि वे किसी ताजिक को अपना नेता मानें।
अब अब्दुल्ला के हजारों समर्थकों ने करजई के चित्र और पोस्टर फाड़ दिए हैं। वे काबुल की सड़कों पर धरना दे रहे हैं। वे समानांतर सरकार बनाने की बात कर रहे हैं। अमेरिकी सरकार इसे गलत बता रही है। वह अशरफ गनी के पक्ष में झुकती नजर आ रही है। या तो अब्दुल्ला मान जायेंगे या फिर अफगानिस्तान में एक नये गृहयुद्ध की शुरुआत हो जायेगी। इस वर्ष के अंत में होनेवाली अमेरिकी वापसी काफी डरावनी सिद्ध होगी। भारत और पाक के लिए यह विशेष चिंता का कारण है।
(देश मंथन, 12 जुलाई 2014)