रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
किसी भी लोकतंत्र की प्रतिनिधि संस्था में विपक्ष और उसके नेता की भूमिका भी साफ साफ होनी चाहिए। मौजूदा लोकसभा के संदर्भ में नेता विपक्ष को लेकर जो विवाद हो रहा है और उस पर जो लेख लिखे जा रहे हैं उन सभी को पढ़ते हुए यही लग रहा है कि नेता विपक्ष को लेकर स्पष्ट व्याख्या नहीं है।
इन लेखों की एक विचित्र प्रवृत्ति है। संविधान विशेषज्ञ के नाम पर जो लोग लिख रहे हैं वो धाराओं और परंपराओं की व्याख्या एक दल के हित में और एक के खिलाफ कर रहे हैं। परंपरा और धारायें अंतिम नहीं होतीं। बात नीयत की होती है। अगर पहले नहीं हुआ या नहीं होने दिया गया तो क्या यही एक आधार बनता है कि इस बार भी न हो क्योंकि हिसाब चुकाना है। फिर हिसाब चुकाना ही किसी जीत हार का लक्ष्य है तो बार बार लोकतंत्र की दुहाई क्यों।
आखिर बहुमत से लबालब किसी सरकार को अपने सामने नेता विपक्ष से क्या दिक्कत हो सकती है। कांग्रेस ने जरूर 1952 से लेकर 1969 तक नेता विपक्ष नहीं दिये। जवाहर लाल नेहरू ने नहीं दिये। इन विशेषज्ञों ने यह नहीं बताया कि अब तो सिर्फ विवादों के संदर्भ में जिक्रित होने वाले नेहरू और पटेल के बीच इस मुद्दे पर कोई विवाद हुआ था या नहीं। संविधान सभा में कोई बहस हुई थी या नहीं। इंदिरा गांधी ने भी वही किया। विपक्ष को मान्यता नहीं दी। राजीव गांधी ने भी चार सौ चार सीटें लाकर तीस सीटों वाली टीडीपी के नेता को नेता विपक्ष की मान्यता नहीं दी। लोकसभा के कुछ कार्यकाल तो नेता विपक्ष के बिना ही गुजरा। सुभाष सी कश्यप और ए सूर्यप्रकाश जी जब ये सब उदाहरण देते हैं तो ऐसे पेश करते हैं जैसे कांग्रेस ने लोकतांत्रिक भावना का मान नहीं रखा। लेकिन मोदी सरकार को भी यही करने की सलाह देते वक्त कहते हैं कि स्पीकर के पास दिशा निर्देश की धारा 121 के तहत किसी पार्टी के नेता को नेता विपक्ष की मान्यता नहीं देनी चाहिए जिसके पास कोरम यानी सदस्य संख्या के 10% के बराबर संख्या न हो। तो फिर वे कांग्रेस को दोषी क्यों बता रहे हैं। यह क्यों नहीं लिखते कि कांग्रेस ने भी स्पीकर की उसी धारा के तहत नेता विपक्ष नहीं दिया।
इस विवाद को समझने के लिए जिन धाराओं या कानूनों का जिक्र किया है उन्हें खुद से देखना समझना चाहिए। कानून का अनुपालन उसकी व्याख्या भी सुनिश्चित करता है। हमारे पास तीन बातें हैं। 1977 का एक्ट जिसे द सैलरी ऐंड अलावंसेस आफ लीडर्स ऑफ आपोजिशन इन पार्लियामेंट, दूसरा है 1998 का एक्ट जिसका नाम है दि लीडर्स एंड चीफ व्हीफ्स आफ रेकगनाइज्ड पार्टीज ऐंड ग्रुप्स इन पार्लियामेंट। एक तीसरा है जिसे स्पीकर के दिशानिर्देश के तहत रखा गया है। जिसका शीर्षक है रेक्गनीशन आफ ऐंड फैसिलिटीज टू पार्लियामेंट्री पार्टीज ऐंड ग्रुप्स। पहले तो इन तीनों का टाइट जरूर पढ़े। नेता विपक्ष की बात सिर्फ 1977 के एक्ट में है। लेकिन आलोचक इसके साथ 1988 का एक्ट भी मिला देते हैं जबकि दोनों का एक दूसरे से कोई लेना देना नहीं है। 1998 का एक्ट यह कहता है कि विपक्ष की तरफ जो पार्टियां जीत कर आयीं हैं उनके नेता और उन पार्टियों के चीफ व्हीफ की मान्यता कैसे तय की जायेगी। इस एक्ट में नेता विपक्ष का नाम तक नहीं है। विभिन्न दलों या समूह के नेता का मतलब नेता विपक्ष नहीं होता है। नेता विपक्ष के होते हुए भी ये नेता और चीफ व्हीप्स हो सकते हैं। सेक्शन 121 में भी नेता विपक्ष की जिक्र तक नहीं है। सिर्फ संसदीय दलों और समूहों की मान्यता के बारे में जिक्र है। धारा 121 के सेक्शन सी का ही आलोचक लेखक जिक्र करते हैं जो कई अखबारों में छपा है। इस सी के पहले ए और बी भी हैं। जो दो बातें कहती हैं। ए-सदस्यों का समूह जो संसदीय दल बनाने का प्रस्ताव रखता है- उसे चुनाव के समय संसदीय कार्य के लिए अलग विचारधारा और कार्यक्रम की घोषणा कर देनी चाहिए जिसके आधार पर वो सदन में चुने गये हों। बी- सदन के भीतर और बाहर संगठन हो और तीसरा यानी सी- सदन की बैठक के लिए तय कोरम के बराबर तो कम से कम क्षमता होनी ही चाहिए जो सदन के सदस्यों की संख्या का 10% हो।
नेता विपक्ष न होने की दलील जो लोग दे रहे हैं वो इसी धारा 121 के सिर्फ सेक्शन सी का सहारा ले रहे हैं। जबकि प्रावधान में तीन शर्त हैं जो ए बी और सी के रूप में चिन्हित हैं। अब यह साफ नहीं है कि स्पीकर तीनों के आधार पर फैसला देंगी या सिर्फ तीसरी शर्त के आधार पर। अगर तीसरी शर्त ही मान्य है तो पहले के दो शर्त क्यों हैं। तीसरे नंबर की शर्त पहले नंबर पर क्यों नहीं है जो कोरम के बराबर सदस्य संख्या होने की बात करती है। हैरानी की बात है कि 1977 के एक्ट में नेता विपक्ष की कल्पना की जा रही है वो सैलरी और कैबिनेट मंत्री के दर्जा के संदर्भ में की जा रही है। हद है। क्या नेता विपक्ष सिर्फ इसी के लिए होता है। 1977 का एक्ट भी ब्रिटिश संसद के एक्ट पर आधारित है। वहाँ भी 1937 तक नेता विपक्ष नहीं था। इसी एक्ट के कई शब्द और वाक्य हु ब हू टीप लिए गये हैं। ब्रिटिश एक्ट सैलरी और सुविधा के लिए नहीं है बल्कि वो नेता विपक्ष को परिभाषित करने के लिए है कि कौन होगा। नेता विपक्ष का मतलब है सदन में सबसे अधिक संख्या वाले दल का नेता ही नेता विपक्ष का होगा।
हिन्दुस्तान में जब जनता पार्टी यह कानून बना रही थी तो इस पैरा को उठाकर सैलरी, सेक्रेटेरियट की बात जोड़ दी। हैरानी की बात है कि 1969 तक विपक्ष की मान्यता न होने की वजह से क्या पहली बार सरकार में आयी कांग्रेस विरोधी जनता पार्टी को नेता विपक्ष की भूमिका को स्पष्ट नहीं करना चाहिए था। हिन्दुस्तान की इतिहास में नेता विपक्ष पहली बार 1969 में बनते हैं जब सत्तारूढ़ कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस ओ नाम का एक दल विपक्ष में आता है जिसके नेता राम सुभग सिंह को नेता विपक्ष की मान्यता मिलती है। यह मान्यता 10% के हिसाब से ही दी जाती है।
यही दलील कांग्रेस की माँग के आलोचकों के लिए सबसे ठोस है। इसी 10% के कारण न पहले न बाद में नेता विपक्ष बनता है। मेरा सवाल है कि तबकी जनता पार्टी की सरकार जब 1977 का एक्ट बना रही थी तो उसके पास पूर्ववर्ती हालात का उदाहरण जरूर रहा होगा। उन्होंने भी 10% की शर्त को स्वीकार किया होगा। स्वीकार कांग्रेस ने भी किया होगा। वर्ना कांग्रेस को अपनी असहमती के दस्तावेज दिखाने चाहिए। कांग्रेस ने क्यों नहीं यह परंपरा तोड़ दी या तोड़ने की वकालत की तब जब वह सत्ता में थी। पर क्या हिन्दुस्तान की राजनीति हमेशा इसी बुनियाद पर होगी कि कांग्रेस ने क्या किया और बीजेपी ने क्या किया।
अब हमें यह देखना चाहिए कि समय के साथ राजनीति, उसकी मान्यताएँ, लोकतांत्रिक संस्थाएँ और उनके प्रमुखों की भूमिका कैसे बदलती है। आज नेता विपक्ष की भूमिका सिर्फ वही नहीं है जिसकी कल्पना 1952 में जी वी मावलंकर ने की थी। आज कई संवैधानिक दायित्वों की पूर्ति के लिए नेता विपक्ष को हिस्सेदार बनाया जा चुका है। चुनाव आयोग से लेकर लोकपाल जैसी संस्थाओं की नियुक्ति की प्रक्रिया में नेता विपक्ष को इसलिए शामिल किया गया है ताकि ऐसे पदों पर योग्य और सर्वमान्य व्यक्ति ही बिठायें जायें। इस भावना का उत्तरोत्तर विकास होता चला गया है। यह भावना इस शर्त पर आधारित नहीं है कि सदन के भीतर नेता विपक्ष की मान्यता के क्या प्रावधान हैं। अगर यह मान्यता बेकार है तो उसी एक्ट में होना चाहिए था कि नेता विपक्ष न होने पर सरकार इन प्रमुखों को वैसे ही चुन लेगी जैसे पहले चुनती रही थी।
प्राइम टाइम में ए सूर्यप्रकाश जी और सुभाष कश्यप ने इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में कहा है कि सरकार को नियुक्तियों में नेता विपक्ष के होने का प्रावधान बदल देना चाहिए। क्या यह कदम गैर लोकतांत्रिक नहीं होगा। तब क्या फिर सरकार पर आरोप नहीं लगेंगे कि वो चुनाव आयोग का आयुक्त उसे ही बनाती है जिसे वो चाहती है। जैसा कांग्रेस व अन्य दलों की सरकारों के वक्त हुआ। फिर पारदर्शिता और संस्थाओं की गरिमा की बहाली की बात करने वाली बीजेपी सरकार के पास क्या नैतिक औचित्य रह जायेगा। जिन संस्थाओं की नियुक्ति में नेता विपक्ष या विपक्ष का कोई नेता लिखा हो वहाँ तो ठीक है लेकिन जहाँ लिखा है वहां मिटाया जायेगा सिर्फ इसलिए कि बीजेपी को कांग्रेस से बदला लेना चाहिए।
सुभाष कश्यप और ए सूर्यप्रकाश सरकार से नए कानून बनाने की बात करते हैं। अब उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब सरकार संवैधानिक की नियुक्ति के लिए नेता विपक्ष की सहमति का प्रावधान हटाने के लिए संसद में लायेगी । फिर सुषमा या अरुण जेटली की उन बहसों और लेखों का क्या होगा जिनमें उन्होंने नेता विपक्ष की सहमति को किनारे कर नियुक्ति करने के आरोप लगाये थे। क्या यह कदम लोकतांत्रिक भावनाओं के खिलाफ नहीं होगा। क्या सबकुछ जायज होने के दो ही पैमाने हैं। एक कि कांग्रेस ने ऐसा किया और दूसरा कि हमें बहुमत हासिल है।
स्पीकर सुमित्रा महाजन का यह फैसला ऐतिहासिक होगा। क्या वो सदन में नेता विपक्ष को मान्यता देंगी। कायदे से सदन में नेता विपक्ष तो तब भी होना चाहिए जब विपक्ष के दो ही या एक ही सदस्य हों। जिस धारा 121 की बात हो रही है उसमें नेता विपक्ष या विपक्षी दल की बात ही नहीं कही गयी है। संसदीय दल की बात कही गई है। अब यह साफ नहीं है कि सरकार की किसी सहयोगी दल के पास कोरम के बराबर कोई संख्या न हो तो क्या स्पीकर उसके नेता और चीफ व्हीप को मान्यता देती हैं। ये दोनों पद सत्ता पक्ष के दलों के लिए भी तो होते हैं। बहरहाल शाहनवाज हुसैन की एक बात ठीक लगी कि अगर कोई भी सीट विपक्ष न मिले तो क्या विपक्ष सत्ता पक्ष से बनेगा। भारत जैसे महान और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का रट्टा मारने वाले हम लोगों का यह आत्मविश्वास होना चाहिए और अगर नहीं है तो इसका प्रावधान होना चाहिए कि तब ऐसी स्थिति में स्पीकर सदन के बाहर के किसी ऐसे एक व्यक्ति को मनोनीत करेंगी जो यह भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जैसे राज्य सभा में होता है।
अब रही बात कि सरकार क्या करेगी। बेवजह सरकार पर शक करना ठीक नहीं है। उसके पास न करने के पर्याप्त उदाहरण हैं पर उसके पास इसी सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दिया आश्वासन भी है जिसमें वो कहते हैं कि वो संख्या बल के हिसाब से नहीं चलेंगे सामूहिकता के हिसाब से चलेंगे। मोदी ने उसी भाषण में मल्लिकार्जुन खर्गे के कौरव वाले बयान का कोई कड़वा जवाब नहीं दिया बल्कि यही कहा कि परंपरा रही है जनभावना रही है कि पांडव हमेशा विजयी रहे। वो चाहते तो कौरव वाले बयान की धज्जी उड़ा सकते थे मगर उन्होंने पांडव की जीत की बात कही। इसलिए यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि सरकार नेता विपक्ष होने पर अपनी मौन सहमति नहीं देगी। देखते हैं क्या होता है।
(देश मंथन, 14 जून 2014)