बसपा नेताओं के पार्टी छोड़ने के सिलसिले की सियासत

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संदीप त्रिपाठी :

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव से 9 महीने पूर्व से ही इस बार सत्ता के लिए सबसे मजबूत दावेदार मानी जाने वाली मायावती की बहुजन समाज पार्टी में महत्वपूर्ण नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला शुरू हो गया है। सबसे पहले विधानसभा में विपक्ष के नेता और बसपा के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ी। फिर राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मंत्री आर.के. चौधरी ने पार्टी छोड़ी।

जुलाई में दस दिनों में दो बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। इनमें भदोही-जौनपुर में अच्छा रसूख रखने वाले और पूर्व विधायक रबींद्र नाथ त्रिपाठी और पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और पश्चिम बंगाल और झारखंड के प्रभारी रह चुके परमदेव यादव शामिल हैं।

सबका एक ही आरोप

इन सभी नेताओं ने पार्टी को अलविदा कहते वक्त मायावती पर एक ही आरोप लगाया कि वे अब दलित की नहीं, दौलत की बेटी हो गयी है। मौर्य, चौधरी के बाद जब त्रिपाठी ने पार्टी छोड़ी तो उन्होंने कहा कि मायावती ने पार्टी को चिटफंड कंपनी बना दिया है। परमदेव यादव ने भी कहा कि बसपा में टिकट से ले कर पद तक पैसे पर बिकते हैं और मायावती से मुलाकात के लिए भी पैसे देने पड़ते हैं। यह अलग बात है कि पार्टी छोड़ने वाले सभी नेता पहले बसपा में महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं या टिकट पा कर चुनाव लड़ चुके हैं। ये नेता मायावती पर आरोप तो लगा रहे हैं लेकिन यह नहीं बता रहे हैं कि पार्टी में रहते हुए टिकट पाने या पद लेने के लिए उन्होंने मायावती को कब-कब कितने पैसे दिये थे। किसी ने इन नेताओं पर कहा कि भी, पार्टनर! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?

पार्टी छोड़ने के कारण क्या हैं

सवाल यह है कि बसपा से तमाम कद्दावर नेता एक-एक कर क्यों पार्टी छोड़ रहे हैं? खास तौर पर उस स्थिति में जब कि आगामी विधानसभा चुनाव में बसपा के अव्वल रहने के कयास सर्वाधिक है। इसके पीछे तीन ही कारण नजर आ रहे हैं। एक कारण तो यह कि यह कयास ही गलत है कि विधानसभा चुनाव की दृष्टि से बसपा का दाँव सबसे मजबूत है। ऐसी स्थिति में पाँच साल सत्ता से बाहर रहने के बाद अब ये नेता एक बार फिर पाँच साल के लिए सत्ता से बाहर रह पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं।

दूसरा कारण यह हो सकता है कि पार्टी छोड़ने वाले नेताओं की पोल पार्टी के अंदर खुल गयी हो सकती है। ऐसी स्थिति में उन्हें लग रहा होगा कि बसपा के सत्ता में आने के बावजूद उन्हें सत्ता की मलाई नहीं मिलने जा रही है। इसलिए पार्टी छोड़ना ही उनके लिए मुनासिब कदम होगा। पार्टी छोड़ने वाले नेता जो आरोप मायावती पर लगा रहे हैं, उस बाबत वे इस आरोप के दूसरे पक्ष पर चुप हैं कि अब तक पार्टी में उन्होंने मजबूत स्थिति कैसे हासिल की।

अमित शाह का जादू

तीसरा कारण, और जो सबसे मजबूत कारण लग रहा है कि अमित शाह का जादू काम कर रहा है। भाजपा उत्तर प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक से सत्ता से बाहर है और इस दौरान पार्टी की स्थिति सूबे में काफी खराब हो चुकी थी। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में जब अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभार मिला और उन्होंने 80 में से 73 लोकसभा सीटें जीत कर सबको चौंका दिया। इसी आधार पर उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद भी मिला। दिल्ली और बिहार विधानसभा हारने के बाद उत्तर प्रदेश में अमित शाह की अग्निपरीक्षा है। प्रधानमंत्री भी इसी सूबे से सांसद हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाना भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए बहुत जरूरी है वरना सारा तिलिस्म भरभरा कर ढह जायेगा। इसी तथ्य से बसपा के नेताओं के पार्टी छोड़ने का रहस्य खुलता है। एक संभावना अभी यह है कि बसपा के तमाम और नेता पार्टी छोड़ेंगे। इनमें अधिकांश नेता वे होंगे जो किसी और पार्टी से निकल कर कभी बसपा में शामिल हुए थे। याद कीजिये, भाजपा के सत्ता से हटने के बाद बहुत से भाजपा नेता 2007 आते-आते बसपा में शामिल हो गये थे। इन सभी नेताओं पर भाजपा की नजर है। चुनाव नजदीक आने तक इनमें से एक-एक कर कई नेता बसपा छोड़ेंगे और सुर्खियाँ बनाते रहेंगे। इससे बसपा का प्रभामंडल छीजेगा और भाजपा मजबूत होती जायेगी। सपा तो पहले ही प्रतिष्ठान विरोधी रुझान और अपने किये से जूझ रही है।

बसपा को कितना नुकसान

इन नेताओं के बसपा छोड़ने से पार्टी को कितना नुकसान होगा, यह आकलन जरूरी है। मुझे आज भी नहीं लगता कि इससे पार्टी को बुनियादी वोट बैंक पर कोई खास असर होने जा रहा है। लेकिन उस वोट बैंक के साथ इन नेताओं का प्रभामंडल अलग होने से इन नेताओं के क्षेत्रों में बसपा पहले से कमजोर होगी। दूसरे मनोवैज्ञानिक रूप से भी बसपा कमजोर पड़ेगी, खुद बसपा नेताओं का आत्मविश्वास और मतदाताओं में बसपा की जीत के प्रति विश्वास पर असर पड़ेगा। ऐसे में भाजपा विरोधी मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा।

कुछ दिनों उत्तर प्रदेश के लिए एक सर्वेक्षण मीडिया में आया था जिसमें बताया गया था कि बसपा और भाजपा के बीच डेढ़-पौने दो प्रतिशत का मामूली फर्क रह गया है। यानी बसपा के कमजोर होने और इससे भाजपा के मजबूत होने से यह फर्क कम होता है या मिटता है। इस एक-डेढ़ प्रतिशत के स्विंग से भाजपा की चुनावी संभावनाएँ बहुत बढ़ जायेंगी। यही बसपा में टूट की वजह है।

(देश मंथन 12 जुलाई 2016)

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