पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :
बात गरीबी की हो लेकिन नीतियाँ रईसों को उड़ान देने वाली हों। बात गाँव की हो लेकिन नीतियाँ शहरों को बनाने की हो। तो फिर रास्ता भटकाव वाला नहीं झूठ वाला ही लगता है। ठीक वैसे, जैसे नेहरु ने रोटी कपड़ा मकान की बात की।
इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और अब नरेंद्र मोदी गरीबों के सपनों को पूरा करने के सपने दिखा रहे हैं। असल में देश के विकास के रास्ता कौन सा सही है, इसके मर्म को ना नेहरु ने पकड़ा और ना ही मोदी पकड़ पा रहे हैं।
रेलगाड़ी का सफर महँगा हुआ। तेल महँगा होना तय है। लोहा और सीमेंट महँगा हो चला है। सब्जी-फल की कीमतें बढ़ेंगी ही। और इन सब के बीच मानसून ने दो बरस लगातार धोखा दे दिया तो खुदकुशी करते लोगों की तादाद किसानों से आगे निकल कर गाँव और शहर दोनों को अपनी गिरफ्त में लेगी। तो फिर बदलाव आया कैसा।
यकीनन जनादेश बदलाव ले कर आया है। लेकिन इस बदलाव को दो अलग अलग दायरे में देखना जरूरी है। पहला मनमोहन सिंह के काल का खात्मा और दूसरा आजादी के बाद से देश को जिस रास्ते पर चलना चाहिए, उसे सही रास्ता ना दिखा पाने का अपराध।
नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह से मुक्ति दिलायी, यह जरूरी था। इसे बड़ा बदलाव कह सकते हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री थे, जो भारत के प्रधानमंत्री होकर भी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइन्दे के तौर पर ही 7 रेसकोर्स में थे। क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसे पहले पीएम बने, जिन्हे विश्व बैंक से प्रधानमंत्री रहते हुए पेंशन मिलती रही।
यानी पीएम की नौकरी करते हुए टोकन मनी के तौर पर देश से सिर्फ एक रुपये लेकर ईमानदार पीएम होने का तमगा लगाना हो या फिर परमाणु संधि के जरिये दुनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा बनाने देने के लिए भारत को ऊर्जा शक्ति बनाने का ढोंग हो। हर हाल में मनमोहन सिंह देश की नुमाइन्दगी नहीं कर रहे थे बल्कि विश्व बाजार में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे।
जाहिर है नरेंद्र मोदी बदलाव के प्रतीक हैं, जो मनमोहन सिंह नहीं हो सकते। लेकिन यहाँ से शुरू होता है दूसरा सवाल जो आजादी के बाद नेहरु काल से लेकर शुरू हुए मोदी युग से जुड़ रहा है। और संयोग से नेहरु और मोदी के बीच फर्क सिर्फ इतना ही दिखायी दे रहा है कि भारत की गरीबी को ध्यान में रखकर नेहरु ने समाजवाद का छोंक लगाया था और नरेंद्र मोदी के रास्ते में उस आरएसएस का छोंक है जो भारत को अमेरिका बनाने के खिलाफ है।
लेकिन बाकी सब? दरअसल नेहरु यूरोपीय माडल से खासे प्रभावित थे। तो उन्होंने जिस मॉडल को अपनाया उसमें बर चीज बड़ी बननी ही थी। बड़े बांध। बड़े अस्पताल। बडे शिक्षण संस्थान। यानी सबकुछ बड़ा। चाहे भाखडा नांगल हो या एम्स या फिर आईआईटी। और जब बड़ा चाहिए तो दुनिया के बाजार से इन बड़ी चीजो को पूरा करने के लिये बड़ी मशीनें। बड़ी टेक्नॉलाजी। बड़ी शिक्षा भी चाहिए।
तो असर नेहरु के दौर से ही एक भारत में दो भारत के बनने का शुरू हो चुका था। इसीलिए गरीबी या गरीबों को लेकर सियासी नारे भी आजादी के तुरत बाद से गूँजते रहे और 16वीं लोकसभा में भी गूँज रहे हैं। लेकिन अब सवाल है कि मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, वह बदलाव का है। या फिर जनादेश ने तो कांग्रेस को रद्दी की टोकरी में डाल कर बदलाव किया लेकिन क्या जनादेश के बदलाव से देश का रास्ता भी बदलेगा। या बदलाव आयेगा, यह बता पाना मुश्किल इसलिए नहीं है क्योकि नेहरु ने जो गलती की उसे अत्यानुधिक तरीके से मोदी मॉडल अपना रहा है। सौ आधुनिकतम शहर। आईआईटी। आईआईएम। एम्स अस्पताल। बड़े बांध। विदेशी निवेश।
यानी हर गाँव को शहर बनाते हुए शहरों को उस चकाचौंध से जोड़ने का सपना जो आजादी के बाद बहुसंख्यक तबका अपने भीतर संजोये रहा है। जहाँ वह घर से निकले। गाँव की पगडंडियों को छोड़े। शहर में आये। वहीं पढ़े। राजधानी पहुँचे तो वहाँ नौकरी करे। फिर देश के महानगरो में कदम रखे। फिर दिल्ली या मुबंई होते हुए सात समंदर पार। यह सपना कोई आज का नहीं है।
लेकिन इस सपने में संघ की राष्ट्रीयता का छौंक लगने के बाद भी देश को सही रास्ता क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसे आरएसएस भी कभी समझ नहीं पायी और शायद प्रचारक से पीएम बने मोदी का संकट भी यही है कि जिस रास्ते वह चल निकले है उसमें गाँव कैसे बचेंगे, यह किसी को नहीं पता। पलायन कैसे रुकेगा इस पर कोई काम हो नहीं रहा है। सवा सौ करोड़ का देश एक सकारात्मक जनसंख्या के तौर पर काम करते हुए देश को बनाने संवारने लगे इस दिशा में कभी किसी ने सोचा नहीं।
पानी बचाने या ऊर्जा के विकल्पों को बनाने की दिशा में कभी सरकारों ने काम किया नहीं। बने हुए शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों को पनाह दिए हुए है उसे रोके कैसे या शहरों का विस्तार पानी, बिजली, सड़क की खपत के अनुसार ही हो इस पर कोई बात करने को तैयार नहीं है। तो फिर बदलाव का रास्ता है क्या। जरा सरलता से समझे तो हर गाँव के हर घर में साफ शौचालय से लेकर पानी निकासी और बायो गैस ऊर्जा से लेकर पर्यावरण संतुलन बनाने के दिशा में काम होना चाहिए।
तीन या चार पढ़े लिखे लोग हर गाँव को सही दिशा दे सकते है। देश में करीब 6 लाख 38 हजार गाँव हैं। तीस लाख से ज्यादा बारहवीं पास छात्रों को सरकार नौकरी भी दे सकती है और गाँव को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम भी उठा सकती है। फिर क्यों तालाब, बावडी से लेकर बारिश के पानी को जमा करने तक पर कोई काम नहीं हुआ।
जल संसाधन मंत्रालय का काम क्या है। पानी देने के राजनीतिक नारे से पहले पानी बचाने और सहेजने का पाठ कौन पढ़ायेगा। इसके सामानांतर कृषि विश्वविद्यालयों के जिन छात्रों को गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री मोदी गाँव भेजना चाहते हैं और लैब टू लैंड या यानी प्रयोगशाला से जमीन की बात कर किसानों को खेती का पाठ पढ़ाना चाहते हैं, उससे पहले जैविक खेती के रास्ते खोलने के लिये वातावरण क्यों नहीं बनाना चाहते।
किसान का जीवन फसल पर टिका है और फसल की कीमत अगर उत्पादन कीमत से कम होगी तो फिर हर मौसम में ज्यादा फसल का बोझ किसान पर क्यों नहीं आयेगा। खनन से लेकर तमाम बड़े प्रोजेक्ट जो पावर के हो या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के। उन्हें पूरा करने में टेक्नॉलीजी की जगह मानव श्रम क्यों नहीं लगाया जा सकता। जबकि मौजूदा वक्त में जितनी भी योजनाओं पर काम चल रहा है और जो योजनायें मोदी सरकार की प्राथमिकता है उनमें से 80% योजना की जमीन तो ग्रामीण बारत में है। इनमें भी 60% योजनायें आदिवासी बहुल इलाको में है। जहाँ देश के बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिक हाथ बेरोजगार हैं। क्या इन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता।
लातूर में चीन की टेक्नॉलीजी से आठ महीने में पावर प्रोजेक्ट लगा दिया गया। मशीने लायी गयी और लातूर में लाकर जोड़ दिया गया। लेकिन इसका फायदा किसे मिला जाहिर है उसी कारपोरेट को जिसने इसे लगाया। तो फिर गाँव गाँव तक जब बिजली पहुँचायी जायेगी तो वहा तक लगे खंभों का खर्च कौन उठायेगा।
निजी क्षेत्र के हाथ में पावर सेक्टर आ चुका है तो फिर खर्च कर वह वसूलेगी भी। तो महँगी बिजली गाँव वाले कैसे खरीदेंगे। और किसान महँगी बिजली कैसे खरीदेगा। अगर यह खरीद पायेंगे तो अनाज का समर्थन मूल्य तो सरकार को ही बढ़ाना होगा। यानी महँगे होते साधनों पर रोक लगाने का कोई विकास का माडल सरकार के पास नहीं है।
सबसे बड़ा सवाल यही है कि बदलाव के जनादेश के बाद क्या वाकई बदलाव की खुशबू देने की स्थिति में मोदी सरकार है । क्योंकि छोटे बांध। रहट से सिंचाई। रिक्शा और बैलगाड़ी। सरकारी स्कूल। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र। सौर ऊर्जा या बायो-गैस। सब कुछ खत्म कर जिस विकास माडल में सरकार समा रही है उस रास्ते पहाड़ियों से अब पानी झरने की तरह गिरते नहीं है। सड़कों पर साइकिल के लिए जगह नहीं।
बच्चों के खुले मैदानों की जगह कंप्यूटर गेम्स ने ले ली है। चलने वालों की पटरी पर चढ़ाई कर फोर व्हील गाड़ियाँ ओवर-टेक कर दौड़ने को तैयार है। और जिस पेट्रोल-डीजल पर विदेशी बाजार का कब्जा है उसका उपयोग ज्यादा से ज्यादा करने के लिए गाड़ियों को खरीदने की सुविधा ही देश में सबसे ज्यादा है। यानी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर बनने के लिए पैसा बनाने या रुपया कमाने की होड़ ही विकास मॉडल हो चला है।
तभी तो पहली बार बदलाव के पहले संकेत उसी बदलाव के जनादेश से निकले है जिससे बनी मोदी सरकार ने रेल बजट का इंतजार नहीं किया और प्रचारक से पीएम बने मोदी जी ने यह जानते समझते हुए यात्रियों का सफर 14% महँगा कर दिया कि भारत में रेलगाड़ी का सबसे ज्यादा उपयोग सबसे मजबूर-कमजोर तबका करता है। खत्म होते गाँवों, खत्म होती खेती के दौर में शहरों की तरफ पलायन करते लोग और कुछ कमाकर होली-दिवाली-ईद में माँ-बाप के पास लौटता भारत ही सबसे ज्यादा रेलगाड़ी में सफर करता है।
दूसरे नंबर पर धार्मिक तीर्थ स्थलों के दर्शन करने वाले और तीसरे नंबर पर विवाह उत्सव में शरीक होने वाले ही रेलगाड़ी में सफर सबसे ज्यादा संख्या में करते है। और जो भारत रेलगाड़ी से सस्ते में सफर के लिए बचा उस भारत को खत्म कर शहर बनाकर गाड़ी और पेट्रोल-डीजल पर निर्भर बनाने की कवायद भूमि सुधार के जरिए करने पर शहरी विकास मंत्रालय पहले दिन से ही लग चुका है।
यानी महँगाई पर रोक कैसे लगे इसकी जगह हर सुविधा देने और लेने की सोच विकसित होते भारत की अनकही कहानी हो चली है। इसके लिए हर घेरे में सत्तादारी बनने की ललक का नाम भारत है। तो गंगा साफ कैसे होगी जब सिस्टम मैला होगा। और सत्ता पाने के खातिर गरीबों के लिए जीयेंगे-मरेंगे का नारा लगाना ही आजाद भारत की फितरत होगी।
(देश मंथन, 23 जून 2014)