सुशांत झा, पत्रकार :
उन लोगों पर ताज्जुब होता है जो कहते हैं कि पीएम को बिहार में 40 सभाएँ नहीं करनी चाहिए। अरे भाई, इसका क्या मतलब कि जिस बच्चे को 12वीं में 99 फीसदी नंबर आये वो IIT की परीक्षा में दारू पीकर इक्जाम देने चला जाये? हद है! चुनाव है या फेसबुक पोस्ट कि कुछ भी लिख दिया? विपक्षी दलों के पास नेता नहीं है और जो हैं या तो वो जोकर किस्म के हैं या किसी आईलैंड पर तफरीह कर रहे हैं तो इसमें नरेंद्र मोदी का क्या दोष है? ये तो उस आदमी का बड़प्पन है कि सांढ का सींग पकड़कर मैदान में डटा हुआ है।
कल मोदी ने ठीक किया कि दादरी कांड और कालिख कांड पर खेद जता दिया नहीं तो इन लेखकों की पुरस्कार वापसी का “खेल” पूरे बिहार चुनाव तक चलता। इन लेखकों में से कोई ऐसा नहीं है जिसने पिछले 15 सालों में मोदी का विरोध न किया हो। ऐसे में वे कोई नया काम नहीं कर रहे थे। कल रामचंद्र गुहा और नसीरुद्दीन शाह ने ठीक कहा कि उन्हें पाकिस्तानी लेखक और दादरी कांड पर दुख तो है लेकिन वे पुरस्कार नहीं लौटाएंगे। बल्कि वे अपने लेखन से या नाटक के द्वारा प्रतिरोध दर्ज करेंगे। राम गुहा के कहने का ये भी आशय था कि इन लेखकों के लेखन में या तो दम नहीं है या उनके पास कोई बड़ा मंच नहीं है- इसलिए वे पुरस्कार लौटा रहे हैं! ये बढ़िया कटाक्ष था।
मोदी को अभी “दिल्ली” का तौर-तरीका थोड़ा सीखना होगा। दरअसल देश का अंग्रेजीदाँ और पश्चिमी रंग में रंगा कुलीन उन्हें अभी तक ‘अपना’ नहीं मान रहा है और विशेषाधिकार खोने की वजह से बुरी तरह भयांक्रांत है। वे वाजपेइयों, सहगलों और मुखर्जियों के खांचे में अभी तक फिट नहीं है। दूसरी बात, उन्होंने कल्चर या शिक्षा जैसे विभाग अपेक्षाकृत नौसिखिओं के हाथों सौंप रखा है जहाँ पर एक अरसे से वाम गिरोह या उनके यारों का कब्जा रहा है। वहाँ पर अरुण शौरी या स्वामी जैसे घुटे हुए लोगों की जरूरत थी। शायद मोदी ने किसी अज्ञात वजह से ऐसा न किया हो।
कुल मिलाकर पुरस्कार लौटाऊ नाटक मोदी के लिए भी और देश की जनता से कटे हुए बुद्धिजीवियों के लिए भी अच्छा लर्निंग एक्सपेरियंस रहा। मोदी तो प्रेसर में आ गये लेकिन ये भी पता चला कि बुद्धिजीवियों के पक्ष में कितने लोग है और कैसे-कैसे लोगों को किन-किन वजहों से पुरस्कार मिल गया था, जिनमें से अधिकाँश को आम जनता जानती ही नहीं है। साथ ही ये भी कि किन बड़े लेखकों की अच्छी रचनाओं को पुरस्कृत ही नहीं किया गया।
कुल मिलाकर TRP और हेडलाइंस के हिसाब से पिछला सप्ताह ‘ज्यादातर’ नेहरु परिवार के “निष्ठावानों” के नाम रहा-इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। अब इन कवायदों का बिहार चुनाव पर क्या असर पड़ेगा वो एक महीना बाद विश्लेषित किया जायेगा।
(देश मंथन, 15 अक्तूबर 2015)