पश्चिम बंगाल के घटनाक्रम में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय पार्टी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में वापस चले गये। कांग्रेस से निकले, तृणमूल कांग्रेस बनायी। तृणमूल कांग्रेस से निकले, भारतीय जनता पार्टी में आये। भाजपा से निकले, फिर तृणमूल कांग्रेस में चले गये। तृणमूल कांग्रेस में उनका वापस जाना क्या बताता है तृणमूल कांग्रेस के लिए, भाजपा के लिए और सामान्य तौर पर राजनीति के लिए?
मुकुल राय तृणमूल कांग्रेस के संस्थापक नेताओं में थे और माना जाता है कि तृणमूल कांग्रेस का संगठन खड़ा करने में उनकी बड़ी भूमिका थी। तृणमूल कांग्रेस की राजनीतिक और चुनावी रणनीति बनाने में उनकी अहम भूमिका थी। भाजपा की नजर उन पर थी। वे तृणमूल कांग्रेस में असहज हुए। असहज क्यों हुए, तब हुए जब ममता बनर्जी ने अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को आगे बढ़ाना शुरू किया। उनको लग रहा था कि वे पार्टी में नंबर दो से नंबर तीन की हैसियत में चले गये, जो उनको मंजूर नहीं हुआ। भाजपा में उनको अवसर दिखा। लेफ्ट में जा नहीं सकते थे, कांग्रेस में जाने का कोई मतलब नहीं था जो स्थिति है पार्टी की। एक ही विकल्प था भारतीय जनता पार्टी का, तो 2017 में यानी 2016 के विधानसभा चुनाव के लगभग सवा-डेढ़ साल बाद सितंबर 2017 में वे भाजपा में शामिल हो गये। याद रखिए, 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद ही ममता बनर्जी ने अभिषेक बनर्जी को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में आगे बढ़ाना शुरू किया था। एक तो यह सबसे बड़ा कारण था। दूसरे, बहुत-से नेता जो कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के हैं, उनकी नजर इस बात पर भी रहती है कि वे अपने परिवार का, खास तौर से बेटे या बेटी का राजनीतिक भविष्य कैसे सुधारें।
तो मुकुल रॉय आ गये भाजपा में। याद रखना चाहिए कि मुकुल रॉय को इस हालत में भाजपा ने लिया जब वे नारदा और शारदा दोनों घोटालों में फँसे थे। नारदा स्टिंग ऑपरेशन था, जिस में नकद लेते हुए तृणमूल कांग्रेस के नेता दिखे था और शारदा चिटफंड घोटाला था। उन दोनों में उनका नाम था। चार साल भाजपा में रहे, लेकिन वह जाँच बंद नहीं हुई, जाँच अभी जारी है।
अब भाजपा ने उनको लिया और उनका उपयोग किया टीएमसी से लोगों को लाने में – उनके जो करीबी लोग थे, जिनके बारे में वे जानते थे कि ये असंतुष्ट हैं, या किसी वजह से इनको किनारे किया गया है तृणमूल कांग्रेस में। ऐसे लोगों को वे भाजपा में लेकर आये। बड़ी संख्या में लोग आये। केवल मुकुल रॉय ही नहीं लाये, और लोग भी थे। लेकिन मुकुल रॉय की बड़ी भूमिका थी और जाहिर है कि चूँकि वे टीएमसी में इतने बड़े पदों पर रहे थे, महासचिव रहे, केंद्र में मंत्री रहे, ममता बनर्जी के खास थे। ममता बनर्जी ने जब छोड़ा रेलवे मंत्रालय तो उसके बाद दिनेश त्रिवेदी बने, दिनेश त्रिवेदी से नाराज हुईं तो उनको हटा कर मुकुल रॉय को बनाया।
यह सब घटनाक्रम जानते हुए भी भाजपा ने उनको लिया, क्योंकि भाजपा के पास पश्चिम बंगाल में स्थानीय नेतृत्व नहीं था। जो नेतृत्व था, उनके जो सबसे बड़े नेता हैं दिलीप घोष जो प्रदेश अध्यक्ष भी हैं, वे भी चुनावी राजनीति के लिए नये हैं। भाजपा को ऐसे चेहरों की जरूरत थी, जिनकी वहाँ की राजनीति में पहचान हो, पकड़ हो। भले ही जनाधार हो या ना हो, वह एक अलग विषय था। जनाधार वाले लोग भी चाहिए, पर इस तरह के लोगों की भी राजनीति में जरूरत होती है।
एक कहावत है कि बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ से होय। तृणमूल कांग्रेस से भाजपा जिस तरह थोक में नेताओं को लेकर आयी और उनको उम्मीदवार बनाया, तुरंत टिकट दे दिया गया, उसका यही नतीजा होना था। हर पार्टी इनॉर्गेनिक रूप से अपना विस्तार करती है। एक ऑर्गेनिक होता है, एक इनॉर्गेनिक रूप होता है। ऑर्गेनिक यह कि आप अपना जनाधार धीरे-धीरे बढ़ाइए, संगठन बढ़ाइए, कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ाइए, स्थानीय स्तर पर नेता तैयार कीजिए। उसमें बड़ा लंबा समय लगता है। तो सभी पार्टियाँ करती हैं कि विस्तार को थोड़ा गति देने के लिए इनॉर्गेनिक ग्रोथ यानी दूसरे दलों से ले आती हैं। जैसे कॉर्पोरेट क्षेत्र में होता है कि कंपनी को बड़ा करने के लिए कई छोटी कंपनियों को खरीद लिया जाता है या उनको मिला लिया जाता है। उस तरह का काम राजनीतिक दल भी करते हैं।
एक समय 1960 के दशक में पूरी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी अशोक मेहता के नेतृत्व में चंद्रशेखर, कृष्णकांत जैसे बड़े जुझारू नेताओं के साथ कांग्रेस में मिल गयी थी। आज भी नवजोत सिंह सिद्धू जो पंजाब में कांग्रेस पार्टी की मुश्किल बने हुए हैं, वे भारतीय जनता पार्टी से आये हैं।
लेकिन कैडर वाली पार्टियों को निश्चित रूप से यह देखना चाहिए कि यह व्यक्ति हमारी विचारधारा से तालमेल बिठा सकता है कि नहीं? पहले तो नहीं था, होता तो पहले ही होता पार्टी में, लेकिन संभावना क्या है? उसकी सोच क्या है? वह सार्वजनिक रूप से जो बोलता है, वह अलग चीज है। जब वह जिस पार्टी में होगा उसी की भाषा बोलेगा, उसे जो कहा जायेगा वही बोलेगा। इसलिए उसको दरकिनार करके व्यक्तिगत रूप से उसकी सोच क्या है, विचारधारा क्या है, इन सब बातों को जाँचना जरूर चाहिए।
अब यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि मुकुल रॉय आये और चले गये। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका है। इसके बावजूद कि मुकुल रॉय अपनी जिंदगी में पहली बार चुनाव जीते हैं और चुनाव जीते है भाजपा के टिकट पर। इससे पहले न वे कभी विधानसभा चुनाव जीते, न लोकसभा का चुनाव जीते। राज्यसभा में उनको ममता बनर्जी ने भेजा था, उसी से वे मंत्री भी बने थे। वे चुनाव पहली बार जीते, लेकिन उनके लिए यह ज्यादा महत्वपूर्ण बात नहीं थी।
दो घटनाएँ और हुईं। जैसे उनको तृणमूल कांग्रेस में समस्या हुई अभिषेक बनर्जी के आगे आने से, उसे बहुत ज्यादा समस्या उनको हुई जब शुभेंदु अधिकारी उनसे आगे निकले गये भाजपा में। जब तृणमूल में थे मुकुल राय तब भी शुभेंदु अधिकारी को पसंद नहीं करते थे। पर शुभेंदु भी भाजपा में आ गये, उनको नंदीग्राम से टिकट मिला और उन्होंने ममता बनर्जी को हरा दिया। वे जनाधार वाले नेता हैं। ऐसे नेता की भाजपा को जरूरत थी, भाजपा ने उनको विपक्ष का नेता बना दिया विधानसभा में।
यह बात मुकुल रॉय के गले नहीं उतरी। उनके मन में आकांक्षा रही होगी कि अगर भाजपा जीतती है तो मेरा मुख्यमंत्री बनने का दावा होगा। भाजपा जीती नहीं तो उस दावे की तो बात छोड़ दीजिए। पर मुकुल रॉय इस बार विधानसभा का चुनाव जीत गये थे, और विधानसभा में उनको बैठना पड़ता शुभेंदु अधिकारी के पीछे। वे अपने को वरिष्ठ मानते हैं, ज्यादा बड़ा नेता मानते हैं और थे भी। तृणमूल कांग्रेस में थे और भाजपा में भी शुभेंदु अधिकारी की तुलना में बड़े थे। लेकिन शुभेंदु अधिकारी ने लंबी छलांग लगायी नंदीग्राम में ममता बनर्जी को हरा कर। एक तो यह बड़ा कारण था।
दूसरा कारण हुआ कि उनको अपने बेटे की राजनीति की चिंता है। उनके बेटे ने चुनाव लड़ा था विधानसभा का, पर वह चुनाव हार गया। उनको लगा कि अब उनके बेटे का भविष्य शायद भाजपा में उतना सुरक्षित नहीं है। उससे ज्यादा उनको बेटे को लगा कि वह तृणमूल कांग्रेस में रह कर ज्यादा सहज महसूस करेगा। इसलिए उसने पहले ही बयान देना शुरू कर दिया कि चुनी हुई सरकार की आलोचना नहीं होनी चाहिए।
(आपका अखबार यू-ट्यूब चैनल पर रखे गये विचारों की संक्षिप्त प्रस्तुति)
(देश मंथन, 15 जून 2021)