बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं

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राजीव रंजन झा :

मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होने का लेखा-जोखा हो, उनके जापान दौरे के आर्थिक-कूटनीतिक फलितार्थ हों या अभी-अभी सामने आये विकास दर के आँकड़े हों, इन सबमें एक बात समान रूप से निकल कर सामने आ रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन सबमें एक ही संकेत दे रहे हैं – मोहि कहाँ विश्राम। जब तक लोग किसी नयी योजना की घोषणा पर यह मीन-मेख निकालने में जुटे होते हैं कि इस पर काम हो भी सकता है या नहीं, तब तक उस योजना के अमल की नयी खबरें आ जाती हैं। 

स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से घोषित जन धन योजना को लोगों ने जरा समझना शुरू ही किया था कि दो हफ्ते के अंदर ही 28 अगस्त को प्रधानमंत्री ने इस योजना का विधिवत आरंभ भी कर दिया। उसी दिन पौने दो करोड़ खाते खुलने का नया रिकॉर्ड भी बन गया। ऐसी खबरें जरूर आयीं कि कहीं-कहीं बैंक अधिकारियों ने थोक ढंग से खाते खुलवाने के लिए कुछ शॉर्टकट तरीके अपनाने की कोशिशें कीं। लेकिन ऐसी कुछ घटनाओं से इस नये रिकॉर्ड की अहमियत खत्म नहीं होती। एक साफ संदेश गया है कि यह सरकार कुछ अलग ढंग से काम करती है। जितने समय में पहले सरकारी फाइलें एक टेबल से हिल कर दूसरी टेबल पर जाती थीं, उतने समय में यहाँ परिणाम दिखने शुरू हो जाती हैं। 

जब बुलेट ट्रेन की बात चली थी तो बहुत-से लोगों ने शुरुआत में कहा था कि घोषणापत्र में वादे करना आसान है, करके दिखाना मुश्किल। मगर अपने पहले ही बजट में मोदी सरकार ने इसकी घोषणा करके अपने इरादों का संकेत दे दिया। हालाँकि बुलेट ट्रेन प्राथमिकता होनी चाहिए या नहीं और वह तुलनात्मक रूप से भारत के लिए फायदेमंद है या नहीं, इस पर काफी लोग आश्वस्त नहीं हैं। मेरे मन में भी शंकाएँ हैं। लेकिन एक वादे को घोषणा में बदलना और उसके तुरंत बाद काम शुरू कर देना रायसीना हिल्स की कार्य-संस्कृति में आये बड़े बदलाव को दिखा रहा है। अपनी जापान यात्रा में नरेंद्र मोदी ने बुलेट ट्रेन की तकनीक के लिए समझौता निपटा लिया। कोई और सरकार इन 100 दिनों में तो एक नयी समिति बनाने के बारे में ही विचार कर रही होती।

ऐसा लगता है कि अपने जापान दौरे में नरेंद्र मोदी शायद भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र की एक प्रति साथ ले गये होंगे! तभी बुलेट ट्रेन के समझौते के साथ-साथ उन्होंने वाराणसी-क्योटो समझौता भी किया! हालाँकि कुछ लोगों की भौंहें इस पर भी टेढ़ी हैं। वे व्यंग्य में कह रहे हैं – हुँह, बड़े आये बनारस को क्योटो बनाने वाले! बनारस को बनारस ही रहने दें! 

लेकिन बनारस जैसा है, वैसा ही रहने देने पर साल भर बाद वे ही लोग ठेठ बनारसी अंदाज में पूछेंगे – का गुरु, का उखाड़ लेला! बनारस को क्योटो बनाने की जरूरत नहीं। लेकिन एक पुरातन शहर की सांस्कृतिक पहचान को बचाये रखते हुए आधुनिक विकास के रास्ते तलाशने में अगर क्योटो से कुछ सीखा जा सकता है, तो इसमें चिढ़ने वाली कौन-सी बात है? हम गंगा को माँ कहते हैं, लेकिन उसके पानी को इतना गंदा करके रखते हैं कि भक्ति भाव हटा दें तो किसी पाँव रखने में भी हिचक हो। ऐसे में अगर जापान से, या यूरोप के देशों से यह सीखा जा सके कि उद्योगों और बड़े शहरों के कचरे के बोझ से एक नदी को कैसे मुक्त किया जा सकता है, तो इसमें कैसा अहंकार?

मोदी जापान से अगले पाँच वर्षों में 2.10 लाख करोड़ रुपये के निवेश का वादा लेकर आ रहे हैं। जापान से हुए समझौतों के केंद्र में मुख्य रूप से भारत के बुनियादी ढाँचे का विकास है। मोदी की इस यात्रा की सफलता और दोनों देशों के बीच दिखी नयी गर्मजोशी के अपने कूटनीतिक संदेश भी हैं। ये संदेश हैं अमेरिका और चीन के लिए। इन दोनों देशों के कूटनीतिक हलकों में छटपटाहट दिखनी शुरू हो गयी है। अब भारत को इस छटपटाहट का इस्तेमाल इन दोनों देशों के साथ अपने मोलभाव में करना है। इतना स्पष्ट है कि मोदी जब अमेरिका की यात्रा पर जायेंगे तो भारत मजबूत मोलभाव करने की स्थिति में होगा। 

हालाँकि लोग जब मोदी सरकार के 100 दिनों का लेखा-जोखा करने बैठते हैं तो दो बातें सबसे पहले ध्यान में आती हैं – महँगाई और काला धन। इन दोनों मोर्चों पर मोदी सरकार कोई प्रत्यक्ष परिणाम अब तक नहीं दिखा पायी है। हालाँकि वित्त मंत्री अरुण जेटली दोहराते रहते हैं कि महँगाई पर नियंत्रण पाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। भाजपा के प्रवक्ता प्रतिशत के आँकड़े दे कर यह बताने की कोशिश करते हैं कि पिछले वर्षों की तुलना में इस बार महँगाई बढ़ने की गति कम रही है। लेकिन आम जनता गणित और सांख्यिकी नहीं समझती। वह केवल इतना देखती है कि बाजार जाने पर जेब कितनी हल्की हो रही है। 

समाज के निचले तबकों ने महँगाई की मार में कोई कमी न आते देख अपनी निराशा जताना शुरू कर दिया है। हाल में कभी टमाटर के दाम उछले तो कभी प्याज के। अब इनके दाम थोड़े नीचे आये तो सुनने को मिल रहा है कि आलू भी 30 के भाव बिकने लगा है। लोग 30 का प्याज तो फिर भी झेल सकते हैं, लेकिन 30 का आलू उनके लिए ज्यादा भारी है। 

अर्थव्यवस्था में सुधार और सरकार की कार्य-संस्कृति में बदलाव जैसी बातें समाज के बड़े हिस्से तक नहीं पहुँच पातीं। मोदी सरकार जिस लोकप्रियता की लहर पर सवार हो कर सत्ता में आयी है, उसे बचाये रखने के लिए जरूरी है कि वह आम लोगों को महँगाई से प्रत्यक्ष राहत दिलाये। आपने आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम में शामिल कर दिया, अच्छा किया। आपने जमाखोरी को गैर-जमानती अपराध बनाने का प्रस्ताव रखा है, अच्छा  है। फल-सब्जियों को एपीएमसी ऐक्ट से बाहर करने की बात हो रही है, अच्छा है। लेकिन इन सारी बातों का असर गली से गुजरते ठेले वाले की सब्जियों के दामों पर दिखना जरूरी है। उसके बिना सारे उपाय बेकार हैं। 

फेसबुक-ट्विटर जैसे लोक-माध्यमों पर लोगों ने काले धन को लेकर चुटकुले फैलाने भी शुरू कर दिये हैं। लोग बाबा रामदेव की तलाश कर रहे हैं, विदेश से वापस लाये गये काले धन में से अपना हिस्सा पाने के लिए! लेकिन इस हँसी-मजाक से अलग एक गंभीर प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में चल रही है। काले धन पर जो एसआईटी बनायी गयी है, उसकी कार्रवाई और तैयारियों के बारे में हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने भी संतोष जताया है। 

शायद यह पहला मौका होगा जब सर्वोच्च न्यायालय ने काले धन को लेकर होने वाली कार्रवाई पर संतोष जताया हो। यह अपने-आप में एक संयोग ही रहा है कि मोदी सरकार बनने के बाद इसका पहला बड़ा फैसला काले धन पर एसआईटी के गठन का ही था। हालाँकि इस गठन का श्रेय काफी हद तक सर्वोच्च न्यायालय को ही जाता है। लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा कि पिछली सरकार बार-बार अदालत की फटकार खा कर भी एसआईटी के गठन को टाल रही थी।

जहाँ तक अर्थव्यवस्था की बात है, अप्रैल-जून की पहली तिमाही में देश की विकास दर ने अप्रत्याशित ढंग से 5.7% का स्तर छू कर सुखद आश्चर्य दिया है। आप चाहें तो इसे मोदी सरकार की अच्छी किस्मत कह लें या इस सरकार से लोगों की उम्मीदों का असर, क्योंकि हकीकत तो यही है कि इस तिमाही के शुरू के दो महीने तो यूपीए सरकार के थे! लेकिन इस सरकार के कामकाज के असली नतीजे तो दूसरी तिमाही में ही दिखेंगे। पहली तिमाही में अरसे बाद पूँजी-निर्माण होता दिखा है, जो अर्थव्यवस्था में निवेश-चक्र सँभलने का संकेत है। लेकिन दूसरी तिमाही में यह रुझान जारी रहने के बाद ही इसे पुख्ता तौर पर मानना बेहतर होगा।

(देश मंथन, 11 सितंबर 2014)

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