अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
बताइए तो एक शरीफ आदमी को इतने-इतने साल जेल में रखना कहाँ तक मुनासिब है? जिन लोगों ने भी शहाबुद्दीन साहब की जमानत और रिहाई का रास्ता प्रशस्त किया, वे तमाम लोग संयुक्त रूप से अगले भारत रत्न के हकदार हैं। इनमें मैं जमानत देने वाले उन जज साहब की भी पैरवी कर रहा हूँ, न्याय का माथा ऊँचा करने में जिनके उल्लेखनीय योगदान की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा।
मुझे हमेशा हैरानी होती है कि हमारी न्याय व्यवस्था में कहीं कोई जिम्मेदारी तय ही नहीं है। जिस मामले में जिन सबूतों की बुनियाद पर निचली अदालत में कोई व्यक्ति गुनहगार साबित हो जाता है, उसी मामले में उन्ही सबूतों के रहते ऊपरी अदालत में वह व्यक्ति साफ बरी हो जाता है (शहाबुद्दीन के मामले में फिलहाल सिर्फ जमानत हुई है, जिसके फलस्वरूप, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1300 गाड़ियों का काफिला निकला है)। इसी तरह कई मामलों में निचली अदालत में जो लोग जिन सबूतों के आधार पर बरी हो जाते हैं, ऊपरी अदालत में उन्हीं सबूतों के आधार पर उन्हें सजा सुना दी जाती है।
इसका एक सीधा मतलब तो मुझे यह समझ आता है कि जिन मामलों में निचली और ऊपरी अदालतों के फ़ैसले बिल्कुल विपरीत होते हैं, उन मामलों में किसी एक जगह तो गड़बड़ी होती ही है- चाहे तो निचली अदालत में या फिर ऊपरी अदालत में। लेकिन हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इस गड़बड़ी की जाँच-पड़ताल करने और जिम्मेदारी तय करने की संभवतः कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है।
कोई जज या जजों का समूह बिल्कुल गलत फैसले सुना कर भी न्यायमूर्ति कहलाता रह सकता है। उसपर कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता। उसकी कोई जाँच नहीं की जाती। किन परिस्थितियों में, किन दबावों में, किन भयों अथवा लालचों के अधीन वह गलत फैसले सुनाता है, इसपर विचार करने वाली या इसकी निगरानी करने वाली कोई व्यवस्था इस देश में अब तक विकसित नहीं हो पाई है।
इसीलिए, कभी-कभी मेरे जैसा आशावादी और सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति भी अपनी न्याय-व्यवस्था के प्रति हताशा और अविश्वास के भाव से भर जाता है। कोई शहाबुद्दीन जेल में है कि बाहर है- जितनी चिंता मुझे इस बात से नहीं होती, उससे अधिक चिंता इस बात से होती है कि देश के गरीबों-गुरबों, कमजोरों और वंचितों का भरोसा इस देश की न्यायपालिका पर टिका रहता है कि नहीं।
मैं हैरान होता हूँ कि कोई भी अदालत सबूत होने या न होने की आड़ में बिल्कुल एकतरफा फैसले कैसे सुना सकती है? आज शहाबुद्दीन को जमानत दी है, कल बरी भी कर देना, मेरी बला से। लेकिन उस बूढ़े चंद्रकेश्वर बाबू उर्फ चंदा बाबू को इंसाफ कैसे दिलाओगे, जिसके तीन बेटों की हत्या हो चुकी है? उस बूढ़े बाप के उन तीन जवान बेटों का कोई तो कातिल होगा? उसको कब सजा दोगे? जब वह बाप भी लड़ते-लड़ते मर जाएगा या मार दिया जाएगा- तब? या उसके बाद भी नहीं दोगे?
ऐसे सवाल अक्सर हत्याकांडों और नरसंहारों के फैसलों के बाद उठते रहते हैं, लेकिन हमारी सरकारों, जाँच एजेंसियों, अदालतों और जजों के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। इसी बिहार में बथानी टोला, शंकर बिगहा, लक्ष्मणपुर बाथे इत्यादि भीषण नरसंहारों के मामलों में भी सबूतों के अभाव में सभी आरोपी बरी कर दिए गये थे, पर हमारे न्यायालयों और न्यायाधीशों ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि अगर बरी किए गये लोगों ने हत्याएँ नहीं कीं, तो गुनहगार कौन थे और कब एवं कौन उन्हें पकड़ेगा और सजा सुनाएगा। इन हत्याकांडों की ढीली जांच और इंसाफ का गला घोंटने के लिए भी किसी की जिम्मेदारी तय नहीं की गयी।
इस देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते देश की अदालतों से मेरी यह अपेक्षा है कि जब कभी उसके सामने ऐसे मामले आते हों, जिनमें एक पक्ष काफी ताकतवर और दूसरा पक्ष तुलनात्मक रूप से बेहद कमजोर हो, तो वह अधिक सक्रियता, संवेदनशीलता और दिलचस्पी दिखाते हुए सरकारों और जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष, प्रभावी और त्वरित जाँच करने के लिए बाध्य करे।
लेकिन दुख होता है, जब देखते हैं कि अदालतें कुछ मामलों में तो ऐसा करती हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में उसका रवैया बेपरवाही का ही रहता है। हमारी अदालतें फिल्मों जैसी नहीं होनी चाहिए, जिनमें इंसाफ की देवी की आँखों पर काली पट्टी बंधी रहती है। हमारी अदालतों में बुद्धि, विवेक, संवेदनशीलता, दया और ममता का समावेश होना चाहिए। हमारी अदालतें अधिक मानवीय होनी चाहिए।
चीफ जस्टिस साहब, आँसू बहाने से काम नहीं चलेगा, न सियासी लोगों के भाषणों की राजनीतिक व्याख्या करने से काम चलेगा। न्याय-व्यवस्था के कोढ़ को खत्म करने के लिए क्या इलाज है आपके पास? कभी इसका खाका भी रखिए देश की जनता के सामने। कभी उन आँखों में भी देखिए उतरकर, जिनके आँसू सूख चुके हैं। फिलहाल चंद्र बाबू की आँखें आपको ढूँढ़ रही हैं। क्या आप इंतजार करेंगे कि वे आप तक पहुँचें या आप स्वयँ भी उन तक पहुँच सकते हैं?
(देश मंथन, 11 सितंबर 2016)