डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
तीसरा मोर्चा एक मृग-मरीचिका बन गया है। कभी वह आँखों के आगे नाचने लगता है और कभी वह एकदम अदृश्य हो जाता है। अब फिर कांग्रेस के कुछ शीर्ष नेताओं ने उसे जिंदा किया है।
कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सलाहकार ने कह दिया कि यदि तीसरा मोर्चा सरकार बनाने लायक हुआ, तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। उनके इस कथन पर जब मार पड़ने लगी तो उन्होने पैंतरा बदल लिया और कहा कि उनका मतलब यह था कि तीसरे मोर्चे को मिलाकर कांग्रेस सरकार बनायेगी। यही बात बाद में कांग्रेस के कई मंत्रियों और पदाधिकारियों ने दोहरायी। उन्होंने जोर देकर कहा कि कांग्रेस तो जीत रही है। वह सत्ता के बाहर क्यों बैठेगी? वह किसी भी मोर्चे को बाहर से समर्थन क्यों देगी? उसे जरूरत पड़ी तो वह उनसे समर्थन लेगी।
तीसरे मोर्चे को कांग्रेस बाहर से समर्थन दे या अंदर से, वह उससे समर्थन ले या न ले, उसकी बात उलछी, इसका जनता पर क्या असर पड़ रहा है? आम जनता के सामने कांग्रेसी नेताओं ने अपनी बदहवासी जाहिर कर दी। आम जनता समझ रही है कि कांग्रेस अब बिलकुल डूबतखाते में है। वह अब तिनके का सहारा ढूँढ रही है। जो तीसरा मोर्चा अभी हवा में ही झूल रहा है, उसके सहारे ही वह चुनावी समन्दर में तैरना चाहती है। वह यह भूल गई कि राज्यों में उसकी टक्कर उन्हीं प्राँतीय पार्टियों से है, जो तीसरा मोर्चा खड़ा करना चाहती है। अहिंदी और हिंदी राज्यों की प्राँतीय पार्टियों से कांग्रेस का न तो कोई गुप्त समझौता हुआ है और न ही जाहिरा समझौता। पहले तो चुनावों में वे कांग्रेस के विरूद्ध और कांग्रेस उनके विरूद्ध जमकर विष वमन कर रही है। फिर वे चुनाव के बाद गल-मिलाव्वल कैसे करेंगी? इसके अलावा, आज तक कांग्रेस ने जब भी केंद्र में किसी पार्टी का समर्थन किया है, उसके साथ हमेशा विश्वासघात हुआ है। वह चाहे चरण सिंह हों, चंद्रशेखर हों, देवेगौड़ा हो या इंदर गुजराल हों। कांग्रेस के समर्थन पर अब कौन भरोसा करेगा? चुनाव के बाद कांग्रेस की शक्ति इतनी क्षीण हो जायेगी कि उसके समर्थन का कोई महत्व भी होगा या नहीं, कुछ पता नहीं।
जहाँ तक तीसरे मोर्चे का सवाल है उसके अपने अंन्तर्विरोध इतने है कि उसका बनना ही मुश्किल है। कश्मीर में अब्दुला और मुफ्ती, पं. बंगाल में ममता और मार्क्सवादी पार्टी, बिहार में लालू और नीतिश तथा उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती क्या एक-दूसरे को अपना नेता मान सकते हैं? ये सब प्राँतीय नेता अब उस मौके की तलाश में होंगे, जो उन्हें कुर्सी पर बिठा सकें। उनके लिए कुर्सी ही ब्रह्म है। शेष सब माया है। वे उसी पार्टी और नेता के पीछे भागेंगे, जिसे सबसे ज्यादा सीटें मिलेंगी। क्या कांग्रेस को सबसे ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद है?
(देश मंथन, 01 मई 2014)