कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार
राहुल और शौरी से प्रशान्त की मुलाकातें बताती हैं कि राजनीति काफी रोचक होती जा रही है! अरुण शौरी पिछले काफी समय से नरेन्द्र मोदी के मुखर आलोचक रहे हैं और समझा जाता है कि बिहार की हार के बाद जारी बीजेपी के बुजुर्ग नेताओं के बयान का मसौदा तैयार करने में उनकी बड़ी भूमिका थी।
प्रशान्त किशोर (Prashant Kishor) इन दिनों भारी ‘डिमांड’ में हैं। सुना है कि अब ममता बनर्जी उन्हें अपने चुनाव की कमान देना चाहती हैं! वह 2016 की तैयारी में लग गयी हैं। जिताऊ फार्मूला आखिर किसे नहीं चाहिए! और वह भी प्रशान्त किशोर जैसा धुरन्धर ‘चुनवैय्या!’ जिसने पहले नरेन्द्र मोदी के लिए ऐसे झंडे गाड़े कि पूरा का पूरा विपक्ष चुनाव-प्रचार की उस चकाचौंध से सन्न रह गया और ऐसा धराशायी हुआ कि दुनिया देखती रह गयी! फिर अठारह महीनों बाद उसी प्रशान्त किशोर ने नीतीश कुमार के तम्बू में बैठ कर ऐसे शंख बजाये कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी उसकी फूँक में उड़ गयी!
राजनीतिक मार्केटिंग के जनक Narendra Modi
आज से नहीं, बरसों से राजनीतिक दल चुनाव के लिए बड़ी-बड़ी नामी-गिरामी विज्ञापन एजेन्सियों की मदद लेते रहे हैं। लेकिन बहुत बार तो ऐसा हुआ कि ‘मियाँ की जूती, मियाँ के सिर’ वाली कहावत सच हो गयी और उनका प्रचार अभियान ही उनकी हार का कारण बन गया! ऐसा क्यों होता था? इसलिए कि अकसर ये कम्पनियाँ राजनीति के फंडे और मार्केटिंग के फंडे के बीच तालमेल नहीं बैठा पाती थीं। मार्केटिंग के ये गुरु अक्सर राजनीति के ककहरे का ‘क’ भी नहीं जानते थे, इसलिए बहुत बार ‘हिट विकेट’ हो जाते थे।
आलोचना कीजिए या प्रशंसा, चौदह के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक मार्केटिंग की जिस नयी विधा का आविष्कार किया और प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक वह ‘ब्राँड मोदी’ की सतत मार्केटिंग की जिस शैली पर चल रहे हैं, उसके बिना अब शायद राजनीति कर पाना आसान न हो, लगता है यह बात अब धीरे-धीरे सभी राजनेताओं के मन में बैठने लगी है। तभी तो ममता बनर्जी जैसी ‘माँ, माटी और मानुस’ की बात करने वाली ‘तृणमूल’ यानी ‘ग्रासरूट’ नेता को भी चौथे ‘म’ यानी मार्केटिंग की जरूरत इतनी शिद्दत से समझ में आयी कि बिहार चुनाव के नतीजे आते ही उन्होंने आनन-फानन प्रशान्त किशोर से सम्पर्क कर लिया!
Mamta Banerjee को क्या खतरा है?
वैसे तो अभी हाल के पंचायत चुनाव के नतीजों को देख कर तो लगता नहीं कि ममता बनर्जी अगले साल के विधानसभा चुनावों को लेकर कोई खतरा महसूस करें। वाम मोर्चा और काँग्रेस दोनों ही पश्चिम बंगाल में अपनी साख बुरी तरह खो चुके हैं और बीजेपी भी शुरुआती फड़फड़ाहट के बाद वहाँ अब बेदम ही दिखती है। फिर भी ममता बनर्जी कोई जोखिम नहीं लेना चाहतीं! और शायद यह भी नहीं चाहतीं कि प्रशान्त अगले चुनाव में उनके किसी प्रतिद्वन्द्वी के लिए काम कर उनके लिए खतरा बनें! इसलिए उन्होंने अपनी तरफ से तो ‘स्मार्ट’ काम कर ही दिया! नीतीश को भी इससे दिक्कत नहीं होगी और प्रशान्त को भी। नीतीश और ममता के रिश्ते अच्छे हैं ही। और लोकसभा चुनाव के बाद प्रशान्त इसलिए नरेन्द्र मोदी से फिरंट हो गये थे कि उन्हें लगने लगा था कि चुनाव बाद उनकी कोई पूछ नहीं रह गयी है।
क्या Mulayam भी Bihar से कुछ सीखना चाहेंगे?
लेकिन अब अगर प्रशान्त 2016 में ममता के लिए काम करने को तैयार हो जाते हैं तो शायद उसके अगले साल यानी 2017 में अखिलेश यादव भी उत्तर प्रदेश के लिए उनकी सेवाएँ लेना चाहें! बिहार चुनाव की कड़ुवाहट के बावजूद नीतीश और लालू प्रसाद यादव दोनों ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की मदद करने को तो फिलहाल तैयार दिखते हैं! दरअसल, गोटियाँ तो अब 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए फिट की जा रही हैं और शायद अगले कुछ दिनों में जनता दल को खड़ा करने की वह कवायद फिर से शुरू होती दिखे, जिसे बिहार चुनाव के कुछ दिन पहले मुलायम सिंह यादव ने बत्ती लगा दी थी! लेकिन अब तो गरज मुलायम की होगी और हो सकता है कि वह बिहार से कुछ सीखना ही चाहें!
Congress तो घेलुए से ही खुश है!
बिहार का सबक साफ है। यह कि बीजेपी विरोधी वोटों का बँटवारा रोका जा सके, तो बीजेपी को हराया जा सकता है। इसके लिए विधानसभा चुनावों में तो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग समीकरण बन सकते हैं। लेकिन यक्ष प्रश्न यह है कि अगले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के मुकाबले विपक्ष क्या करे? वहाँ तो मोदी को टक्कर देने के लिए कोई ताकतवर राष्ट्रीय विकल्प चाहिए। फिर प्रधानमंत्री पद का कोई योग्य दावेदार भी उसे मोदी के सामने उतारना ही होगा। काँग्रेस तो अब तक पहले ही सवाल का जवाब नहीं ढूँढ पायी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी खोयी जमीन वापस पाने के लिए क्या करे? तो दूसरा सवाल तो बड़ी दूर की बात है। दरअसल, प्रशान्त किशोर के नुस्खों की सबसे ज्यादा जरूरत अगर किसी को है, तो वह काँग्रेस को ही है! लेकिन अगर पिछले अठारह महीनों में मोदी सरकार और बीजेपी ने खुद अपने लिए गड्ढे खोदे तो काँग्रेस भी यह नहीं तय कर पायी कि उसे करना क्या है, उसे अपनी क्या इमेज बदलनी चाहिए, क्या रणनीति हो, क्या कार्यक्रम हो और क्या ‘रोडमैप’ हो? इसलिए संसद में हल्ला मचाने के अलावा उसने कुछ किया ही नहीं। वह ‘घेलुआ’ पार्टी बन कर ख़ुश है।
2019 में कौन देगा Modi को चुनौती?
‘घेलुआ’ अब नहीं मिलता। हमारे बचपन के दिनों में मिला करता था! एक लीटर दूध खरीदो तो दूधिया थोड़ा-सा दूध ऊपर से मुफ्त में डाल दिया करता था। ऐसे ही हर सामान के साथ तौल के ऊपर से कुछ ‘घेलुआ’ डालने का रिवाज हुआ करता था। अब तो हर चीज के बने-बनाये बन्द पैकेट आते हैं। घेलुआ खत्म! लेकिन काँग्रेस इसी में खुश है कि उसे घेलुए में बिहार में 27 सीटें मिल गयीं! उसे अभी तक एहसास ही नहीं हो सका है कि अब घेलुए का जमाना नहीं है! जमाना बदल चुका है और राजनीति भी!
नरेन्द्र मोदी वाक़ई भाग्यशाली हैं कि उन्हें मुकाबले में काँग्रेस जैसा लस्त-पस्त खिलाड़ी मिला है, जिसमें जीत की बात सोचने की भी कोई इच्छा नहीं बची है। बाकी विपक्ष भी यह देख रहा है और 2019 के लिए अपनी सम्भावनाएँ, टोटके और तिलिस्म तलाश और जुगाड़ रहा है! नीतीश जानते हैं कि इन सम्भावनाओं का केन्द्र बन सकने की उनकी सम्भावना सबसे बेहतर है!
(देश मंथन, 14 नवंबर 2015)