इस हार का मतलब क्या है?

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डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :

चार राज्यों में हुए उपचुनावों में भाजपा की वैसी दुर्गति तो नहीं हुई, जैसी उत्तराखंड में हुई थी याने कोई राज्य ऐसा नहीं है, जहाँ भाजपा या उसकी सहयोगी पार्टी जीती न हो।

भाजपा का पूरा सफाया कहीं नहीं हुआ है। हो भी कैसे सकता था? अभी तीन माह पहले हुए लोकसभा चुनावों में उसे जैसा प्रचंड बहुमत मिला था, उसे देखते हुए शतरंज का एकदम उलट जाना संभव नहीं था। पिछले तीन माह में मोदी सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे क्रुद्ध होकर जनता उसे शीर्षासन करवा दे।

लेकिन कुल 18 में से 10 सीटों की हार का क्या मतलब है? भाजपा कुल आठ सीटों पर ही जीत पायी। पंजाब में तो एक सीट उसके सहयोगी अकाली दल को मिली। शेष तीनों राज्यों – बिहार, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में उसने अपनी पहले से जीती हुई सीटें खोयी हैं। हालाँकि राज्यों के उप-चुनावों में स्थानीय मुद्दों का ही ज्यादा असर होता है लेकिन यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या मोदी का जादू अब फीका पड़ने लगा है?

मेरे ख्याल से यह सवाल ही गलत है। क्योंकि लोकसभा के चुनाव में जो असली जादू चला था, वह था सोनिया-मनमोहन भ्रष्टाचार का! इसी भ्रष्टाचार के कीचड़ में से मोदी का कमल खिला था। अब चाहे राज्यों के उप-चुनाव हों या लोकसभा के, वह असली मुद्दा तो भारत के पर्दे से गायब हो गया है। अब यदि मोदी सरकार कोई चमत्कारी काम करेगी तो ही उसके नाम पर वोट मिल सकेंगे। भाषण का जमाना लद गया है। बिहार में विपक्ष के गठबंधन को सीटें ही ज्यादा नहीं मिली हैं, उनके वोटों की संख्या भी भाजपा से कहीं ज्यादा हो गयी है। यदि इसी तरह के गठबंधन अन्य राज्यों में भी हो गए तो कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दो-ढाई वर्ष में ही केंद्र सरकार की विदाई के ढोल बजने लगें।

ये चुनाव-परिणाम और इनके पहले आये स्थानीय निकायों के चुनाव-परिणामों ने खतरे की घंटी अभी से बजा दी है। यदि भाजपा के नेतागण लोकसभा-चुनाव की जीत को अपनी लोकप्रियता का प्रमाण समझ बैठेंगे तो वे बहुत बड़ी गलती करेंगे। यह जीत तो सिर्फ एक मौका है। इस मौके को भाजपा कैसे भुनाती है, इस पर उसका भविष्य निर्भर करेगा।

उसे यह नहीं भूलना होगा कि भारतीय समाज अभी भी जातीय, क्षेत्रीय और मजहबी संकीर्णताओं में जकड़ा हुआ है। अब जिन राज्यों के चुनाव अगले दो साल में होने हैं, वहाँ ये ही परंपरागत तत्व प्रभावशाली भूमिका अदा करेंगे। या तो इन्हीं तत्वों की तिकड़म लड़ाने में भाजपा महारत हासिल करे या फिर वह मूलभूत परिवर्तन के कुछ चमत्कारी कदम उठाये।

(देश मंथन, 27 अगस्त 2014)

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