Thursday, November 21, 2024
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आतंकवाद की आड़ लेकर नोटबंदी का विरोध

अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

जिस देश ने 70 साल धैर्य रखा, उसी देश में कुछ लोग 17 दिन में ही अधीर हुए जा रहे हैं। नोटबंदी के आलोचक तरह-तरह की दलीलों के साथ सरकार पर हमले कर रहे हैं। एक दलील यह भी है कि इससे आतंकवाद पर लगाम नहीं लगेगी, बल्कि उल्टे आतंकवाद और बढ़ेगा।

हमारा कश्मीर, तुम्हारा बलूचिस्तान

संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :

देर से ही सही भारत की सरकार ने एक ऐसे कड़वे सच पर हाथ रख दिया है जिससे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान को मिर्ची लगनी ही थी। दूसरों के मामले में दखल देने और आतंकवाद को निर्यात करने की आदतन बीमारियाँ कैसे किसी देश को खुद की आग में जला डालती हैं, पाकिस्तान इसका उदाहरण है। बदले की आग में जलता पाकिस्तान कई लड़ाईयाँ हार कर भारत के खिलाफ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है और कश्मीर के बहाने उसे जिलाए हुए है। पड़ोसी को छकाए-पकाए और आतंकित रखने की कोशिशों में उसने आतंकवाद को जिस तरह पाला-पोसा और राज्याश्रय दिया, आज वही लोग उसके लिए भस्मासुर बन गये हैं।

पाकिस्तान : यह माजरा क्या है?

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

क्या पाकिस्तान बदल रहा है? पठानकोट के बाद पाकिस्तान की पहेली में यह नया सवाल जुड़ा है। लोग थोड़ा चकित हैं। कुछ-कुछ अजीब-सा लगता है। आशंकाएँ भी हैं, और कुछ-कुछ आशाएँ भी! यह हो क्या रहा है पाकिस्तान में? मसूद अजहर को पकड़ लिया, जैश पर धावा बोल दिया, सेना और सरकार एक स्वर में बोलते दिख रहे हैं, पाकिस्तान अपनी जाँच टीम भारत भेजना चाहता है, और चाहता है कि रिश्ते (Indo-Pak Relations) सुधारने की बातचीत जारी रहे। ऐसा माहौल तो इससे पहले कभी पाकिस्तान में दिखा नहीं! तो क्या वाकई पाकिस्तान में सोच बदल रही है? क्या अब तक वह आतंकवादियों के जरिये भारत से जो जंग लड़ रहा था, उसे उसने बेनतीजा मान कर बन्द करने का फैसला कर लिया है? क्या वहाँ की सेना भी उस जंग से थक चुकी है? क्या पाकिस्तान इस बार वाकई आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा या फिर वह बस दिखावा कर रहा है? क्या उस पर भरोसा करना चाहिए? टेढ़े सवाल हैं।

आतंकवाद से कैसे लड़ें

संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय : 

आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई कड़े संकल्पों के कारण धीमी पड़ रही है। पंजाब के हाल के वाकये बता रहे हैं कि हम कितनी गफलत में जी रहे हैं। राजनीतिक संकल्पों और मैदानी लड़ाई में बहुत अंतर है, यह साफ दिख भी रहा है। पाकिस्तान और चीन जैसे पड़ोसियों के रहते हम वैसे भी शांति की उम्मीदें नहीं पाल सकते, किंतु जब हमारे अपने ही संकल्प ढीले हों तो खतरा और बढ़ जाता है। आतंकवाद के खिलाफ लंबी यातना भोगने के बाद भी हमने सीखा बहुत कम है। किसी आतंकी को फाँसी देते वक्त भी हमारे देश में उसे फाँसी देने और न देने पर जैसा विमर्श चलता है उसकी मिसाल खोजने पर भी नहीं मिलेगी। आखिर हम आतंकवाद के खिलाफ जीरो टालरेंस का रवैया अपनाये बिना कैसे सुरक्षित रह सकते हैं।

देश को क्यों बाँट रहा है मीडिया

संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय  :

काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकान्त झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा “आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फाँसी पर देश को बँटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आयी।

चोर की दाढ़ी में तिनका

अखिलेश शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :

म्यांमार में की गई भारतीय सेना की कार्रवाई पर पाकिस्तान की प्रतिक्रिया देख कर कोई हैरानी नहीं हुई। उसका करुण क्रंदन और उसी रुआंसे स्वर में भारत को धमकी देने का अंदाज अपेक्षित था।

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