पाकिस्तान : यह माजरा क्या है?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

क्या पाकिस्तान बदल रहा है? पठानकोट के बाद पाकिस्तान की पहेली में यह नया सवाल जुड़ा है। लोग थोड़ा चकित हैं। कुछ-कुछ अजीब-सा लगता है। आशंकाएँ भी हैं, और कुछ-कुछ आशाएँ भी! यह हो क्या रहा है पाकिस्तान में? मसूद अजहर को पकड़ लिया, जैश पर धावा बोल दिया, सेना और सरकार एक स्वर में बोलते दिख रहे हैं, पाकिस्तान अपनी जाँच टीम भारत भेजना चाहता है, और चाहता है कि रिश्ते (Indo-Pak Relations) सुधारने की बातचीत जारी रहे। ऐसा माहौल तो इससे पहले कभी पाकिस्तान में दिखा नहीं! तो क्या वाकई पाकिस्तान में सोच बदल रही है? क्या अब तक वह आतंकवादियों के जरिये भारत से जो जंग लड़ रहा था, उसे उसने बेनतीजा मान कर बन्द करने का फैसला कर लिया है? क्या वहाँ की सेना भी उस जंग से थक चुकी है? क्या पाकिस्तान इस बार वाकई आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा या फिर वह बस दिखावा कर रहा है? क्या उस पर भरोसा करना चाहिए? टेढ़े सवाल हैं।

पठानकोट के बाद बदली हुई लीक!

अब तक पाकिस्तान का रोडमैप कुछ और हुआ करता था। वहाँ की सरकार बात करती थी, और सेना और आइएसआइ उसमें छल कबड्डी कर खलल डालते थे। कभी करगिल के जरिये, और अकसर आतंकवादियों के जरिये। चाहे बेनजीर हों, नवाज शरीफ हों या परवेज मुशर्रफ हों, हर बार यही होता था। इसलिए इस बार भी जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लाहौर यात्रा के तुरन्त बाद पठानकोट हमला हुआ, तो यही लगा कि पाकिस्तान तो अपनी उसी पुरानी लीक पर चला है। कोई नयी बात नहीं।

पाकिस्तान : कई-कई सरकारों का देश

लेकिन नयी बात तो अब हो रही है। इसीलिए यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या पाकिस्तान सचमुच भारत से रिश्तों को अब नयी तरह से परिभाषित करना चाहता है? या फिर इसके बाद हमें किसी नये छलावे के लिए तैयार रहना चाहिए। जो लोग बरसों से पाकिस्तान को जानते हैं, वह जानते हैं कि पाकिस्तान किस तरह एक अटका हुआ सवाल है। वहाँ कैसे एक साथ कई-कई सरकारें चलती हैं। एक सरकार वह जो मुखौटे के रूप में चलती है, लेकिन असली सरकार परदे के पीछे से सेना और आईएसआई की चलती है, जो न केवल कश्मीर के मामले में बल्कि पाकिस्तान की समूची विदेश नीति और काफी हद तक महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर घरेलू फैसलों को प्रभावित करती है। फिर एक सरकार कट्टरपंथी मुस्लिम उलेमाओं की चलती है, जिसे अनदेखा कर पाना वहाँ किसी सत्ता प्रतिष्ठान के बूते की बात नहीं। और इस सबसे अलग एक सरकार तरह-तरह के आतंकवादियों की चलती है, जिनमें अल कायदा, तालिबान, जैश, लश्कर और तमाम ऐसे छोटे-बड़े आतंकवादी समूह रहे हैं।

दोस्ती से ऊपर आतंकवाद के ‘इस्लामी लक्ष्य’

इन सभी आतंकवादी समूहों के राजनीतिक और भौगोलिक लक्ष्य भले अलग-अलग रहे हों, लेकिन सबका वैचारिक धरातल हमेशा एक ही रहा है, और वह है कट्टरपंथी इस्लाम और इस्लामी प्रभाव और साम्राज्य का विस्तार। इसलिए इन सभी को कट्टरपंथी इस्लामी इदारों की सरपरस्ती मिली। मुशर्रफ के जमाने में लाल मस्जिद पर चलाये गये अभियान के बाद यह भंडाफोड़ हुआ कि वहाँ चीन के उईघर आतंकवादियों को भी प्रशिक्षित किया जा रहा था, हालाँकि चीन को पाकिस्तान अपना सबसे गहरा दोस्त मानता है। साफ है कि इन चीनी आतंकवादियों को लाल मस्जिद के कट्टरपंथी उलेमा ‘इसलामी लक्ष्यों’ के लिए ही अपने ‘मित्र देश’ चीन के खिलाफ सिखा-पढ़ा रहे थे।

पाकिस्तान में सेना और आईएसआई का इन ‘इस्लामी लक्ष्यों’ से जुड़ाव हमेशा से रहा है और जनरल जिया-उल-हक के दौर में चले ‘इस्लामीकरण’ अभियान से कट्टरपंथी तत्व उनमें लगातार हावी होते गये। इस वैचारिक गोंद ने सेना-आईएसआई-मुल्ला-आतंकवादी गँठजोड़ को आपस में मजबूती से जोड़े रखा है। राजनीतिक मोहरों के तौर पर आतंकवादियों के इस्तेमाल तो सबको मालूम है, लेकिन सेना और आईएसआई द्वारा चलाये जा रहे अवैध हथियारों और हेरोइन तस्करी के विशाल और कुख्यात नेटवर्क में भी ये सारे आतंकवादी गिरोह एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। ऐसे में पाकिस्तान से आतंकवादियों के ‘सफाये’ की बात कभी सोची जा सकती है क्या? और ऐसे में क्या यह सोचा जा सकता है कि Indo-Pak Relations सुधारने के लिए आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान में कभी वास्तविक अभियान शुरू हो सकता है?

आतंकवाद : पाक राजनीति का अट्टू हिस्सा

वरना ऐसा क्यों होता कि अल कायदा के खिलाफ लड़ाई के लिए अमेरिका से अरबों डालर वसूलने के बावजूद पाकिस्तानी सेना अपनी छावनी में ओसामा बिन लादेन को छिपाये रहती! और राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पर दो-दो बार हमला करने के बावजूद जैश-ए-मुहम्मद का सारा तामझाम वहाँ अब तक खुलेआम चल रहा है। और बेनजीर भुट्टो की हत्या में तालिबानियों का हाथ होने के शक के बावजूद उनके पति आसिफ अली जरदारी की सरकार तालिबान के खिलाफ कुछ ठोस कदम नहीं उठा सकी। और दिलचस्प बात यह है कि बेनजीर हत्याकांड में मुशर्रफ की भूमिका भी सन्देह से परे नहीं पायी गयी! यानी साफ है कि आतंकवादी तत्व पाकिस्तान की राजनीति और सत्ता का अटूट हिस्सा बन चुके हैं।

इसलिए पठानकोट हमले के बाद पाकिस्तान अगर मसूद अजहर समेत जैश के कुछ लोगों को हिरासत में लेता है, तो इसके कुछ ज्यादा बड़े अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए। इसका बस सीमित महत्त्व इतना ही है कि पाकिस्तान यह जताना चाहता है कि वह भारत के साथ बातचीत के सिलसिले को कतई तोड़ना नहीं चाहता। समझ लीजिए कि Indo-Pak Relations को लेकर यह उसका एक कूटनीतिक कदम है। लेकिन सवाल यह है कि क्यों ऐसा पहली बार हो रहा है कि पाकिस्तान बातचीत को जारी रखने के लिए इतनी जहमत उठाने को तैयार है? क्या ऐसा वह महज अन्तरराष्ट्रीय दबावों के कारण कर रहा है? या फिर क्या यह उस लाँछन को धोने की कोशिश है जो पाकिस्तान पर हमेशा लगता है कि जब-जब भारत की ओर से दोस्ती की बड़ी पहल होती है, तब-तब पाकिस्तान की तरफ से पीठ में छुरा घोंप दिया जाता है और बातचीत लटक जाती है। या फिर वाकई पाकिस्तान की सोच बदल रही है?

क्या इन शिकंजों से मुक्त हो सकता है पाकिस्तान?

इन सवालों के निश्चित जवाब तो कहीं नहीं हैं। सब अटकलें हैं। अगले कुछ दिन बता देंगे कि वाकई माजरा क्या है? यह तय है कि भारत-पाक रिश्तों यानी Indo-Pak Relations में सबसे बड़ी बाधा वे आतंकवादी ही हैं, जो पाकिस्तान की ही उपज हैं, जिन्हें पाकिस्तान अब तक ‘कश्मीर की आजादी के लड़ाके’ कह कर पालता रहा है। और पठानकोट हमले तक में इन आतंकवादियों को आईएसआई के समर्थन मिलने के पक्के सबूत मिल चुके हैं! इन आतंकवादियों से पाकिस्तान का रिश्ता तभी टूट सकता है, जब दो बातें हों। एक पाकिस्तान अन्तत: यह मान ले कि आतंकवाद के ‘छाया युद्ध’ से वह कश्मीर नहीं जीत सकता और दूसरी यह कि वह इस्लामी कट्टरपंथ के शिकंजे से अपने को मुक्त कर ले? क्या ये दोनों बातें इतनी आसान हैं?

(देश मंथन, 18 जनवरी 2016)

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