Tuesday, October 28, 2025
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Tag: रिश्ते

रिश्तों को समय दीजिए

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

मेरे दफ्तर के एक साथी को कुछ महीने पहले पिता बनने का सौभाग्य मिला है।

पाकिस्तान: एक अटका हुआ सवाल

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

पाकिस्तान एक अटका हुआ सवाल है। वह इतिहास की एक विचित्र गाँठ है। न खुलती है, न बाँधती है, न टूटती है, न जोड़ती है। रिश्तों का अजीब सफरनामा है यह! एक युद्ध, जो कहीं और कभी रुकता नहीं। एक युद्ध जो सरकारों के बीच है, और एक युद्ध जो जाने कितने रूपों में, कितने आकारों में, कितने प्रकारों में, कितने मैदानों में, कितने स्थानों में दोनों ओर के एक अरब चालीस करोड़ मनों में, दिलों में, दिमागों में सतत, निरन्तर जारी रहता है! यह युद्ध भी विचित्र है। कभी युद्ध करने के लिए युद्ध, तो कभी युद्ध के खिलाफ युद्ध! हाकी, क्रिकेट में एक-दूसरे को हारता देखने की जंग, तो जरा-सा मौका दिखते ही दिलों को जोड़ने की जंग भी!

पौधे को भी जीने के लिए रिश्ते चाहिए

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

अब से कुछ देर बाद मैं जबलपुर में पहुँच जाऊँगा। 

जहाँ उम्मीद, वहीं जिन्दगी

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

यह तो आप जानते ही हैं कि सबसे ज्यादा खुशी और सबसे ज्यादा दुख, दोनों अपने ही देते हैं।

बुनियादी विश्वास

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

माँ की सुनायी कहानियों में सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों की कहानियों की मेरे मन पर अमिट छाप है। 

रिश्ते तभी चलते हैं, जब दोनों छोड़ना जानते हों

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कुछ दिन पहले मैं अपने एक मित्र के घर गया था। मैं मित्र के घर बहुत दिनों के बाद गया था और इस उम्मीद से गया था कि मेरा मित्र मुझसे मिल कर बहुत खुश होगा।

रिश्तों के साथ जीना

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

दीदी की शादी थी। एक रात पहले घर के सामने सड़क पर टेंट लगाया जा रहा था। कुर्सियाँ बिछायी जा रही थीं। हल्की-हल्की सर्दी थी। पिताजी, चाचा, मामा, मौसा, फूफा, ताऊ जी सब वहीं डटे थे। किसी को कोई जिम्मेदारी नहीं दी गयी थी, सब के सब अपनी जिम्मेदारी समझ रहे थे।

परंपराओं की जंजीरों में जकड़ी लड़कियाँ

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

आइए आज आपको एक लड़की से मिलवाता हूँ। 

बदलता भोपाल

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आधी रात को चार शराबियों की निगाह ताजमहल पर पड़ गयी। चारों को ताजमहल बहुत पसन्द आया। उन्होंने तय कर लिया इतनी सुन्दर इमारत तो उनके शहर में होनी चाहिए थी। पर कमबख्त सरकार कुछ करती ही नहीं। क्यों न हम चारों रात के अंधेरे में सफेद संगमरमर की इस इमारत को चुरा कर अपने शहर ले चलें! 

रिश्तों का पाठ

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बचपन में मुझे चिट्ठियों को जमा करने का बहुत शौक था। हालाँकि इस शौक की शुरुआत डाक टिकट जमा करने से हुई थी। लेकिन जल्द ही मुझे लगने लगा कि मुझे लिफाफा और उसके भीतर के पत्र को भी सहेज कर रखना चाहिए। इसी क्रम में मुझे माँ की आलमारी में रखी उनके पिता की लिखी चिट्ठी मिल गयी थी। मैंने माँ से पूछ कर वो चिट्ठी अपने पास रख ली थी। बहुत छोटा था, तब तो चिट्ठी को पढ़ कर भी उसका अर्थ नहीं पढ़ पाया था, लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया बात मेरी समझ में आती चली गयी। 

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