पाकिस्तान: एक अटका हुआ सवाल

0
111

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

पाकिस्तान एक अटका हुआ सवाल है। वह इतिहास की एक विचित्र गाँठ है। न खुलती है, न बाँधती है, न टूटती है, न जोड़ती है। रिश्तों का अजीब सफरनामा है यह! एक युद्ध, जो कहीं और कभी रुकता नहीं। एक युद्ध जो सरकारों के बीच है, और एक युद्ध जो जाने कितने रूपों में, कितने आकारों में, कितने प्रकारों में, कितने मैदानों में, कितने स्थानों में दोनों ओर के एक अरब चालीस करोड़ मनों में, दिलों में, दिमागों में सतत, निरन्तर जारी रहता है! यह युद्ध भी विचित्र है। कभी युद्ध करने के लिए युद्ध, तो कभी युद्ध के खिलाफ युद्ध! हाकी, क्रिकेट में एक-दूसरे को हारता देखने की जंग, तो जरा-सा मौका दिखते ही दिलों को जोड़ने की जंग भी!

 

पाकिस्तान की अबूझ पहेली

यही पाकिस्तान की अबूझ पहेली है। आपस में गुत्थमगुत्था गुत्थियों का तिलिस्म! राजनीति, कूटनीति, नेता, सेना, सरकार, हाकी, क्रिकेट, सिनेमा, टीवी, संगीत, गजल और जाने क्या-क्या, यहाँ से वहाँ तक, जहरबुझे तीरों और मुहब्बत के तरानों, बारूदी नारों और अमन के गीतों, खुँरेज दास्तानों और अपनापे के अफसानों, नफरतों के पहाड़ों और फिर गले मिल सकने की हसरतों की जाने ही कितनी विरोधी, विरोधाभासी धाराओं और भावनाओं के अनन्त अन्तर्द्वन्द्वों को एक साथ जीता यह रिश्ता क्या कहलाता है, कहा नहीं जा सकता!

पाकिस्तान के साथ ही ऐसा क्यों होता है?

कभी सोचा आपने? पाकिस्तान को सोचते ही इतने तरह के भावों का ज्वार एक साथ क्यों फूटता है? हमारे बहुत सारे पड़ोसी हैं। लेकिन मन में जैसा ‘कुछ-कुछ’ या ‘कुछ न कुछ’ पाकिस्तान को लेकर होता है, वैसा किसी और के साथ क्यों नहीं? चीन 1962 में हम पर धोखे से हमला कर चुका है, उसके घाव अब तक भरे नहीं हैं, उससे सीमा-विवाद अब भी जारी है, लेकिन आम हिन्दुस्तानी के मन के नक्शे में चीन को लेकर बस इतना है कि उससे रिश्ते और न बिगड़ें, किसी और लड़ाई की नौबत न आये। चीन से दोस्ती बढ़ने की किसी सम्भावना पर उसका दिल बल्लियों नहीं उछलता! बांग्लादेश जब तक पूर्व पाकिस्तान था, तब तक वह पाकिस्तान ही था। हम उसे उसी नजर से देखते थे। हमने बांग्लादेश बनवाने में बड़ी भूमिका निभायी, शुरू में रिश्तों में वह गरमाहट रही भी, लेकिन शेख मुजीब की हत्या के बाद रिश्ते कड़ुवे हो गये, अब हसीना वाजेद की वजह से माहौल फिर से दोस्ताना हुआ है। लेकिन बांग्लादेश देश को लेकर हमारे यहाँ किसी के मन में कोई सुरसुरी तो होती नहीं, कोई हुड़क भी नहीं उठती। उससे आप क्रिकेट में हार जायें तो शर्म आती है, लेकिन वैसा मलाल तो नहीं होता, जैसा पाकिस्तान से हारने पर होता है! क्यों? पाकिस्तान की तरह आज का बांग्लादेश भी तो कभी हमारा ही हिस्सा था, रवीन्द्र संगीत और नजरुल के गीत आज भी दोनों बंगाल की झंकार हैं, फिर भी बांग्लादेश महज आपका एक पड़ोसी भर है, शायद दूसरे बाकी पड़ोसियों से चुटकी-भर ज्यादा। बस और कुछ नहीं। श्रीलंका से आप कुछ क्रिकेट खेल लेते हैं, थोड़ा तमिल कनेक्शन है, कभी-कभार मछुआरों की पकड़-धकड़ को लेकर चर्चा में आ जाता है, बस। बाकी के पड़ोसियों को बस हम जानते हैं कि हमारे पड़ोसी हैं।

दुश्मनी भी, प्यार की पींगें भी!

लेकिन पाकिस्तान के साथ आप खेल में हार जाओ तो मातम ही मातम। दुश्मनी की बात हो तो उससे बड़ा दुश्मन कोई नहीं। और ऐसा मानना गलत भी नहीं। चार-चार लड़ाइयाँ लड़ चुका है। सीमा पर गोलीबारी रुकती नहीं। भारत के दुश्मन अपराधियों को वहाँ पनाह मिली हुई है। लाहौर, कराची, पेशावर और पाकिस्तान में जाने कहाँ-कहाँ बसे दहशत के कारखानों में दिन-रात चौबीसों घंटे साजिशों के बंडल बनते रहते हैं और आतंक फैलाने भारत ‘डिस्पैच’ कर दिये जाते हैं। और मानों इतना काफी न हो, इसलिए जाली नोटों की खेप पर खेप भारत में लगातार झोंकी जाती है। लेकिन इस सबके बावजूद जब हिन्दुस्तानी पाकिस्तान जाते हैं, और पाकिस्तानी भारत आते हैं तो दोनों तरफ लोग बड़े प्यार से मिलते हैं। क्यों? भारतीय फिल्में पाकिस्तान में छायी रहती हैं, तो पाकिस्तानी कलाकार यहाँ सिनेमा और टीवी में हाथोंहाथ लिये जाते हैं। मेंहदी हसन और अदनान सामी किसी को पराये नहीं लगते! और जब दोनों देशों के नेताओं के कभी मिलने-जुलने, बातचीत करने के मौके बनते हैं तो दोनों तरफ आम लोगों में उम्मीदें हिलोरें लेने लगती हैं, और राजनीतिक दल भी और मीडिया भी ‘गा-गा’ करने लगते हैं, मानों आज से ही दोस्ती का नया इतिहास रच दिया जाने वाला हो! हालाँकि सबको मालूम है कि ऐसा होगा नहीं! कभी हुआ ही नहीं। इधर कुछ महीनों में बातचीत की फुरेरी सूखी, उधर सम्भावनाओं का गर्भपात हुआ और भारत किसी न किसी नये हमले का निशाना बना! फिर भी हर नयी बातचीत के वक्त लोग उम्मीद से होते हैं कि शायद इस बार वह नामुमकिन मुमकिन हो जाये!

पाकिस्तान की उलझी-गुलझी जन्म-नाल!

आख़िर वह नामुमकिन हर बार नामुमकिन ही क्यों रह जाता है। वजह एक ही। हालाँकि मुहम्मद अली जिन्ना कभी सोचते थे कि भारत और पाकिस्तान को अमेरिका और कनाडा की तरह एक-दूसरे का पड़ोसी रहना चाहिए, लेकिन वह ख्याल कभी ख्याल से आगे न बढ़ सका! वजह यह कि पाकिस्तान अपने शरीर से चिपकी ऐसी उलझी-गुलझी जन्म-नाल के साथ पैदा हुआ, जिसे उससे अलग किया जाना सम्भव न हो। इसलिए उसकी यह नाल अब तक भारत से जुड़ी भी हुई है, और वक्त पर काटी न जा सकने के कारण जहरीली भी हो चुकी है। पाकिस्तान इस एकमात्र विचार के साथ ही पैदा हुआ कि उसका निर्माण भारत से अलग हो कर हुआ है, और हर तरीक़े से भारत से अलग दिखने के लिए हुआ है, उसे भारत की ‘एंटी-इमेज’ होना चाहिए, जो हर मामले में भारत की बराबरी करे, लेकिन हो उसके ठीक विपरीत! ‘हिन्दूबहुल’ भारत के मुकाबले पाकिस्तान ‘इस्लाम के किले’ के रूप में देखा जाये, जो अपने पड़ोस में बसी दुनिया की सबसे बड़ी हिन्दू आबादी को चुनौती देता रहे!

इस्लामीकरण का दबाव

यही पाकिस्तान की मूल समस्या है और इसी ने पाकिस्तान को गढ़ा है। पाकिस्तान बनते ही वहाँ संविधान को लेकर उठा-पटक शुरू हो गयी थी और 1950 में ही जमात-ए-इसलामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी ने खुल कर संविधान-सभा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था कि उसमें सब ‘नाकाबिल’ लोग घुस गये हैं, जो इस्लामी संविधान बना ही नहीं सकते! अन्तत: यह संविधान सभा भंग करनी पड़ी। ‘इस्लामीकरण’ के इस घटाटोप दबाव का ही नतीजा रहा कि पाकिस्तान में आधुनिक, सेकुलर और बहुलतावादी समाज के पक्षधरों को हमेशा ‘गद्दार’ या ‘पाकिस्तान की अवधारणा का विरोधी’ कह कर खारिज किया जाता रहा। (ठीक वैसे ही, जैसे आजकल हमारे देश में हिन्दुत्ववादी ताकतें सेकुलर लोगों और संगठनों को ‘भारत-विरोधी’ और ‘देशद्रोही’ घोषित करने में लगी हुई हैं)। जनरल जिया की मौत के बाद जब 1988 में पाकिस्तान में चुनाव हो रहे थे, तब पाकिस्तान के मानस पर इस्लाम के इस दबाव को इस लेखक ने खुद अपनी आँखों से देखा था कि ऑक्सफ़ोर्ड की पढ़ी-लिखी, विचारों से अत्यन्त आधुनिक और प्रगतिशील बेनजीर भुट्टो कैसे अपनी हर चुनावी सभा में तस्बीह लेकर आतीं, सभा के पहले और बाद में ‘नारा-ए-तकबीर’ लगवातीं और अपने को ‘कट्टर मुसलमान’ साबित करने की पुरजोर कोशिश करतीं! पाकिस्तान आज इस्लामीकरण के उसी जुनून का नतीजा भुगत रहा है, वरना वह आज इस्लामी आतंकवाद और तालिबान का गढ़ न बना होता, उसकी सेना ने खुद अपनी छावनी के भीतर उसामा बिन लादेन को छिपा कर न रखा होता और अब वहाँ आईएसआईएस का नया खतरा न मँडरा रहा होता!

क्या वाकई झगड़े की जड़ कश्मीर है?

पाकिस्तान की तरफ से बार-बार कहा जाता है कि झगड़े की जड़ कश्मीर विवाद है और जब तक यह मसला हल नहीं होता, तब तक बाकी सारी समस्याएँ बनी रहेंगी। लेकिन क्या सचमुच यह बात सही है? क्या सचमुच कश्मीर समस्या हल हो जाने से दोनों देशों के रिश्ते सुधर जायेंगे? और क्या पाकिस्तान के राजकाज के असली संचालक कश्मीर का हल बातचीत से चाहते भी हैं या नहीं? इन सवालों का जवाब टटोलने से पहले यह देखते हैं कि कश्मीर समस्या पाकिस्तान के किन मकसदों को पूरा करती है? पहला यह कि कश्मीर में अशान्ति बनाये रख कर भारत को लगातार उलझाये रखना। दूसरा यह कि कश्मीर विवाद, पाकिस्तान की जेनेसिस में शामिल ‘भारत-विरोध’ के तत्व को जनता में जीवित रखने के लिए एक बहुत पुख्ता कारण प्रदान करता है। और तीसरा यह कि कश्मीर के बहाने इस्लामी आतंकवाद को आसानी से जिलाये रख कर उसे ‘हिन्दू भारत’ के खिलाफ जिहाद चलाते रहने के लिए उत्प्रेरित रखा जा सकता है। और यह बात ‘इस्लाम का ध्वजवाहक’ होने की पाकिस्तान की पहचान को भी अर्थ देती है। यानी कश्मीर विवाद पाकिस्तान के जन्म की दोनों मूल आकाँक्षाओं को पोषित करता है, पहला भारत के विरुद्ध होना और दूसरा इस्लाम का ध्वजाधारी होना!

सेना, आईएसआई और मुल्ला गँठजोड़!

और पाकिस्तानी सेना, उसकी पिट्ठू खुफिया एजेन्सी आईएसआई और मौलवी, इन तीनों के काकस की प्राणवायु यही है। सेना ‘इस्लाम की तलवार’ कहे जाने में फख्र महसूस करती है, आईएसआई तालिबान से लेकर समूचे आतंकी तंत्र का रिंगमास्टर है। और मौलवी दीन की मुहर हैं! और इसलिए यही काकस पाकिस्तान का असली संचालक है। अब अगर कश्मीर समस्या हल हो गयी तो इस काकस की जीवनी-शक्ति ही सूख जायेगी, उसे ‘इस्लाम की रक्षा’ और भारत-विरोध के नये कारण ढूँढने पड़ेंगे, वरना पाकिस्तान में इन तीनों की ही प्रासंगिकता खत्म हो जायेगी!

अभी हाल में पकड़े गये पाकिस्तानी आतंकी नावेद ने खुद यह खुलासा किया कि वह तो जुए की लत में फँसा था और एक मौलवी की नजर उस पर पड़ी, जिसने उसे तथाकथित जिहाद के लिए ‘तैयार’ किया। और याद कीजिए कि जब राजीव गाँधी और बेनजीर भुट्टो जैसे दो युवा नेता दोनों देशों में रिश्ते सुधारने की ईमानदार कोशिश में लगे थे, तो आईएसआई ने कैसे खेल बिगाड़ दिया था! आईएसआई ने राजीव-बेनजीर बातचीत खुफिया तौर पर रिकार्ड कर ली और एक अखबार को लीक कर दी! बेनजीर ने खुद अपनी किताब ‘बेनजीर भुट्टो: रिकन्सिलिएशन, इस्लाम, डेमोक्रेसी ऐंड द वेस्ट’ में लिखा है कि किस तरह आईएसआई ने उन्हें ‘भारत के एजेंट’ के रूप में बदनाम करने की कोशिश की। दूसरी घटना नवाज शरीफ के साथ हुई, जब उन्होंने प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी का लाहौर में दिल खोल कर स्वागत किया। लेकिन इस गर्मजोशी के तीन महीनों के भीतर ही सेना ने खेल कर दिया और करगिल में घुसपैठ हो गयी। नवाज शरीफ को इस साजिश के बारे में वाजपेयी जी के फोन से पता चला! सेना-आईएसआई-मौलवी काकस का अन्दाजा इन तीन उदाहरणों से आसानी से लगाया जा सकता है।

पाकिस्तान में असली सरकार किसकी?

इन उदाहरणों से यह भी साफ है कि पाकिस्तान में चुनी हुई सरकारें चाह कर भी न सार्थक बात कर सकती हैं और न भारत से रिश्ते सुधार सकतीं हैं, क्योंकि ऐसा हो गया तो सेना और आईएसआई की भूमिका और सत्ता भी लगभग खत्म हो जायेगी। बहरहाल, इस साल उफा में नरेन्द्र मोदी से हुई बातचीत के बाद हुई लानत-मलामत से घबराये नवाज ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की वार्ता के ठीक पहले सेना और आईएसआई दोनों से पूछ लिया है कि क्या बातचीत करनी है! यानी अब बातचीत पर सीधे सेना का नियंत्रण होगा! सेना भी जानती है कि दुनिया को दिखाने के लिए बातचीत करते रहना जरूरी है। लेकिन शायद ही वह चाहेगी कि बातचीत रिश्ते सुधारने की तरफ बढ़े।

पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद का खेल!

1971 की करारी हार के बाद जब बांग्लादेश अलग हो गया और पाकिस्तान को मजबूरन 1972 में इन्दिरा गाँधी की शर्तों पर शिमला समझौता करना पड़ा, तो मामला कुछ दिन शान्त रहा। तब कश्मीर को भड़का पाने की गुंजाइश नहीं थी, इसलिए कुछ साल बाद आईएसआई ने पंजाब में आतंकवाद का घिनौना खेल खेला। और जब वहाँ आतंक का दौर खत्म हो गया तो 90 के दशक से आईएसआई ने कश्मीर और भारत के दूसरे हिस्सों की तरफ रुख किया। जाहिर-सी बात है कि उसकी पूरी कोशिश दुश्मनी, नफरत और युद्ध की भट्टियों को दहकाये रखने की ही है। 1971 ऐसे ही वहाँ सबके गले में फाँस की तरह चुभता रहता है। उसका बदला लेना काकस के एजेंडे से खत्म नहीं हुआ है। तो बदला युद्ध किये और जीते बिना तो लिया नहीं जा सकता।

तो क्या काकस युद्ध करने और जीत पाने की स्थिति में है? कतई नहीं! लेकिन 1965 और 1999 को याद कीजिए। 65 में अयूब खाँ को लगा था कि कश्मीर में जनता गुस्से में है, और अगर गड़बड़ी फैलाने के लिए घुसपैठिये भेज दिये जायें तो जनता उनका साथ देगी। यही सोच कर उन्होंने तीस हजार घुसपैठिये झोंक दिये, लेकिन यह दाँव नहीं चला। इसी तरह, मुशर्रफ ने 1999 में मौका पा कर करगिल का दाँव चला, वह भी फेल हो गया। यकीनन काकस किसी अगले मौके के इन्तजार में और किसी ‘ताकतवर’ मददगार के सहारे की तलाश में होगा। मौका कब मिलेगा, जल्दी या देर में, या नहीं ही मिलेगा, कहा नहीं जा सकता। इसलिए फिलहाल मौजूदा छाया युद्ध जारी रहेगा, बदस्तूर। और तब तक नहीं रुकेगा, जब तक एक अन्तिम निर्णायक युद्ध न हो जाये या फिर कुछ ऐसा हो जाये कि पाकिस्तान में बना सत्ता का नापाक काकस ही ध्वस्त हो जाये।

लेकिन इस पथरीली सच्चाई के बावजूद हमारे दिल पाकिस्तान के लिए पसीजते और पिघलते रहते हैं। क्योंकि वह जन्म-नाल कट नहीं पायी है! इसलिए और रास्ता भी क्या है, सिवा इसके कि समय को अपना काम करने दें!

(देश मंथन, 04 जनवरी 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें