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बिहार चुनाव : एक दृष्टिकोण
सुशांत झा, पत्रकार :
कई बार पोस्ट की टिप्पणियाँ पोस्ट की नानी साबित होती हैं! मेरे पिछले पोस्ट पर एक टिप्पणी आयी कि बिहार में जो भी सरकार बनेगी वो एक कमजोर सरकार होगी लेकिन विपक्ष मजबूत होगा। ऐसा हो सकता है।
वादों से बिजली
आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
अगर वादों, नारों से बिजली बनाना संभव होता, तो बिहार पूरे देश को बिजली सप्लाई करने जितनी बिजली बना पाने में समर्थ हो जाता। बिहार में वादे ही वादे सब तरफ से गिर रहे हैं। चुनाव आम तौर पर वादा महोत्सव होते हैं, पर बिहार विधानसभा चुनाव तो सुपर-विराट-महा-वादा महोत्सव हो लिये हैं।
बिहार में ‘हवा’ उसकी नहीं, जिसकी जीत होने वाली है!
अभिरंजन कुमार :
बिहार चुनाव एक पहेली की तरह बन गया है। अगड़े, पिछड़े, दलित, महादलित-कई जातियों/समूहों के लोगों से मेरी बात हुई। उनमें से ज्यादातर ने कहा कि उन्होंने बदलाव के लिए वोट दिया, लेकिन साथ ही वे इस आशंका से मायूस भी थे कि बदलाव की संभावना काफी कम है।
बिहार चुनाव में ध्रुवीकरण के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं लेखक
अभिरंजन कुमार :
किसी दिन पुरस्कार लौटाने के लिए यह जरूरी है कि आज पुरस्कार बटोर लो। पुरस्कार मिले तो भी सुर्खियाँ मिलती हैं। मिला हुआ पुरस्कार लौटा दो तो और अधिक सुर्खियाँ मिलती हैं। समूह में पुरस्कार लौटाना चालू कर दो तो क्रांति आ जाती है। ऐसी महान क्रांति देखकर मन कचोटने लगा है। काश...
ज्ञान ही ज्ञान
सुशांत झा, पत्रकार :
उन लोगों पर ताज्जुब होता है जो कहते हैं कि पीएम को बिहार में 40 सभाएँ नहीं करनी चाहिए। अरे भाई, इसका क्या मतलब कि जिस बच्चे को 12वीं में 99 फीसदी नंबर आये वो IIT की परीक्षा में दारू पीकर इक्जाम देने चला जाये? हद है! चुनाव है या फेसबुक पोस्ट कि कुछ भी लिख दिया? विपक्षी दलों के पास नेता नहीं है और जो हैं या तो वो जोकर किस्म के हैं या किसी आईलैंड पर तफरीह कर रहे हैं तो इसमें नरेंद्र मोदी का क्या दोष है? ये तो उस आदमी का बड़प्पन है कि सांढ का सींग पकड़कर मैदान में डटा हुआ है।
बिहार में सत्ता बदलनी चाहिए
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
अपने दोस्तों से जब मैं बिहार की दुर्दशा की चर्चा करता हूँ और कहता हूँ कि अब बिहार में सत्ता बदलनी चाहिए, तो मेरे साथी मेरी ओर हैरत भरी निगाहों से देखने लगते हैं, और पूछने लगते हैं कि संजय सिन्हा, कहीं तुम भाजपाई तो नहीं हो गये?
बदल गया बिहार
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
एक श्राद्ध में शामिल होने के लिए मुझे दिल्ली से पटना आना पड़ा। पटना इन दिनों चुनावी रंग में रंगा है। अब चुनाव से मेरा क्या लेना देना? एयरपोर्ट से होटल तक पूरा शहर तरह-तरह के चुनावी पोस्टरों से पटा पड़ा है। कहीं लिखा है, “अबकी बार, नीतीश कुमार” तो कहीं लिखा है, “बदलेगा बिहार, बदलेगी सरकार।”
वायदों की बौछार, पर धन का पता नहीं
राजेश रपरिया :
आज मतदान के प्रथम चरण के साथ बिहार का भाग्य इलेक्ट्रॉनिक मतपेटिकाओं में बंद होना शुरू हो चुका है। नतीजे एनडीए के पक्ष में आयें या नीतीश-लालू-कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में, पर इस बार बिहार चुनाव निष्कृष्टता और मर्यादाहीनता की सभी सीमाएँ लांघ चुका है। सिद्धांतहीनता अपने चरम पर है। चुनावों में इतना वैमनस्य कभी देखने में नहीं आया, जो इस बार बिहार में देखने को मिल रहा है। मतदान नजदीक आने के साथ सारे मुद्दे गुल हो गये हैं और शुद्ध रूप से जातियों के गणित पर यह चुनाव आ कर टिक गया है।
कुछ नहीं करना भी एक फैसला है!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो प्रधानमंत्री आखिर दादरी पर भी बोले। मौका गुरुवार को दिन की उनकी आखिरी चुनावी रैली का था। इसके पहले वह दिन भर में बिहार में तीन रैलियाँ कर चुके थे। गोमांस पर लालू प्रसाद यादव के बयान पर खूब दहाड़े भी थे। 'यदुवंशियों के अपमान' से लेकर 'लालू की देह में शैतान के प्रवेश' तक जाने क्या-क्या बोल चुके थे वह! एक-एक कर तीन रैलियाँ बीतीं, दादरी पर नमो ने कोई बात नहीं की। लोगों ने सोचा कि कहाँ प्रधानमंत्री ऐसी छोटी-छोटी बातों पर बोलेंगे? अब यह नीतीश कुमार के ट्वीट का कमाल था या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहले से तय किया था कि वह नवादा में दिन की अपनी आखिरी रैली में ही दादरी पर बोलेंगे, यह तो पता नहीं। खैर वह बोले! अच्छी बात है!
बलि के बकरों के लिए किसका काँपता है कलेजा?
अभिरंजन कुमार :
अखलाक को किसी हिन्दू ने नहीं मारा। हिन्दू इतने पागल नहीं होते हैं। उसे भारत की राजनीति ने मारा है, जिसके लिए वह बलि का एक बकरा मात्र था। सियासत कभी किसी हिन्दू को, तो कभी किसी मुस्लिम को बलि का बकरा बनाती रहती है। इसलिए जिन भी लोगों ने इस घटना को हिन्दू-मुस्लिम रंग देने की कोशिश की है, वे या तो शातिर हैं या मूर्ख हैं।