बिहार चुनाव : एक दृष्टिकोण

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सुशांत झा, पत्रकार : 

कई बार पोस्ट की टिप्पणियाँ पोस्ट की नानी साबित होती हैं! मेरे पिछले पोस्ट पर एक टिप्पणी आयी कि बिहार में जो भी सरकार बनेगी वो एक कमजोर सरकार होगी लेकिन विपक्ष मजबूत होगा। ऐसा हो सकता है।

एक टिप्पणी थी कि जनमत 50-50 में बंट गया है, सो दुबारा चुनाव जल्द करवाना होगा। ये बात सन् 2005 की याद दिलाती है जब नीतीश सरकार को पूरा बहुमत नहीं मिला था और दुबारा चुनाव करवाना पड़ा था।

बिहार चुनाव में जमीनी मुद्दे गौण हो गये और वो ‘लालू को रोकने’ या ‘बीजेपी को रोकने’ तक पर सिमट गया। बल्कि कहें कि ज्यादा प्रभावी ढंग से ‘बीजेपी को रोकने’ का मुद्दा मुखर हो गया। एक ऐसे समय में जब बिहार पिछले पच्चीस साल में लालू समर्थन से लालू विरोध की ओर लौटता गया है-तो ये मानना मुश्किल है कि इतिहास का चक्का 180 डिग्री घूम जाएगा। 

बिहार का राजनीतिक अवचेतन मुख्यत: लालू समर्थन या लालू विरोध पर केंद्रित हो गया- जबकि कायदे से उसे नीतीश समर्थन या नीतीश विरोध होना चाहिए था। बीजेपी ने आरक्षण पर बयान देकर और लालू को सीधा निशाना बना कर इसे वहीं पहुँचा दिया जहाँ वो पहुँचाना चाहती थी। ऐसे में धार्मिक ध्रुवीकरण और लालू विरोधी मतों का काउंटर पोलराइजेशन अगर बीजेपी को बहुमत दिला दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

मुझे सन् 2007-08 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान की एक परिचर्चा याद आती है। मित्र Rishi Ranjan Kala के मामा पहाड़ से दिल्ली आए थे, दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं। उस समय काउंटी के चुनाव में हिलेरी आगे थी, ओबामा पीछे थे। मैंने पूछा- मामाजी, कौन बनेगा अमेरिका का राष्ट्रपति? उन्होंने कहा- ओबामा। मैंने कहा- वो तो बुरी तरह पिछड़ गये, ये असंभव है। मामा ने कहा कि देखना वहीं बनेगा। उनका तर्क था कि एक युद्धोन्मद और शिकारी किस्म के पूंजीवादी देश का अवचेतन अपने इतिहास के सर्वशक्तिशाली समय में अपने देश की कमान एक स्त्री को नहीं देगा! ये स्त्री का स्वभाव नहीं है कि वो हिंसा करे या पूरी दुनिया पर अपनी सत्ता थोपे। थोड़ी अध्यात्मिक किस्म की बात थी, समझ नहीं आयी। लेकिन कुछ दिनों के बाद उनकी बात सच साबित हुई।

बिहार के परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी संदर्भ उचित तो नहीं है लेकिन बिहार का अवचेतन क्या है? समाजिक न्याय आन्दोलन का एक मजबूत गढ़ होने के साथ पिछले ढाई दशक में लालू समर्थन की तरफ से लालू विरोध की तरफ रुख करना बिहार के अवचेतन में है। ऐसे में वो चुनाव परिणाम में कैसे नहीं तब्दील होगा- यह देखने वाली बात है। और अगर वो नहीं होगा तो बिहार में खंडित जनादेश हो सकता है। एनडीए को रोकने की कोशिश वैसे ही हो सकती है जैसे सन् 1996 में वाजपेयी को रोकने की कोशिश हुई थी या सन् 2005 में नीतीश कुमार को। हो सकता है ऐसी सूरत में दुबारा चुनाव करवाना पड़े। 

(देश मंथन, 06 नवंबर 2015)

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