Thursday, August 21, 2025
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‪‎यादें‬

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आदमी जिन्दगी का सफर तय करता है। मोटर-गाड़ियाँ सिर्फ सड़कों का सफर तय करती हैं। समय के साथ जिन्दगी के सफर में आदमी बहुत कुछ सीखता है और नया होता जाता है, जबकि सड़क के सफर में मोटर-कार घिसती हैं और पुरानी पड़ती जाती है। 

इमरजंसी – एक याद (4)

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार एक अमेरिकी, जो घनघोर नास्तिक था, भारत घूमने आया और यहाँ से वापस जाते हुए वो अपने साथ भगवान की एक मूर्ति लेकर गया। लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि ये नास्तिक अमेरिकी भला भारत से भगवान की मूर्ति क्यों खरीद लाया है। लोगों ने उससे पूछा कि भाई, इस मूर्ति में ऐसी क्या बात है। 

इमरजंसी – एक याद (2)

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

शायद पिताजी को इस बात का आभास हो चुका था कि दिल्ली में कुछ हो रहा है। वैसे तो पिताजी की आदत में शुमार था सुबह और शाम को रेडियो पर खबरें सुनना। सुबह आठ बजे रेडियो ऑन था।

मर्द

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जून का महीना मेरी यादों का महीना होता है। आज जिन यादों से मैं गुजरने की सोच रहा हूँ, उस पर तो पूरी किताब भी लिख सकता हूँ। हालाँकि यादों की जिन कड़ियों से मैं गुजरने की अभी सोच रहा हूँ, वो बेशक एक दस्तावेज बन सकता है पर उसे ऐतिहासिक दर्जा कभी नहीं मिल सकता, क्योंकि चौथी-पाँचवीं कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा क्या इतिहास लिख पायेगा, और कोई क्यों उसपर यकीन कर पायेगा। 

दिल की सुनो, बदलाव भी जरूरी

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

प्रिय संजय सिन्हा,

पिछले तीन दिनों से तुम जयप्रकाश नरायण, इमरजंसी, इन्दिरा गाँधी, अच्छे दिन वगैरह-वगैरह लिख रहे हो उसका फल तुमने भोग लिया है। कहाँ तुम एक-एक पोस्ट पर हजार-हजार लाइक बटोरा करते थे, और जबसे तुमने जरा राजनीतिक यादों की झलकियों को दिखाने की कोशिश की, तुम्हें तुम्हारी औकात पता चल गयी।

सरकार के वादे और टूटती उम्मीदें

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

भोपाल में मेरे इतिहास की प्रोफेसर मिसेज मित्तल की आँखें ये पढ़ाते हुए चौड़ी हो जाती थीं कि फासिज्म ‘प्रचार’ पर बहुत जोर देता है।

दिल्ली 1975 : मेरा खोया बचपन

पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :

जैसे ही घुमावदार रिहाइश गलियों के बीच से निकलते हुये मुख्य सड़क पर निकलने को हुआ वैसे ही सामने टैगौर गार्डन केन्द्रीय विद्यालय का लोहे का दरवाजा इतने नजदीक आ गया कि वह सारे अहसास झटके में काफूर हो गये, जिन्हें सहेज कर घर से निकला था।

ओय गुइयाँ, फिर जनता-जनता!

क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

क्या करें? मजबूरी है! अभी ताजा मजबूरी का नाम मोदी है! यह जनता खेल तभी शुरू होता है, जब मजबूरी हो या कुर्सी लपकने का कोई मौका हो! इधर मजबूरी गयी, उधर पार्टी गयी पानी में!

अबकी बार, क्या क्षेत्रीय दल होंगे साफ?

क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

राजनीति से इतिहास बनता है! लेकिन जरूरी नहीं कि इतिहास से राजनीति बने! हालाँकि इतिहास अक्सर अपने आपको राजनीति में दोहराता है या दोहराये जाने की संभावनाएँ प्रस्तुत करता रहता है!

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