ओय गुइयाँ, फिर जनता-जनता!

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क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

क्या करें? मजबूरी है! अभी ताजा मजबूरी का नाम मोदी है! यह जनता खेल तभी शुरू होता है, जब मजबूरी हो या कुर्सी लपकने का कोई मौका हो! इधर मजबूरी गयी, उधर पार्टी गयी पानी में!

किसी मौके ने जोड़ा था, नया मौका तोड़ देता है! तो इस बार मजबूरी भी है और मौका भी! मोदी लहर ऐसी आयी कि जा ही नहीं रही है! लोकसभा चुनाव में लहर लहराती रही, फिर महाराष्ट्र में लहरी। हरियाणा में लहरी और चौटाला जी साफ हो गये। अभी झारखंड में भी विरोधियों के पसीने छुड़ा रही है! तो अब बिहार में क्या होगा? कुछ महीनों बाद वहाँ चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में 2017 में चुनाव होंगे। तो दाँव पर हैं नीतीश, लालू और मुलायम के किले! अगर ये किले इस बार ढह गये तो लालू, नीतीश, मुलायम सबके दिन लद जायेंगे, उन्हें राजनीति फिर कोई मौका दे न दे, कोई कह नहीं सकता। तो अब जान पर बन गयी है, तो इसलिए फिर से जनता टानिक घोटने की तैयारी है।

तीन बार की जली- भुनी खिचड़ी

सैंतीस साल पहले इन्दिरा गाँधी की इमर्जेन्सी के खिलाफ पहली बार 1977 में जनता पार्टी बनी थी। तब इन्दिरा मजबूरी थी! एक तरफ इन्दिरा, बाकी सब इन्दिरा को कैसे हरायें? इसलिए कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ कर जनता पार्टी बन गयी और दो साल में टूट-फूट कर छितर गयी। फिर कुछ साल बाद आया मौका बोफोर्स में दलाली के आरोप लगे। वीपी सिंह के इर्द-गिर्द फिर जमावड़ा हुआ। लगा कि वीपी के बहाने सत्ता की सीढ़ी मिल जायेगी। मिली भी, फिर फूट-फाट कर सब अपने-अपने तम्बू उठा-उठा अलग हो गये। फिर कुछ साल बाद एक और मौका आया। यूनाइटेड फ्रंट की नौटंकी चली और बीच रास्ते फिर मटकी फूट गयी! अब आज मोदी की मजबूरी है! एक मोदी, बाकी सब मोदी के थपेड़ों से अकबकाये हुए!

इसलिए तीन बार की जली-भुनी खिचड़ी अब चौथी बार भी हाँडी पर चढ़ाने की जुगत हो रही है! हालाँकि इस बार तरह-तरह के बाराती नहीं है। सिर्फ पाँच पार्टियाँ हैं। पुराने जनता परिवार की। पाँचों क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं। अपने-अपने प्रदेशों के बाहर लगभग बेअसर। देवेगौड़ा कर्नाटक के बाहर कोई जोर नहीं रखते, नीतीश कुमार और लालू यादव बिहार के बाहर झुनझुनों की तरह भी बजाये नहीं जा सकते, मुलायम सिंह अपने उत्तर प्रदेश को छोड़ किसी और अखाड़े में ताल ठोकने लायक नहीं हैं, ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा में ही पिट कर बैठे हैं। तो फिर ये एक-दूसरे के साथ आ कर एक-दूसरे का क्या भला कर सकेंगे कि पाँच पार्टियों का विलय कर नयी पार्टी बनायी जाये! एक नयी राष्ट्रीय पार्टी क्यों? पाँच क्षेत्रीय पार्टियाँ क्यों नहीं? अब तक तो इन क्षेत्रीय पार्टियों को एक साथ आने की जरूरत नहीं हुई, और अगर जरूरत महसूस हुई भी तो चुनावी गठबंधन कर भी तो काम चलाया जा सकता था! तो गठबन्धन क्यों नहीं, विलय ही क्यों? राष्ट्रीय पार्टी बन कर क्या मिलेगा? सवाल बस यही है।

मोदी के तरकश में तीन तीर 

‘राग देश’ के पाठकों को याद होगा, करीब डेढ़ महीने पहले (25 अक्तूबर 2014 को) इसी स्तम्भ में लिखा गया था कि ‘अबकी बार क्या क्षेत्रीय दल होंगे साफ?’ मोदी की विकास मोहिनी ने क्षेत्रीय दलों के तमाम जातीय समीकरणों को ध्वस्त कर दिया है और क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल को कई राज्यों में तो पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिया है। लोगों का मूड अभी राष्ट्रीय विकास, राष्ट्रीय राजनीति की तरफ ज्यादा है। फिर आम तौर पर देश के सभी क्षेत्रीय दल किसी एक नेता के करिश्मे पर चलते रहे हैं लेकिन मोदी करिश्मे की चकाचौंध में फिलहाल सारे क्षेत्रीय करिश्मे अपनी चमक खो चुके हैं। कुल मिला कर क्षेत्रीय दल अब तक जिस आधार पर खड़े थे, वह कई राज्यों में तो काफी हद तक दरक चुका है। लोग विकास को क्षेत्रवाद के ऊपर तरजीह दे रहे हैं। इसलिए क्षेत्रीय दलों के भविष्य पर संकट साफ दिख रहा है। जनता परिवार की सभी क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति का एक बड़ा आधार उनका जातीय वोट बैंक भी था लेकिन मोदी ने विकास के साथ-साथ पिछड़ी जाति का कार्ड खेल कर यहाँ भी गहरी सेंध लगा दी। मोदी के तरकश में अब तीन तीर हैं, विकास, पिछड़ा वर्ग और हिन्दुत्व!

इसलिए, सबसे बड़ा लाभ मुलायम सिंह ऐंड कम्पनी को यही दिखता है कि राष्ट्रीय पार्टी के रूप में अपने आपको बदलने से कम से कम उन्हें आज नकारात्मक समझी जा रही अपनी क्षेत्रीय पहचान से छुटकारा मिलेगा। दूसरे यह कि राष्ट्रीय पहचान का गिलाफ चढ़ा कर भी जातीय आधार को मजबूती के साथ बाँधे रखा जा सकता है ताकि मोदी के पिछड़ा कार्ड को अपने जातीय वोट बैंक में घुसपैठ करने से रोका जा सके। साथ ही एक तगड़े सेकुलर विकल्प के नाम पर मुस्लिम वोटों का बँटवारा भी काफी हद तक शायद वह रोक पायें। पार्टी के लिए प्रचार करने के लिए धुरंधर नेताओं की बड़ी फौज भी उपलब्ध हो जायेगी तो बीजेपी के प्रचार अभियान का मुकाबला भी पहले से आसान हो जायेगा। गठबंधन के मुकाबले विलय होने से पार्टी नेताओं के अपने-अपने जातीय आधार का जो भी सहारा दूसरे को मिल सकता है, वह दिया जा सकेगा। संसद में विपक्ष की एक बड़ी ताकत के रूप में भी अपने को पेश किया जा सकेगा।

नीतीश फिर उभर सकते हैं   

विलय के पीछे यह सारे कारण तो हैं, कुछ और कारण भी हैं। मुलायम सिंह को पार्टी का नेता घोषित किया गया है। उनकी समाजवादी पार्टी में कोई नेता ऐसा नहीं है, जो मुलायम के बाद पार्टी को संभाल सके। अखिलेश को अपनी जैसी धाक जमा लेनी चाहिए थी, वह फिलहाल अब तक वैसा नहीं कर पाये हैं। उधर, बिहार में लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल में भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके करिश्मे की बदौलत पार्टी दौड़ सके। दूसरी तरफ, चौटाला और देवेगौड़ा दोनों अपनी सीमाएँ जानते हैं और राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें इस विलय में कोई नुकसान नहीं दिखता। मुलायम और लालू की बढ़ती उम्र के कारण नीतीश पार्टी में आसानी से अपने आपको नंबर दो पर स्थापित कर लेंगे। मोदी-विरोधी होने के साथ-साथ विकास और गवर्नेंस की अपनी पहचान को भुना कर वह राष्ट्रीय स्तर पर अपने आपको मोदी के ठोस विकल्प के रूप में पेश भी कर सकते हैं। 

नयी पार्टी बनाने के पीछे सोच और कारण फिलहाल यही नजर आते हैं लेकिन मजबूरी, मौके की जरूरत और जोड़-तोड़ से चिपकायी गयी पार्टियाँ न चल पाती हैं और न जनता में अपनी कोई साख बना पाती हैं। न कार्यक्रम हो, न संकल्प हो और न निष्ठा, तो पार्टी किस जमीन पर खड़ी होगी, खास कर तब जबकि सामने तीन तीरों वाला धनुर्धर मोदी हो, जिसने अब तक सारे चुनावी निशाने सही लगाये हैं! (raagdesh.com)

(देश मंथन, 06 दिसंबर 2014) 

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