Tag: Ratnakar Tripathi
भीड़ के पीछे दूल्हा चलता है, सेनापति तो आगे चलता है
रत्नाकर त्रिपाठी :
बनारस की सड़क पर इतना बड़ा जमावड़ा देखे मुद्दत हो गयी थी। अद्भुत दृश्य था, अगर ये मेला होता, तो इसे बनारस की नाग-नथैया और नाटी-इमली के भरत-मिलाप की तरह लक्खा मेले का दर्जा मिल जाता। माँ गंगा की गोद में मूर्ति विसर्जन की माँग लेकर आबाल-वृद्ध सड़क पर थे। भीड़ की खूबसूरती ये थी कि 80 % लोग एक-दूसरे को जानते नहीं थे, लेकिन 'एक मांग-एक धुन', उन्हें आपस में माला के मोतियों की तरह पिरोये हुई थी।
औरंगजेब में काहे रब दिखता है?
रत्नाकर त्रिपाठी :
अमें, कान पक गया विलाप सुनते-सुनते; ऐसे बुक्का फाड़-फाड़ कर रो रहे हो, जैसे तुम्हरे अब्बा का इंतकाल हो गया; सड़क का नाम ही न बदला है, कोई औरंगजेब का धर्मांतरण थोड़े ही हो गया जो छाती पीटे जा रहे हो। ओवैसी मुँह पिटाय पड़े हैं, एक्को मुसलमान टस से मस नहीं हुआ; लेकिन तुम्हरी स्थिति तो ऐसी है, जैसे सारा पहाड़ तुम्हरे ऊपर टूट पड़ा है।
नैतिकता की ढोल, मन की पोल
रत्नाकर त्रिपाठी :
"ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं" के सिद्धांत को आदर्श बना के चलने वाले भी नैतिकता के ढोल बजाने लगे हैं।
‘आम आदमी’ को आखिरी सलाम
रत्नाकर त्रिपाठी :
जब से लिपियों का ठीक से ज्ञान हुआ, तब से अखबार की दुनिया में झाँकने लगा था। घर से लिए बाहर तक हिंदी बोली जाती थी, सो हिंदी अखबार ठीक-ठाक बांच लेता था। बनारस में "पक्की गुजराती घुसपैठ" तो इस साल मई में हुई, लेकिन मेरे घर में ये पांच दशक पहले हो गयी थी।