अखिलेश शर्मा, वरिष्ठ संपादक (राजनीतिक), एनडीटीवी :
हर चुनाव से पहले देश के सबसे राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी के प्रदर्शन को लेकर बढ़-चढ़ कर दावे किए जाते हैं।
राज्य के नेताओं का पता नहीं, मगर केंद्र के नेता इस खुशफहमी में रहते हैं कि पार्टी 90 के दशक के सुनहरे दौर में वापस जा रही है। चाहे विधानसभा हो या लोक सभा, हर चुनाव से पहले दावा किया जाता है कि बीजेपी के पास उसका कोर वोट बैंक यानी अगड़े वापस आ रहे हैं और गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलितों के समर्थन से बीजेपी खोई ताकत दोबारा हासिल कर लेगी। लेकिन नतीजे आने के साथ ही ये भ्रम टूट जाता है।
2004 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने जादुई रणनीतिकार माने जाने वाले प्रमोद महाजन को यूपी की कमान सौंपी। मगर वो नाकाम साबित हुए। 2009 के लोकसभा चुनाव में अरुण जेटली भी कोई करिश्मा नहीं दिखा सके। पिछले विधानसभा चुनाव में संगठन पर पकड़ रखने वाले संजय जोशी को नितिन गडकरी ने कमान दी। मगर बीजेपी की सीटें घट गईं। इस बार नरेंद्र मोदी के दायें हाथ अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश से ही हैं। राज्य में मोदी को लेकर कार्यकर्ताओं में जबर्दस्त उत्साह है। आम लोगों में उन्हें लेकर दिलचस्पी है। यूपी में मोदी की सभी रैलियों में भारी संख्या में भीड़ जुटी है। मगर उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही पार्टी हवा से उतर कर जमीन पर आती नजर आ रही है।
यूपी-बिहार के बारे में हमेशा कहा जाता है कि चुनाव से पहले चाहे जिस पार्टी या नेता की हवा हो, मगर जमीनी स्तर पर आकलन तभी हो सकता है जब सभी पार्टियों के उम्मीदवारों के नामों का एलान हो जाए। उत्तर प्रदेश के लिए बीजेपी ने 15 मार्च को 53 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की और उसके बाद से ही पचास से ज्यादा सीटें जीत लेने के उसके दावों की पोल खुलने लगी है। उम्मीदवारों के खिलाफ कार्यकर्ताओं का गुस्सा सड़कों पर दिखने लगा है। बीजेपी नेताओं को एक बार फिर उसी भितरघात की आशंकाएं सताने लगी हैं जिसकी शिकार पार्टी पिछले दो दशकों से होती आई है।
बीजेपी कार्यकर्ताओं को ये समझ में नहीं आ रहा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह गाजियाबाद से लखनऊ क्यों गये? और गाजियाबाद से फिर बाहरी उम्मीदवार जनरल वीके सिंह को क्यों उतारा जा रहा है? जनरल वी के सिंह को सैनिकों के परिवार वालों की बहुलता वाली रोहतक या झुंझुनु जैसी सीट से टिकट क्यों नहीं दिया गया? बीजेपी कार्यकर्ता हैरान हैं कि पिछले पाँच साल से संसद के भीतर और टेलीविजन स्टुडियों मोदी और बीजेपी के खिलाफ आग उगलने वाले जगदंबिका पाल को पार्टी डुमरियागंज से टिकट देने पर क्यों आमादा है। दो बार विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद केशरीनाथ त्रिपाठी का नाम इलाहाबाद से क्यों लिया जा रहा है। पहली बार विधानसभा चुनाव जीतने वाले कलराज मिश्र को देवरिया से टिकट देने के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर हैं। बिजनौर से एडवोकेट राजेंद्र सिंह को टिकट देने के खिलाफ कार्यकर्ताओं में गुस्सा है। यहां तक कि जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी गाजियाबाद में नारेबाजी हो रही है।
अमित शाह पार्टी की बैठकों में नेताओं-कार्यकर्ताओं से कहते रहे हैं कि उम्मीदवार चाहे कोई हो, लेकिन पार्टी को ये कहना है कि हर सीट पर मोदी ही उम्मीदवार हैं। जाहिर है बीजेपी की रणनीति सिर्फ मोदी के नाम पर ही वोट मांगने की है। लेकिन खुद मोदी कहते हैं कि हवा चाहे कितनी ही तेज़ चल रही हो, अगर ट्यूब पकड़ कर खड़े हो जाएं तो अपने-आप हवा नहीं भर जाती। यानी मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाना ही पड़ेगा। सवाल ये है कि क्या यूपी का मतदाता मोदी को वोट देने के नाम पर खुद चलकर मतदान केंद्र तक जाएगा? या फिर उम्मीदवारों के चयन से नाराज बीजेपी कार्यकर्ता उन्हें मतदान केंद्र तक लायेंगे?
बीजेपी के लिए अब भी यूपी में उम्मीद की एक ही किरण बची है। वो ये कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता हर बूथ को संभालेंगे और बीजेपी और मोदी के पक्ष में वोटरों को बूथ तक लायेंगे। लेकिन इतना तय है कि उम्मीदवारों के चयन में देरी और गलतियों ने बीजेपी को राज्य में बहुत करारा झटका जरूर दिया है।