आडवाणी फिर से अपनी नाराजगी को लेकर सुर्खियों में हैं। पहले वे इस अंदेशे से नाराज थे कि बार-बार बुजुर्गों को लोकसभा चुनाव से दूर रहने की सलाह देने का मतलब कहीं उन्हें चुनावी दौड़ से बाहर करना तो नहीं है।
इसीलिए 27 फरवरी 2014 को जब भाजपा के लोकसभा प्रत्याशियों की पहली सूची जारी हुई और उसमें आडवाणी का नाम घोषित नहीं किया गया तो उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा जतायी। उस समय उनकी स्पष्ट मंशा अपने पुराने चुनाव-क्षेत्र गांधीनगर से ही लड़ने की थी। तब आडवाणी ने कहा था, “मेरी पसंद तो स्पष्ट है लेकिन अंतिम फैसला पार्टी को करना है।”
मगर जब गांधीनगर से उनकी उम्मीदवारी की घोषणा टलती रही तो मोदी विरोधियों ने इस पर खूब चुटकी लेनी भी शुरू कर दी। कहा जाने लगा कि मोदी एक तरफ तो भाजपा के एक बुजुर्ग मुरली मनोहर जोशी की सीट छीन रहे हैं, दूसरी तरफ वे दूसरे बुजुर्ग लालकृष्ण आडवाणी को भी गांधीनगर से बेदखल कर रहे हैं। आडवाणी गांधीनगर से पाँच बार से सांसद हैं। जाने-माने कार्टूनिस्ट इरफान का एक व्यंग्य-चित्र सोशल मीडिया पर फैलने लगा, जिसमें दिखाया गया कि आडवाणी बोरिया-बिस्तर समेट कर जा रहे हैं और मोदी उन्हें कह रहे हैं, “मैंने कहा था कि कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में, यह नहीं कि…”
दरअसल शुरुआती चर्चा यह थी कि संघ की इच्छा मोदी को वाराणसी या गांधीनगर से चुनाव अखाड़े में लाने की है। लेकिन गांधीनगर सीट नहीं छोड़ने की आडवाणी की जिद पर बात अटक रही थी।
मगर इस बीच कहानी ने कब करवट बदल ली, इसका अंदाजा राजनीतिक पंडितों को भी नहीं लगा। अभी बस एक-दो दिनों से ही यह चर्चा गर्म हो गयी कि आडवाणी अब गांधीनगर से नहीं बल्कि भोपाल से लड़ना चाहते हैं। इस हफ्ते बुधवार 19 मार्च को सुबह-सुबह भोपाल शहर में जगह-जगह आडवाणी के स्वागत के होर्डिंग लगे नजर आये। भोपाल के मौजूदा सांसद कैलाश जोशी ने आडवाणी को भोपाल से चुनाव लड़ने का न्यौता दे दिया।
अब कहानी पलट कर यह हो गयी है कि मोदी खेमा आडवाणी को गांधीनगर से ही लड़ाने का इच्छुक है, लेकिन आडवाणी भोपाल जाना चाहते हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि आडवाणी गांधीनगर सीट छोड़ने और भोपाल जाने के लिए इतने उतावले हो गये हैं? अटकलें हैं कि आडवाणी मोदी समर्थकों के संभावित विश्वासघात से डर गये हैं। मोदी से अपनी कई दौर की नाराजगी में आडवाणी अक्सर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अतिरिक्त तारीफ कर चुके हैं।
दरअसल गांधीनगर सीट पर मोदी की दावेदारी का किस्सा खत्म हो चुका है। वाराणसी से उनकी उम्मीदवारी तो पहले ही घोषित हो गयी थी, अब गुजरात में उन्हें वडोदरा से लड़ाने का फैसला किया गया है। भाजपा ने गुरुवार 20 मार्च को गांधीनगर से आडवाणी को उम्मीदवार बनाने का औपचारिक ऐलान भी कर दिया। लेकिन इसके साथ ही चैनलों पर खबरिया पट्टियाँ तैरने लगीं कि पितामह फिर नाराज हैं, कोपभवन में जा बैठे हैं।
अंततः आडवाणी किस बात पर मानेंगे और गांधीनगर से लड़ने को राजी होंगे या भोपाल का टिकट कटा कर ही रहेंगे, यह स्पष्ट होने में तो शायद कुछ वक्त लगे, लेकिन इस बीच सोशल मीडिया पर इस मामले में दिलचस्प टीका-टिप्पणियों का सिलसिला चालू हो गया है।
टीवी ऐंकर कादंबिनी शर्मा ने फेसबुक पर लिखा है, ” राजनीतिक दलों को अपने दफ्तरों में ‘कोप भवन’ भी बनवाना चाहिए। नेता तो महारानियों से भी ज्यादा रूठते हैं और मनाये भी जाते हैं!!
व्यंग्यकार आलोक पुराणिक चुटकी लेते हुए कहते हैं, “अमेरिका की जासूसी एजेंसी सीआईए तय नहीं कर पा रही है कि आडवाणीजी को भाजपा का मानें या भाजपा विरोधी मानें।” उन्होंने एक और टिप्पणी में लिखा, “अपनी पुरानी सीट गांधीनगर, गुजरात से लड़ने की अनिच्छा व्यक्त करने और नये इलाके भोपाल से लड़ने की इच्छा जताने के बावजूद भाजपा नेतृत्व आडवाणी जी को गांधीनगर से ही चुनाव लड़ाने पर उतारू है। इस पर आडवाणी जी ने अपने ब्लाग में लिखा है – मुझे अब उस टिपिकल भारतीय स्त्री का दर्द समझ में आता है, जो ससुराल में सतायी जाती है, वह इसका हल चाहती है। पर उसे फिर भी वही कहा जाता है – पहले ससुराल जाकर ही रहो, फिर निपटायेंगे तुम्हारा मसला।”
सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर ने ट्विटर पर टीवी चैनलों के खबरिया अंदाज की खबर ली है। वे एक चैनल के प्रमुख के नाम अपने ट्वीट में लिखती हैं, “आपने यह शरारत भरा शीर्षक मोदीज वे ऑर हाईवे (मोदी का रास्ता चुनो या रास्ता नापो) क्यों दिया है? आप कांग्रेस दफ्तर को क्यों अपने विषय चुनने दे रहे हैं?” वे आगे लिखती हैं कि “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं कि आडवाणी के मामले में मोदी ने टांग आड़ा दी है। आप अच्छी तरह जानते हैं कि प्रत्याशियों के चयन में मोदी की ज्यादा भूमिका नहीं है।” हालाँकि इस बात पर राजनीतिक पंडितों की तो छोड़िये, शायद राजनीति में मामूली दिलचस्पी रखने वालों को भी यकीन न हो कि प्रत्याशियों के चयन में मोदी की नहीं चली है।
आम लोग भी रस लेकर इस चर्चा में डूबे हैं। ऐसी ही एक टिप्पणी आडवाणी की तुलना दूल्हे के उस फूफा से कर रही है, जो बारात निकलने से पहले नाराज हो गये हैं। मतलब साफ है कि दूल्हा मोदी ही हैं, आडवाणी अब फूफा वाली भूमिका में ही रहेंगे, चाहे खुश रहें या नाराज!
(देश मंथन, 20 मार्च 2014)