बच्चों की इच्छा बनाम खलनायक पिताजी

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विकास मिश्रा, आजतक :

आठवीं या नौवीं में पढ़ रहा था। पिता जी के साथ शहर के बाजार में गये। मेरा मन एक चश्मे पर आ गया। मैंने खरीदने की जिद की, पिताजी ने मना कर दिया। मेरा ख्याल था कि चश्मा पहनकर हीरो लगूँगा।

पिताजी बोले – ये चश्मा लगा कर आँख खराब हो जायेगी। बहुत गुस्सा आया, मैट्रिक तक पढ़े हैं बड़े डॉक्टर हो गये हैं… पैसे बचा रहे हैं…

उस दिन पिताजी बहुत खराब लगे। ऐसे ही एक बार रेडियो खरीदने के लिए हंगामा किया तो चार थप्पड़ पड़े, रेडियो नहीं आया। पिताजी खलनायक दिखायी देने लगे। मुझे रेडियो क्रिकेट कमेंट्री के लिए चाहिए था, पिताजी का तर्क था, कि रेडियो सुनेगा तो पढ़ेगा कब? और बड़ा हुआ… इलाहाबाद पढ़ने गया… पाँच सौ माँगता था, चार सौ मिलते थे। एक बार तो मैंने कह दिया – चार बीघे खेत बेच कर एक मुश्त पैसे दे दीजिए, मैं फिर कभी नहीं माँगूँगा। 

पिताजी से अगाध प्रेम था, लेकिन कई मसलों पर बचपन से विरोध भी कायम रहा। कोल्ड ड्रिंक पीने को कहता तो बेल के शर्बत या लस्सी का विकल्प रख देते। बाहर खाने की बात करते तो तर्क आता कि घर का खाना सेहतमंद है। इलाहाबाद में कुछ दोस्तों के पास मोटरसाइकिल थी। उसकी माँग की, नकार दी गयी। तब मन में यह भी आता था कि हमारे बच्चे होंगे तो दिखायेंगे कि कैसे बच्चे पालते हैं। उनकी हर इच्छा पूरी होती है। 

वक्त बदला बाप पहले बने, शादी बरसों बाद हुई (घबराइए नहीं, शादी से पहले दो भतीजे मेरे साथ पढ़ने आ गये थे)। कोशिश भी रही कि बच्चों को कोई कमी नहीं रहे। अभी एक बेटे, तमाम भतीजे-भतीजियों, भानजे-भानजियों का अभिभावक हूँ। अब न जाने क्यों लगता है कि पिताजी ज्यादा सही थे। ज्यादा सही अभिभावक थे। यहाँ भी वही भाव आने लगे हैं, जो पहले होता था। बच्चे ज्यादा पैसे की माँग करते हैं, लगता है कि फिजूलखर्च बनेंगे, पढ़ाई के अलावा कहीं और लगे रहेंगे, पढ़ाई से ध्यान उचटेगा। फेसबुक पर भी उन्हें ज्यादा सक्रिय देखता हूँ तो लगता है कि पढ़ाई वाला वक्त यहाँ जाया कर रहे हैं। हम भी चाहते हैं कि वे पेप्सी-कोक की जगह कुछ फायदेमंद चीज खायें। रेस्टोरेंट में खाने की बजाय घर में शाही पनीर बनवा लें, सेहत के लिए अच्छा रहेगा, शुद्ध रहेगा। हालाँकि पूरी कोशिश रहती है कि पीढ़ियों का अंतर उभर कर न आ जाये, फिर भी अगली पीढ़ी के पास माँगों की सूची है। हमारे पास उन्हें न पूरी करने के तर्कों का भंडार। आम तौर पर इस भंडार पर ताला लगाए रखता हूँ, डर है कि नयी पीढ़ी आमने-सामने न आ जाये। 

मेरा एक भतीजा मेरे पास रह कर यहीं दिल्ली में पढ़ता था। 18 साल का था, मोटरसाइकिल की माँग लेकर सत्याग्रह पर उतारू हो गया। दिन रात उसके ख्वाबों में मोटरसाइकिल आती थी। मैं डरता था कि 18 साल की उम्र में कहीं लड़ भिड़ न जाये। एक दिन भारत और श्रीलंका का क्रिकेट मैच था। भारत जीत गया था। राहुल द्रविड़ मैन ऑफ द मैच चुने गये। जैसे ही उनके हाथ चेक दिया गया, टीवी पर इस नजारे को देख कर वह भतीजा बोल उठा – अभी राहुल द्रविड़ घर जायेगा और अपने बेटे के लिए मोटरसाइकिल खरीदेगा। हमारे दादा लोगों की तरह यह थोड़े है, अपने बच्चे से प्यार करता होगा। …ये था मोटरसाइकिल के लिए उसका पागलपन। 

हमने भी कॉलेज-यूनिवर्सिटी की क्लास बंक करके खूब फिल्में देखी थीं, लेकिन यह अगर हमारी अगली पीढ़ी के बारे में पता चलता है तो तिलमिलाहट होती है कि पढ़ नहीं रहे हैं, फिल्मों में वक्त गँवा रहे हैं। पिताजी याद आते हैं, जिन-जिन चीजों के लिए वे मना करते थे, तब मुझे गुस्सा आता था, अब वे बातें मीठी यादों के तौर पर कौंधती हैं। बार-बार लगता है कि वे ज्यादा सही थे। मन के भीतर से सवाल भी आता है – कहीं मेरी सोच बूढ़ी तो नहीं हो रही?

(देश मंथन, 24 मई 2014) 

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