द कश्मीर फाइल्स : विवेक अग्निहोत्री ने उठा दी झूठ की दुकान

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The Kashmir Files, द कश्मीर फाइल्स

विवेक अग्निहोत्री की सफलता यही है कि उन्होंने विमर्श की दिशा मोड़ दी। उन्होंने बस दर्द को जस-का-तस परोस दिया, जो इतने वर्षों से झेलम नदी में कश्मीरियत की हरी काई के नीचे दबा था और अब वह दर्द बह कर नीचे उस मैदान में आ गया है, जहाँ तक आने से लिबरल जमात उसे रोक रही थी!

द कश्मीर फाइल्स जैसे-जैसे सफल होती जा रही है, वैसे-वैसे ही वह एक ऐसी लकीर बनाती जा रही है, जिसे पार करना सहज संभव नहीं हो पायेगा। पहले तो लिबरल समूह ने इस फिल्म का बहिष्कार किया। बार-बार यही कहने का और यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि दरअसल यह फिल्म प्रोपेगैंडा (कुप्रचार) मात्र है, और विवेक अग्निहोत्री ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए यह फिल्म बना दी है।
जनता ने इस पर भी उनकी बात नहीं मानी। उसके बाद कुछ मुस्लिम याचिका लेकर फिल्म की रिलीज रुकवाने के लिए मुंबई उच्च न्यायालय पहुँच गए। वहाँ उनकी याचिका खारिज हो गयी। उसके बाद जिस प्रकार से मात्र सोशल मीडिया पर हिंदुओं ने इस फिल्म की प्रशंसा की, उसके चलते मात्र 500 थिएटर में रिलीज होने वाली फिल्म को और अधिक स्क्रीनें मिल गयीं। एक नयी प्रकार की क्रांति हुई और हिंदुओं के एक बड़े वर्ग ने इस फिल्म को देखने का अभियान चला दिया।

कश्मीर पर एजेंडा वाली फिल्मों का दौर

ऐसा नहीं है कि कश्मीर में या कश्मीर पर फिल्में नहीं बनती थीं। पाठकों को स्मरण होगा कि असंख्य फिल्में कश्मीर के आतंकवाद पर बनी हैं। परंतु उनमें क्या नैरेटिव था, इस पर ध्यान देना होगा! उनमें बार-बार यही कहा गया कि दरअसल हिंदू भारत की सेना ने मुस्लिम कश्मीर पर अत्याचार किये और जिसके कारण मुस्लिमों को बंदूक उठानी पड़ी और साथ ही उनके परिवारों को सेना ने मारा!
कश्मीर की हिंदू पहचान मिटाने वाले विचार पर कोई बात नहीं हुई। मुस्लिम शासकों को उस कश्मीर का उद्धारक घोषित कर दिया गया, जो कश्मीर न जाने कब से ज्ञान का केंद्र था। वह कश्मीर जिसकी पहचान स्वयं महादेव हुआ करते थे, वह कश्मीर जिसका नाम कश्यप ऋषि के नाम पर था, वह कश्मीर जहाँ केरल से चल कर आदि गुरु शंकराचार्य चल कर गये। उस कश्मीर से चुन-चुन कर हिंदू पहचान मिटायी जाती रही, और सेक्युलर खेमा कश्मीरियत के नगमे गाता रहा।
मंदिर तोड़े जाते रहे, परंतु कश्मीरियत जिंदा रही! क्या थी कश्मीरियत! और कश्मीरियत के नीचे कितने हिंदुओं का खून था? न ही किसी दृश्य-श्रव्य माध्यम ने इसे दिखाने का प्रयास किया और न ही दिखाया गया। सब कुछ एकतरफा चलता रहा। फिर चाहे वह मिशन कश्मीर हो, फना हो या फिर हाल ही में कश्मीरी पंडितों के घावों पर नमक छिड़कने के लिए बनी फिल्म शिकारा। ऐसा लग रहा था जैसे सारा अपराध भारत की सेना ने किया था। जो जहर दोषी था, उसे अमृत बना दिया और जो पीड़ित था, जिसने अपने पूरे समुदाय को मरते हुए देखा, वह बेचारा कहीं था ही नहीं!
विमर्श में से कश्मीरी हिंदू गायब ही हो गया था।
क्षमा कौल, दिलीप कौल जैसे लोग थे जो लिखते रहे! विस्थापन के गीत लिखे जाते रहे। गिरिजा टिक्कू को जिंदा आरी से काटे जाने का दर्द वे जिंदा रखे रहे। यही वह दर्द था जो ज्यों-का-त्यों विवेक अग्निहोत्री ने रख दिया है। विवेक अग्निहोत्री ने कुछ विशेष नहीं किया है। अपना एजेंडा प्रस्तुत नहीं किया है। उन्होंने मात्र इतना किया है कि सैकड़ों कश्मीरी हिंदुओं का साक्षात्कार लिया, उनके दर्द सुने और फिर उसे घटनाओं में पिरो दिया।

द कश्मीर फाइल्स ने ध्वस्त कर दिये झूठे विमर्श

इस तीन घंटे की फिल्म ने वर्षो से चले आ रहे झूठ को ध्वस्त कर दिया। इसने उस कश्मीरियत के चेहरे से मुखौटा नोच दिया है, जिसका राग सेक्युलर कही जाने वाली जमात अब तक गा रही थी। विवेक अग्निहोत्री की सफलता यही है कि उन्होंने विमर्श की दिशा मोड़ दी। उन्होंने बस दर्द को जस-का-तस परोस दिया, जो इतने वर्षों से झेलम नदी में कश्मीरियत की हरी काई के नीचे दबा था और अब वह दर्द बह कर नीचे उस मैदान में आ गया है, जहाँ तक आने से लिबरल जमात उसे रोक रही थी!
यही विवेक अग्निहोत्री की सफलता है! यही लिबरलों का दर्द है, कि सत्य सामने आ रहा है, उनकी झूठ की दुकान उठ रही है!
(देश मंथन, 16 मार्च 2022)

देखें कश्मीरी पंडितों के पलायन पर आधारित उपन्यास द इनफिडेल नेक्स्ट डोर या एक काफिर मेरा पड़ोसी के लेखक डॉ. रजत मित्र से एक बातचीत – https://youtu.be/KC2y_Ijda5w

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