संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैं अभी दिल्ली में जिस फ्लैट में रहता हूँ, उसके बारे में मेरी पत्नी को लगता है कि छोटा है। मुझे लगता है कि ढाई लोगों के परिवार में तीन बेड रूम कम तो नहीं! उपर से ठीक-ठाक आकार का ड्राइंग-डाइनिंग रूम भी है, बड़ी-सी बॉलकनी है, लंबी चौड़ी छत है, घर के नीचे बीएमडब्लू है। लेकिन मेरी पत्नी को फिर भी लगता है कि मकान तो और बड़ा होना चाहिए। कितना बड़ा, यह नहीं पता।
मैं उस शाम शाहरुख खान के साथ बैठा था। खाना चल रहा था, और शाहरुख बता रहे थे कि कैसे जब वे मुंबई चले गये, उनकी शादी हो गयी और फिल्में आने लगीं, तो गौरी की शिकायत इस बात की थी कि एक बढ़िया घर नहीं खरीद पाये अब तक। गौरी की दिली तमन्ना थी कि शाहरुख मुंबई में एक बढ़िया मकान खरीदें।
अजीब समस्या थी। दिल्ली का एक लड़का मुंबई में संघर्ष कर रहा था, ऊपर से शादी भी हो गयी थी और वह हिट भी हो चला था, पर घर नहीं था। अब कब तक ऐसे चलता?
उसी समय शाहरुख को मिल गये प्रेम लालवानी जी। पता नहीं कहाँ से उड़ते-पुड़ते लालवानी जी शाहरुख से मिले और उन्होंने उनको लेकर एक फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया। तब तक शाहरूख फिल्म लाइन में अपनी जगह बना चुके थे, और लोगों के दिलों में समा चुके थे। लालवानी साहब कहीं दूर देश से भारत आये और उन्होंने जिद पाल ली कि शाहरुख के साथ ही फिल्म बनायेंगे। और फिर उन्होंने शाहरुख को जिस फिल्म में साइन किया वह फिल्म तो मैंने देखी है, लेकिन फिल्म देखने के करीब 19 वर्ष बाद शाहरुख के मुँह से ही उसकी कहानी सुनना एक आनंददायक अनुभव रहा।
चलिये आपको सीधे शाहरुख के पास लिए चलता हूँ, और सुनते हैं उस फिल्म की कहानी जिसे सुनाते हुए शाहरुख हँसते-हँसते खुद ही लोटपोट हुए जाते थे। इस कहानी को सुनाना शुरू करूँ, उससे पहले यह बताता चलूँ कि इसी फिल्म से जुड़ी थी गौरी के सपनों के साकार होने की भी कहानी।
खाने की मेज पर बैठे शाहरुख ने सुनाना शुरू किया कि कैसे लालवानी साहब ने मनीषा कोइराला के साथ बतौर हीरोइन वाली फिल्म में उनको जब साइन किया तो शाहरुख ने उस फिल्म में काम करने के बदले घर की चाहत रख दी। मतलब फिल्म के बदले घर।
अब इस फिल्म का नाम बता दूँ, उससे पहले शाहरुख ने फिल्म की कहानी सुनानी शुरू कर दी। एक लड़का एक लड़की को प्यार करता है, और अचानक एक सड़क हादसे में लड़की अंधी हो जाती है। अब कहानी टोटल फिल्मी बन जाती है। लड़के को लगता है कि उसकी गलती से दुर्घटना हुई और लड़की अंधी हो गयी। ऐसे में वह लड़की को अपनी आँखें दान करना चाहता है, लेकिन लड़के के पिता ऐसा नहीं चाहते।
एक दिन लड़के को पता चलता है कि उसे ब्रेन ट्यूमर है और वह मरने वाला है। अब कहानी त्याग की पराकाष्ठा पर पहुँचती है। बीच में लड़के के पिता की तबीयत बिगड़ती है, माँ भगवान के चरणों पर गिर कर राजू गाइड की तरह भूख व्रत धारण कर लेती है। आखिर में माँ की मौत हो जाती है तो उसी की आँखें लड़की को मिल जाती हैं। लड़के के ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन हो जाता है और वह ठीक हो जाता है। लड़के के पिता भी टनाटन ठीक हो जाते हैं।
शाहरुख खान इस फिल्म की कहानी सुनाते और बीच-बीच में जोर से हँसते। शाहरुख जैसे कलाकार जो पूरी तरह स्कूल, कॉलेज अटेंड किये हुए होते हैं, वे जब किसी फिल्म में काम करते हैं तो यह सोच कर नहीं करते कि इसमें सच क्या है झूठ क्या है। वे यह सोच कर काम करते हैं कि ‘करना है तो करेंगे’। और जो करते हैं, शिद्दत से करते हैं। वे कहानी की तार्किकता में नहीं घुसते। वे अविश्वसनीय से अविश्वसनीय चीजों को अपनी मेहनत के बल पर अंजाम देते हैं। मैंने अपनी जिंदगी में शाहरुख की तरह मेहनती कलाकार नहीं देखा।
शाहरुख सही मायने में कृष्ण के कर्म के पुजारी हैं, और करोड़ों के फायदे को मुस्कुरा कर जज्ब कर लेते हैं, तो करोड़ों के घाटे वाले अपने फैसले को भी मुस्कुरा कर ही जज्ब करते हैं। चेन्नई एक्सप्रेस के चार सौ करोड़ के आँकड़े ने उनके चेहरे के नूर को बढ़ाया तो रावन ने उन्हें भी उन्हें हँसाया ही। खुद ही कहते फिरे कि वे फिल्में फायदा-नुकसान देख कर नहीं बनाते। जो मन किया वह कर दिया वाला फार्मूला है उनका। क्या लेकर आये थे, क्या लेकर जायेंगे वाली सोच जो रखता है, उसके पास न तो खोने को कुछ होता है, न रोने को। और शाहरुख इसी फॉर्मूले के पुजारी हैं।
खैर, मुझे उम्मीद है फिल्म की कहानी सुन कर आप समझ गये होंगे कि वह कौन-सी फिल्म थी। क्या कहा? फिल्म नहीं देखी? तो जनाब, फिल्म का नाम है गुड्डू।
यह शाहरुख खान का कोई पिछले जन्म का कर्ज रहा होगा लालवानी साहब पर कि इस फिल्म को बना कर वे बहुत खुश हुए और इस तरह शाहरुख मुंबई में एक अदद घर के मालिक बने। इस तरह फिल्म चाहे विचित्र और अविश्वसनीय वाली श्रेणी में आती हो, लेकिन इस फिल्म ने न सिर्फ लालवानी साहब के सपनों को साकार किया, बल्कि शाहरुख और गौरी के सपनों को भी साकार किया।
अब मुझे देखना है कि मेरी ज़िंदगी में कौन लालवानी साहब आयेंगे, जो मेरी पत्नी के उस अदद घर के सपने को साकार करायेंगे, जिसे पाले हुए बेचारी हर रोज दिल्ली-गुड़गाँव के चक्कर काटती है, कि एक तो ऐसा मिल जाये जहाँ मैं अमिताभ बच्चन या शाहरुख को खाने पर बुलाऊँ तो उसकी आत्मा को ठंडक पहुँचे!
आप भी देखियेगा। कोई लालवानी साहब दिखें तो बताइयेगा। मैं भी गुड्डू बन जाउँगा और फिर अपने उस घर में आपको भी तो बुलाउँगा…
(देश मंथन, 03 जून 2014)